काफ़िया क्या है?
काफ़िया या तुक वो शब्द है जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे’र के दूसरे मिसरे के अंत मे रदीफ़ से पहले आता है.अब ये काफ़िया या तुकबंदी भी आसान काम नही है इसके लिए भी कायदे कानून हैं जिनका ज़िक्र ज़रूरी है.अब दो शब्द आपस मे तभी हम-काफ़िया होंगे अगर उनमे कोई साम्यता होगी.और इसी साम्यता की वज़ह से वो काफ़िया बनेंगे.इसी साम्यता के आधार पर काफ़िये दो तरह के हो सकते हैं :
स्वर साम्य काफ़िये : वो शब्द जिनमे स्वर की साम्यता हो . ऐसे काफ़िये अमूमन उर्दू मे इस्तेमाल किये जाते हैं लेकिन अब हिंदी मे भी ये चलन हो गया है.
मसलन: देखा, सोचा, पाया, आता, पीना,पाला,नाना आदि.
इनमे: स्वर :" आ " की एकता है बस, व्यंजन की नहीं, व्यंजन अलग है सबके जैसे: देखा-सोचा मे ’ख" "च" अलग है इनमे कोई एकता नही.तो ये स्वर साम्य काफ़िये हैं और इनका इस्तेमाल खूब होता है.
न रवा कहिये न सज़ा कहिये
कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये
ये स्वर साम्य है यहाँ "आ" की एकता है व्यंजन "ज" और " र" अलग हैं.
आरजू है वफ़ा करे कोई
जी न चाहे तो क्या करे कोई
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई
"ई" साम्य काफ़िये देखिए द्विज जी की ग़ज़ल से
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
यहाँ भी स्वर की साम्यता है व्यंजन कि नही.
स्वर और व्यंजन की साम्यता : आब बात आगे बढ़ाते हैं हम काफ़िया शब्दों मे जो व्यंजन रिपीट होता है मसलन:चाल-ढाल-खाल-दाल-डाल इनमे "ल" हर्फ़े-रवि कहलायेगा.जो हर काफ़िये के अंत मे आयेगा.
जैसे द्विज जी के अशआर देखें:
जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
ज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग
सत्य और ईमान के हिस्से में हैं गुमनामियाँ
साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग
उस आदमी का ग़ज़लें कहना क़ुसूर होगा
दुखती रगों को छूना जिसका शऊर होगा
यहाँ "र" हर्फ़े-रवी है.
वास्तव मे काफ़िया या तुक स्वर और व्यंजन की आंशिक एकता से बनते हैं.
इसके बाद बात करते हैं कि -- ग़ज़ल मे मतले मे जो पाबंदी लगा दी जाती है उसे पूरी ग़ज़ल मे निभाना पड़ता है सो जो पाबंदी आप काफ़िये मे लगा लेते हो वो पूरी ग़ज़ल मे निभानी पड़ती है. अब आर.पी शर्मा जी के हवाले से बात आगे बढ़ाते है..
काफ़िये दो तरह के होते हैं या आप यूँ भी कह सकते हैं कि शब्द दो तरह के होते हैं एक विशुद्द और दूसरे योजित. योजित माअने जिनमे कोई अंश जुड़ा हो मसलन:
शुद्द शब्द से योजित शब्द या काफ़िये के उदाहरण:
सरदार से सरदारी (ई) का अंश बढ़ा दिया यहाँ शुद्द शब्द है सरदार और योजित है सरदारी .ऐसे ही:दुश्मन से दुशमनी, यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ.
सर्दी से सर्दियाँ...यहाँ याँ का
गर्मी से गर्मियाँ...यहाँ याँ का
किलकारी से किलकारियाँ....यहाँ याँ का
होशियार से होशियारी....यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
दोस्त से दोस्ती...........यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
वफ़ा से वफ़ादार... यहाँ दार का
सितम से सितमगर.....यहाँ गर का.
ऐसे सारे काफ़िये योजित काफ़िये कहलाते हैं जिनमे कुछ अंश जोड़ा गया हो.
शुद्द शब्द तो शुद्द है ही जैसे ज़िंदगी, दोस्त, खुश,खेल आदि.
श्री आर.पी शर्मा जी ने जैसा कहा है कि:
1.पहली शर्त ये है कि मतले मे अगर दोनो काफ़िये योजित हैं तो वो सही काफ़िये इस सूरत मे होंगे कि अगर हम उनके बढ़े हुए अंश निकाल दें तो भी वो आपस मे हम-काफ़िया हों.जैसे:
यँ बरस पड़ते हैम क्या ऐसे वफ़ादारों पर
रख लिया तूने जो अश्शाक को तलवारों पर
नुमाइश के लिए गुलकारियां दोनो तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियां दोनो तरफ़ से हैं.
