1 अप्रैल 1934 में आगरा जनपद में जन्मे देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' मूलत: गीतकार हैं जिनके गीतों पर सैंकड़ों छात्रों ने शोध किया है। आपने प्रशासनिक सेवा की जगह अध्यापन को तरजीह देते हुए दिल्ली विश्व्व-विद्यालय में अध्यापन किया। इनके गीत-संग्रहों की एक लम्बी सूची है। हाल ही में इनके दो ग़ज़ल संग्रह`धुएँ के पुल` तथा "भूला नहीं हूँ मैं" प्रकाशित हुए हैं।
प्रयोग और रिवायत का अनूठा संगम हैं इनकी शायरी। देखिए ये मतला जिसमें काफ़िए और रदीफ़ को अनूठे ढंग से पेश किया । "में तुम " और "में हम" दोहरी रदीफ़ और "सफ़र" , "घर" आदि काफ़िए का भी दोहराव एक ही मिसरे में।
डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू , सफ़र में तुम, सफ़र में हम
और एक बेमिसाल शे’र देखिए-
दिखतीं लहू-लुहान क्यों तितली की उँगलियां
काँटों में एक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल
और लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी ये तीन ग़ज़लें -
ग़ज़ल
मुसलसल रंजो-ग़म सहने का ख़ूगर जो हुआ यारो
ख़ुशी दो लम्हों की देकर उसे बेमौत मत मारो
मेरी राहों मे आकर क्यों मेरे पाँवो में चुभते हो
मुहाफ़िज़ बनके फूलों के चमन में तुम खिलो यारो
नहीं इस जुर्म की कोई ज़मानत होते देखी है
असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ और मुहब्बत के गिरफ़तारो
न अब वो मैक़दे साक़ी-ओ-पैमाना उधर होंगे
जहाँ तुम शाम होते ही चले जाते थे मैख़्वारो
रखा क्या है अज़ीयत के सिवा इस गोशा-ए-दिल में
कहाँ तुम आ गए हो ऐशो-इश्रत के तलबगारो
*ख़ूगर -आदी
हज़ज की सालिम शक्ल
मुफ़ाईलुन x 4
ग़ज़ल
अपने में लाजवाब है कहते जिसे ग़ज़ल
सहरा में इक सराब है कहते जिसे ग़ज़ल
अब मकतबों या मयक़दों में फ़र्क़ क्या करें
लफ़्ज़ों में इक शराब है कहते जिसे ग़ज़ल
जो भी इसे है देखता शैदाई वो हुआ
कमसिन का इक शबाब है कहते जिसे ग़ज़ल
वो पूछते हैं हमसे करें हम भी क्या बयाँ
गूंगे का एक ख्वाब है कहते जिसे ग़ज़ल
दिखतीं लहू-लुहान क्यूँ तितली की उँगलियां
काँटों में इक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल
पढना इसे तो थाम के दिल को पढ़ो जनाब
अश्कों की इक किताब है कहते जिसे ग़ज़ल
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
ग़ज़ल
डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू सफ़र में तुम, सफ़र में हम
अलग-अलग हैं बस्तियाँ , जुदा-जुदा भी हैं पते
हमारे ख़त मिले तुम्हें, शहर में तुम, शहर में हम
मुक़ाम है वो कौन सा जहाँ पे वो नहीं रहा
वो देखता सभी को है , नज़र में तुम, नज़र में हम
तुम्हारे पास रूप है हमारे पास रंग है
जो फूल तुम तो बर्ग मैं , शजर में तुम, शजर में हम
ख़ुदा-ओ-नाख़ुदा सभी बचाने तुमको आ गए
हमारी कश्ती डूबती , भँवर में तुम , भँवर में हम
तुम एक इश्तिहार हो, मैं ज़िक़्रे-नागवार हूँ
ज़ुबां पे तुम ज़हन में हम, खबर में तुम, खबर में हम
हज़ज मसम्मन मक़बूज़-
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 X4
Wednesday, June 30, 2010
Tuesday, June 22, 2010
अनमोल शुक्ल और वीरेन्द्र जैन की ग़ज़लें
