Monday, October 18, 2021

काफ़िया पर एक विमर्श - सतपाल 'ख्याल'-भाग एक

 विमर्श से पूर्व मेरी बात: 


मैं कोई बहुत बड़ा विशेषज्ञ नही हूँ लेकिन जो भी बज़ुर्गों , किताबों और अनुभव से सीखा वही कह रहा हूँ . कहीं कुछ ग़ल्त हो तो ज़रूर बताएँ.बाकी हमारे आर.पी शर्मा जी जैसे पिंगलाचार्य हैं और द्विज जी जो मेरे आदरणीय गुरु हैं जब भी दुविधा होती है तो ये मेरी शंका का समाधान कर देते हैं.अपनी ग़ज़ल के मतले से शुरू करता हूँ : 

तालिबे-इल्म हूँ हर्फ़े-आखिर नही
फ़न से वाकिफ़ तो हूँ फ़न मे माहिर नहीं 
आज हम काफ़िये पर चर्चा करेंगे :
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काफ़िया क्या है 

काफ़िया या तुक वो शब्द है जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे’र के दूसरे मिसरे के अंत मे रदीफ़ से पहले आता है। अब ये काफ़िया या तुकबंदी भी आसान काम नही है इसके लिए भी कायदे कानून हैं जिनका ज़िक्र ज़रूरी है। अब दो शब्द आपस मे तभी हम-काफ़िया होंगे अगर उनमे कोई साम्यता होगी और इसी साम्यता की वज़ह से वो काफ़िया बनेंगे। इसी साम्यता के आधार पर काफ़िये दो तरह के हो सकते हैं :

स्वर साम्य काफ़िये
वो शब्द जिनमे स्वर की साम्यता हो। ऐसे काफ़िये अमूमन उर्दू मे इस्तेमाल किये जाते हैं लेकिन अब देवनागरी मे भी ये चलन हो गया है। मसलन: देखा, सोचा, पाया, आता, पीना,पाला,नाना आदि.

इनमे स्वर :" आ " की एकता है बस, व्यंजन की नहीं, व्यंजन अलग है सबके जैसे: देखा-सोचा मे ’ख" "च" अलग है इनमे कोई एकता नही। तो ये स्वर साम्य काफ़िये हैं और इनका इस्तेमाल खूब होता है।

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