अब अगर खिड़कियों से तलवारों का कफ़िया बांधेगे तो गल्त हो जाएगा,क्योंकि खिड़की और तलवार से अगर "यां" निकाल दें तो खिड़की और तलवार आपस मे हम काफ़िया नहीं हैं.ऐसे काफ़ियों को मतले मे बांधने से मतला इता दोश युक्त हो जा है.योजित काफ़िये को मतले मे बांधने से पहले अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये.अगर मतले मे दोनो काफ़िये योजित रखने हों तो योजित अंश निकालने पर भी शब्द हम-काफ़िया होने चाहिए.जैसे वफ़ादारों और तलवारों मे "ओं" निकाल देने पर भी तलवार और वफ़ादार हम-काफ़िया हैं.
वैसे तो गुलाब और शराब का काफ़िया बांधने पर भी मनाही है लेकिन अहमद-फ़राज़ साहेब कि ग़ज़ल का मतला देखें:
बदन मे आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हरे-ग़म का नशा भी शराब जैसा है.
जब मैने इस बात का ज़िक्र आर.पी शर्मा जी से किया तो उन्होने कहा कि इसके भी आगे भी कई और नियम हैं और बाल की खाल निकालने से कोई फ़ायदा नहीं.सो शायरी मे भी कई घराने हैं जो इता को दोश मानते हैं और कई नही मानते अब मै इस दुविधा मे हूँ कि मै किस घराने से जुड़ूँ.जाने-माने शायर अगर जाने-अनजाने कोई गल्ति करते हैं तो वो आगे जाकर एक नियम बन जाता है.
द्विज जी की ग़ज़ल का मतला देखें:
हज़ूर आप तो पहुँचे हैं आसमानो पर
सिसक रही है अभी ज़िम्दगी ढलानो पर.
यहाँ अगर बढ़े हुए अंश "ओं" को निकाल दें तो आसमान और ढलान हम-काफ़िया हैं.
या फिर एक विशुद्द एक योजित काफ़िया ले लें:जैसे:
है जुस्तज़ू कि खूब से है खूबतर कहाँ
अब ठैरती है देखिए जाकर नज़र कहाँ.
खूबतर योजित है और जाकर शुद्द तो बात बन गई.नही तो इसमे एक और कानून है कि अगर बढ़ा हुआ -काफ़िया नही है लेकिन उनमे व्याकरण भेद है तो वो दोषमुक्त हो जाएंगे.
जैसे : देख मुझको न यूँ दुशमनी से
इतनी नफरत न कर आदमी से
यहाँ पर "ई" दोनो काफ़ियों मे बढ़ा हुआ अंश है और इसे निकाल देने से दुशमन और आदमी हम-आवाज़ या हम-काफ़िया नही है लेकिन दोनो मे व्याकरण भेद है दुशमन भाववाचक है और आदमी जाति वाचक है तो ये सही मतला है.लेकिन अगर ऐसे हो:
आपसे दोस्ती,
आपसे दुशमनी
तो क्योंकि दोनो भाववाचक हैं और बढ़ा हुआ अंश ई’ निकाल देने से हम-काफ़िया नही है सो ये गल्त हो जायेगा.
अब अगर दोनो शुद्द हों तो झगड़ा ही खत्म.
देख ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों क ख्याल रहने दे (द्विज)
कुछ और असूल:
1.एक ही शब्द बतौर काफ़िया मतले मे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए बशर्ते कि उनके अर्थ जुदा-जुदा हों. ऐसा करने से काफ़िया रदीफ़ सा बन जाता है.एक शब्द बस इस सूरत मे इस्तेमाल कर सकते हैं जो
उनके अर्थ अलग हों जैसे:
हुई है शाम तो आँखों मे बस गया फिर तू
कहां गया मेरे शहर के मुसाफिर तू.यहाँ फिर के माने 'बाद' और दूसरे मिसरे मे मुसाफिर का अंश है फिर.जैसे सोना और सोना एक मेट्ल है दूसरा सोना. या फिर जैसे कनक का एक अर्थ धतूरा एक कनक सोना.
