दिल्ली मे दूसरे दौर के शायर:
अब ज़िक्र करते हैं दिल्ली में दूसरे दौर के शायरों का. जिनमे प्रमुख हैं मोमिन, ज़ौक़ और गालिब; इन्होंने ग़ज़ल की इस लौ को जलाए रखा. दिल्ली के आखिरी मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र खुद शायर थे सो उन्होंने दिल्ली मे शायरी को बढ़ावा दिया.
शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक:(1789-1854): ये उस्ताद शायरों में शुमार किए जाते हैं, जिनके अनेक शागिर्दों ने अदबी दुनिया में अच्छा मुक़ाम हासिल किया है.
कहिए न तंगज़र्फ़ से ए ज़ौक़ कभी राज़
कह कर उसे सुनना है हज़ारों से तो कहिए
रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त
मोमिन खां मोमिन (1800-1851): दिल्ली मे पैदा हुए और शायर होने के साथ-साथ ये हकीम भी थे.
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो
उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में मोमिन
आखरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे
मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ 'ग़ालिब':जन्म: (27 दिसम्बर 1796 ,निधन: 15 फ़रवरी 1869 ): इस शायर के बारे मे लिखने की ज़रुरत नहीं है. हिंदोस्तान का बच्चा-बच्चा इन्हें जानता है. गा़लिब होने का अर्थ ही शायर होना हो गया है.
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
इस शायर ने ग़ज़ल को वो पहचान दी कि ग़ज़ल नाम हर आमो-खास की ज़बान पर आ गया लेकिन एक बात और है कि काफी कठिन ग़ज़लें भी इन्होंने कही जिसे समझने के लिए आपको डिक्शनरी देखनी पड़ेगी और गालिब ने भी समय रहते इसे महसूस किया और सादा ज़बान इस्तेमाल की और वही अशआर लोगों ने सराहे जो लोगों की ज़बान मे कहे गए. उस वक्त गा़लिब और मीर की निंदा भी की गई .
कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे
गा़लिब ने भाषा मे सुधार भी किया लेकिन गा़लिब भाषा से ऊपर उठ चुका था. वो एक विद्वान शायर था. एक बात तो तय है कि भाषा से भाव बड़ा होता है लेकिन भाषा भी सरल होनी चाहिए ताकि लोग आसानी से समझ सकें.
दिल्ली के हालात खराब हुए तो कई शायरों ने लखनऊ का रुख किया. जिनमे मीर और सौदा भी शामिल थे. वहाँ के नवाब ने लखनऊ सकूल की स्थापना की. फिर लखनऊ और दिल्ली दो केन्द्र रहे शायरी के. फिर नाम आता है इमामबख्श नासिख का (1787-1838) लखनऊ से थे और आतिश (1778-1846-लखनऊ) का. इन दोनो शायरों ने खूब नाम कमाया. लखनऊ स्कूल का नाम इन दोनो ने खूब रौशन किया.
नासिख:
साथ अपने जो मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर मुझको दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया
आतिश:
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते
अमीर मिनाई: (1826-1900 )
सरक़ती जाये है रुख से नक़ाब, आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब, आहिस्ता-आहिस्ता
और बहुत से शायर आगे जुड़े जैसे:हातिम अली,खालिक, ज़मीर, आगा हसन, हुसैन मिर्ज़ा इश्क इत्यादि. उधर दिल्ली मे गा़लिब, ज़ौक़, मिर्ज़ा दाग ने दिल्ली सकूल को संभाला. यहाँ पर अगर हम दाग़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो सब अधूरा रह जएगा.
मिर्ज़ा दाग (1831-1905) ; मै तो ये मानता हूँ कि दाग़ सबसे अच्छे शायर हुए. उन्होंने ग़ज़ल को फ़ारसी ने निजात दिलाई. इकबाल के उस्ताद थे दाग़. ग़ज़ल को अलग मुहावरा दिया इन्होंने और कई लोगों ने आगे चलकर दाग़ के स्टाइल मे शायरी की. दाग देहलवी एक परंपरा बन गई. 1865 मे बहादुर शाह जफ़र की मौत के बाद ये राम पुर चले गए. दिल्ली स्कूल को दाग से एक पहचान मिली ..
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी
नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़ुबां आते आते
दाग़ इसीलिए सराहे गए कि वो ग़ज़ल की भाषा को जान गए थे और आम भाषा और सादी उर्दू मे उन्होंनें ग़ज़लें कही, यही एक मूल मंत्र है कि ग़ज़ल की भाषा साफ और सादी होनी चाहिए.
ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई
इस शे'र को पढ़के कोई क्या कहेगा कि उर्दू का है या हिंदी का. बस हिंदोस्तानी भाषा मे लिखा एक सादा शे'र है. हिंदी और उर्दू कि बहस यही खत्म होती है कि एक बोली की दो लिपियाँ है देवनागरी और उर्दू.
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