आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा
मुमताज़ गुर्मानी , डेरा ग़ाज़ी ख़ान दक्षिण-पश्चिमी पंजाब के मौजूदा दौर के उम्दा शायर हैं | जिस इलाक़े से ये आते हैं वहाँ के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि हर कोई शायरना मिज़ाज का लगता है | बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा के करीब का ये इलाक़ा , जैसे मै नें जाना लोग मिट्टी से ज़्यादा जुड़े हुए हैं, शहरी हवा अभी यहाँ फिरी नहीं मालूम होती | छोटी-छोटी निशिस्तें करते हैं शायर और मज़ा लेते हैं | कहते हैं कि गुरमानी साहब मुशायरों में कम शिरकत करते हैं लेकिन क्या कमाल की शायरी करते हैं -
कभी मैं पूछता रहता था कौन है दर पर
और अब मैं दौड़ के जाता हूँ और देखता हूँ
सुना है मौत मुदावा है जीस्त के ग़म का
रुको मैं जान से जाता हूँ और देखता हूँ
मुमताज़ गुर्मानी
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इस दौर में बहुत शायरी हो रही है और शायर भी बेशुमार हैं ,ऐसा लगता है हर तीन में एक आदमी शायर हो गया हो लेकिन तकनीक के इस दौर शायरी से वो गहराई ग़ायब हो गई और ये बात भी सही है कि अच्छे शायर के लिए कम्पीटीशन न के बराबर है | कहीं-कहीं कोई गुरमानी साहब की तरह उम्दा शायर मिल जाता है | बाक़ी बहुत से शायर हैं जिन की शायरी उन की ज़ुल्फ़ों से कहीं कमतर हसीन है | नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है | खैर इस शायर का अपना एक अलग अंदाज़ है -
मुझ पे तन्हा नहीं अफ़्लाक के दर बंद हुए
मेरा दुश्मन भी मेरे साथ ज़मीं पर आया
मुमताज़ गुर्मानी
हिन्दी के कवि शमशेर बहादुर सिंह लिखते हैं न -
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
ऐसे ही शे'र बोलता , शायर नहीं और बानगी देखिए -
आज कुछ शहर के बूढ़ों से मिलूंगा जाकर
आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा
लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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