अगर आपने काफ़िया "हम" बांधा है और रदीफ़ ’न होंगे" और आपने हम मतले के दोनो मिसरों मे ले लिया तो ये उस ग़्ज़ल का काफ़िया न होकर रदीफ़ बन जायेगा.
हम न होंगे.
लेकिन एक बात बड़ी दिलचस्प है :
अब दिल है मुकाम बेकसी का
यूँ घर न तबाह हो किसी का.यहाँ ई का काफ़िया है लेकिन व्यंजन "स’ रिपीट हो गया लेकिन क्योंकि काफ़िया स्वर का है इसलिए ये छूट है या फिर शायद कोई और नियम हो.
एक और देखे:बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां
याद आता है चौंका -बासन चिमटा फुकनी जैसी मां.
यहाँ भी ’नी’ रिपीट हुआ है लेकिन काफ़िया "ई’ का है.
2.कुछ शब्द उच्चारण मे हम आवाज़ लगते हैं लेकिन लिखने मे नही जैसे
पड़ और पढ़, खास और यास, आग और दाग़ इन्हें मलफ़ूज़ी काफ़िये कहते हैं और इस दोष को इक्फ़ा कहते हैं. और उर्दू भाषा मे कुछ शब्द ऐसे है जो लिखे तो एक से जाते हैं लेकिन उच्चारण अलग होता है मसलन
सह’र और स’हर एक का मतलब सुबह अए जादू, सक़फ़ और सक्फ़( सीन, काफ़,फ़े) इनके अर्थ अलग हैं इन्हे मक़तूबी काफ़िये कहते हैं. लेकिन हिंदी मे ये भेद नही है.
3.अगर काफ़िये मे आप खफ़ा, वफ़ा लेते हैं तो ज़रूरी नहीं कि आप अशआर मे नफ़ा आदि लें आप नशा, देखा, सोचा.. ले सकते हैं.
डा॰ इकबाल अपनी एक ग़ज़ल में लाये हैं,फिर चिराग़े-लाल से रौशन हुए कोहो-दमन
मुझको फिर नग्मों पे उकसाने लगा मुर्गे-चमन।
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है, आता है धन जाता है धन।
यहाँ इकबाल जी ने च+मन और द+मन मतले मे बांधे लेकिन आगे जाके ये बंधिश तोड़ दी .इसे" धन" कर दिया तो ये छूट है:ये उदाहरण श्री आर पी शर्मा जी ने खोजी है.
4. एक और कमाल देखें
पुरखों की तहज़ीब से महका बस्ता पीछे छूट गया
जाने किस वहशत मे घर का रस्ता पीछे छूट गया.
यहाँ पर रस्ता , बस्ता काफ़िये मतले मे बांधे और इसके हिसाब से आगे.. सस्ता, या खस्ता आदि आने चाहिए लेकिन..
अहदे-ज़वानी रो-रो काटा मीर मीयां सा हाल हुआ
लेकिन उनके आगे अपना किस्सा पीछे छूट गया.
ये सब चलता है.
5. अगर आप मतले मे कामिल और शामिल का काफ़िया बांधा है तो आगे आपको शामिल, आमिल आदि बांधने पड़ेंगे कातिल गल्त हो जायेगा. सो ये सब है ...लेकिन द्विज जी की एक बात से इस बहस को यहीं विराम देता हूँ कि शायरी मे कुछ भी हर्फ़े-आखिर नही होता. लकीर के फ़कीर होना भी सही नही लेकिन इल्म लाज़िम है.
अपना एक मतला पेश करता हूँ और खत्म करता हूँ
तालिबे-इल्म हूँ हर्फ़े-आखिर नही हूँ मैं
फ़न से वाकिफ़ तो हूँ फ़न मे माहिर नहीं हूँ मैं ...सतपाल ख़याल
8 comments:
Bahut Khoob.
बहुत ही सुन्दर जानकारी प्रेषित किया है आपने।
काफी जानकारियां नयी मिली।
और काफी जानकारियां पता थी लेकिन उलझन थी।
अब काफी कुछ साफ हो गया।
Thank u
Aag. ..raag ka qaafiya koi bata den please koi...mjhy apne shayari me zarurt h
कुल कितनी बहरें हैं।क्या ये 600 से भी ज़्यादा है?please clarify.Kindly meet the query.
सर मैं बहुत अचंभित हो गया हूं
मैंने आपके मतले की आखिरी लाइन के आखिरी हिस्से को एक बार प्रयोग कर चुका हूं, जबकि मैं इसके बारे में पहले जानता तक नहीं था
bahut hi achchi post
बहुत सुंदर जानकारी
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