Friday, February 14, 2025

झील में सोने का सिक्का -नवनीत शर्मा

 ईश्वर का प्रमुख गुण है कि वो रचता है ,हर पल ,सतत सृजन करता है ईश्वर और फिर यही गुण कवि का भी है | फ़र्क केवल इतना है कि ईश्वर सहजता से ,स्वभाव से रचयिता है लेकिन कवि साधता है ,पहले विधा को ,भाषा को ,छन्द को , बह्र को ,भाव को और फिर छन्द को धागा बनाकर उसमें भाषा को ,भाव को ,अलंकार को पिरोता है और पाठक के सामने प्रस्तुत करता है | पाठक तक कविता या ग़ज़ल भाव रूप में पहुंचती है और भाव को कवि ने बह्र आदि से सजाया होता है तो पाठक उदास शेर पढ़कर भी विभोर हो जाता और बरबस वाह !! वाह !! कह उठता है | बात जब ग़ज़ल की हो तो बहुत फूँक –फूँक के क़दम रखना पढ़ता है , यानी जब आप किसी औरत से मुख़ातिब होते हैं तो आपके लहज़े में नरमी बहुत ज़रूरी है ,शायद इसीलिए ग़ज़ल को कभी माशूक सी की गई गुफ़्तगू कहा गया है | बात भले आप सियासत के ख़िलाफ़ करें ,भले शायर आक्रोश में हो लेकिन वो नरमी ग़ज़ल की असली पहचान है जैसे ये शेर, मैं नवनीत जी के ग़ज़ल संग्रह “झील में सोने का सिक्का” से रख रहा हूँ-

जिसका किरदार है अयां हर सम्त
उसको हम बेलिबास क्या करते
मैं जो कुछ कह रहा हूँ वो समीक्षा नहीं है बल्कि एक कोशिश है किसी शायर को कागज़ पर उकेरने की | नवनीत जी का ग़ज़ल संग्रह ज्ञान पीठ से छप कर आया है | आजकल नवनीत जी दैनिक जागरण के राज्य संपादक पद पर हैं | उनके ग़ज़ल संग्रह से कुछ मोती चुने हैं मैनें –
पहली ही ग़ज़ल का तीसरा शे’र –
फ़र्क़ यही है जीवन और थियेटर में
चलते नाटक में पर्दा गिर जाता है
और फिर ये देखिए आज के हालात को समझाता ये शे’र –
धुंध को भी धूप ही कहने लगी दुनिया
जादुई चश्में की है ये मेहरबानी सब




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हम निपट लेते जो कश्ती ही भंवर में आती
अब कहाँ जाएँ कि कश्ती में भंवर आया है
और देखिए अपनी ही तरह की नई कहन का लिबास ओढ़कर ,कितना मा'नी-ख़ेज़ शेर कहा है –
किताबों की तरह थे अनपढ़ों में
किसी को भेद क्या मिलता हमारा
मुझे शिव कुमार बटालवी का कहा याद आ गया कि बौद्धिक आदमी दरअसल ता उम्र घुटन महसूस करेगा ,क्योंकि दुनिया की जो तस्वीर शायर ने अपने अन्दर बना रखी होती है वो बाहर देखने को नहीं मिलती और इस घुटन और उदासी का शिकार शायरी हमेशा से रही है | ग़ालिब भी कहता है कि –
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
बाबा बुल्ले शाह कहते है –
चल बुल्लिया चल ओथे चलिए जित्थे सारे अन्ने
कोई न साडी ज़ात पछाने ,कोई न सानुं मन्ने
इसी संग्रह से और शेर -
तुम एक पूरी सदी हो मगर उदास लगती हो
मैं एक लम्हा सही खुशगवार लगता हूँ
और एक बात, मैंने ये देखा है जो आपके आस –पास जो अभी घट रहा है वो बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में घट रहा होता है , जिसे नवनीत जी का ये शेर कैसे उजागर करता है ,देखिए -
जो घर से निकले तो गलियाँ उदास करती हैं
रहें जो घर में तो फिर घर उदास करता है
इसी ग़ज़ल का एक और शेर-
हवा में तैरती चिड़िया पे नाज़ है मुझको
ज़मी पे टूटा हुआ पर उदास करता है
है न सूफीयों वाला बयान | शायरी वास्तव में सूफ़ियों का ही बयान है ,सूफ़ी जो अपने आस-पास देखता है उसके प्रति संवेदनशील होता है ,वो चिड़िया के टूटे पर देखकर रोता है और नन्हीं से चिड़िया को उड़ते देखकर खुश होता है | एक बात मैं और कहना चाहता हूँ कि भले बहर , कहन, भाषा,शेरीयत , अलंकार ,भाव ,परवाज़ ये सब मिलकर किसी शेर या कविता को रचते हों लेकिन , और ये लेकिन बहुत बड़ा है कि ग़ालिब इसे समझाते हैं –
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
माने कविता फिर भी किसी अदृश्य दिव्य लोक से प्रकट होती है ,कहने वाला सिर्फ माध्यम बन जाता है और ये अनुभव से कह रहा हूँ कि कविता चाहे आप प्रयास से कहो या कभी आमद हो ,दोनों हाल में उसका सोर्स वो अदृश्य जहां ही है | उसी ग़ैब से उतरे लगते है नवनीत जी के ये अशआर-
वो चांदनी जो फूट के रोयी थी रात भर
उसका कोई हिसाब सहर ने दिया नहीं
और रोमांस की इंतिहा –
घर अपने साथ उसे देवता के रखने को
गली से उसकी मैं पत्थर उठा के लौट आया
और –
एक नमकीन फ़ज़ा माज़ी की
रोज़ इक ज़ख्म खुला चाहती है
और ये शेर एक बार सुनाया था नवनीत जी ने फोन पे सो आज तक याद की किताब में बुकमार्क करके रखा है
मौत के आख़री जज़ीरे तक
जिंदगी तैरना सिखाती है
कट –कट के आंसुओं में बही दिल की किरचियाँ
क़िस्तों में मेरी ख़ुद से रिहाई हुई तो है
आस अब आसमां से रखी है
छत का मौसम ख़राब है प्यारे
और देखिए नवनीत जी सिग्नेचर –
शाम ढलने को है उमड़े हैं कुहासे कितने
अब जो गुर्बत में है नानी ,तो नवासे कितने
सियासत पर सहाफ़त से ताल्लुक़ रखने वाला शायर इस तरह वार करता है –
कभी नफ़रत ,कभी डर बुन रही है
सियासत कैसे मंज़र बुन रही है
ज़माने रेशमी हैं , मखमली हैं
हमारी क़ौम खद्दर बुन रही है
आप नवनीत जी से सम्पर्क करके किताब मंगवा सकते हैं और नवनीत जी के ये दो और शेर पढ़िए –
“झील में सोने का सिक्का” गिर जाता है
और पहाड़ों पर पारा गिर जाता है
और –
एक पुराना सिक्का देकर दिन जब रुख़्सत होता है
तब ऐसे लगता है जैसे धरती अंजुल जैसी है
धन्यवाद , भूल –चूक के लिए माफ़ी के साथ
सतपाल ख़याल

2 comments:

Anita said...

वाह, बेहतरीन शायरी और सुंदर समीक्षा

सतपाल ख़याल said...

shukriya