1957 में हरदोई(उ.प्र) में जन्में अनमोल शुक्ल पेशे से सिविल इंजीनियर हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। इनकी इस ग़ज़ल ने मुझे बहुत प्रभावित किया जिसे आज हम पेश करेंगे। अच्छे शे’र की बड़ी सीधी सी पहचान है कि इन्हें सुनकर बरबस मुँह से वाह निकल जाती है। एक ग़ज़ल संग्रह भी आपका शाया हो चुका है जिसे ये जल्द मुझ तक पहुँचा रहे हैं तो फिर कुछ और ग़ज़लों इसी मंच पर सांझा करेंगे। इनकी कई ग़ज़लें ग़ज़ल संकलनों में शामिल की गईं हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" में भी कुछ ग़ज़लें शाया हो चुकी हैं। सो मुलाहिज़ा कीजिए ये खूबसूरत ग़ज़ल-
अनमोल शुक्ल
आपने किस्मत में मेरी क्यों लिखा ऐसा सफ़र
मोम की बैसाखियां और धूप में तपता सफ़र
हमसफ़र,हमराज़ हो,हमदर्द हो या हमख़याल
फिर तो कट जाता है मीलों दूर तक लंबा सफ़र
भीड़ चारों ओर जितनी है यहाँ रह जाएगी
मुझको भी करना पड़ेगा एक दिन तनहा सफ़र
मंज़िलों की, काफ़िलों की, हौसलों की बात कर
क्या हुआ जो बीच रस्ते में तेरा टूटा सफ़र
जिन परिंदों के परों के हौसले ज़ख्मी रहे
उनसे हो पाया न कोई भी, कभी ऊँचा सफ़र
मुश्किलों, दुश्वारियों से जूझते "अनमोल" ने
जितना भी काटा है हँसकर, बोलकर काटा सफ़र
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
अनमोल जी से आप इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं-09412146255
अब आज के दूसरे शायर हैं श्री वीरेन्द्र जैन इन्होंने बैंक निराक्षक के रूप में उत्तर प्रदेश में काम किया है। आप जनवादी लेखक संघ भोपाल की इकाई के अध्यक्ष भी रहे हैं और व्यंग्य की चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं और ग़ज़ल भी बाखूबी कहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पूरे समय लेखन व पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।
पिछले पोस्ट में सदा अम्बालवी की ग़ज़लें प्रकाशित की तो सोचा इस बार सबको मेल नहीं करूँगा , लोग चिड़ जाते हैं ऐसे स्पैम मेल से। जब कामेंट देखे तो तीन। द्विज जी कहने लगे ब्लाग तो अच्छा है लेकिन कामेंट ३ ही हैं। फिर अचानक ओशो की किताब पढ़ रहा था जिसमें एक रोचक कहानी थी कि एक बार एक इश्तिहार वाला किसी बड़ी कंपनी के मालिक के पास शाम के वक़्त विज्ञापन लेने गया तो मालिक ने कहा - भई हमारी कंपनी तो स्थापित हो चुकी है। हम क्यों विज्ञापन दें, तो थोड़ी देर बाद चर्च के घंटे की आवाज़ सुनाई दी तो वो आदमी तपाक से बोला हज़ूर ये चर्च कोई २०० साल पुरानी है लेकिन फिर भी घंटा बजा के चेताती है कि आ जाइए। सो यहाँ भी कुछ ऐसा ही है मेल करना भी घंटा बजाने जैसा ही है। प्रसार के साथ-साथ प्रचार भी ज़रूरी है। खैर मुलाहिज़ा कीजिए वीरेन्द्र जी की ये ग़ज़ल
वीरेन्द्र जैन
हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
उधेड़ा रात भर दिन भर बुना है
न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे
गज़ल के नाम पर इक झुनझुना है
समझते खूब हो नज़रों की भाषा
मिरा अनुरोध फिर क्यों अनसुना है
तुम्हारे साथ बीता एक लम्हा
बकाया उम्र से लाखों गुना है
जहाँ पर झील में धोया था चेहरा
वहाँ पानी अभी तक गुनगुना है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
शायर का पता:
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (म.प्र) 462023
फोन 0755-2602432 मोबाइल 9425674629
Email- j_virendra@yahoo.com
अनमोल शुक्ल
आपने किस्मत में मेरी क्यों लिखा ऐसा सफ़र
मोम की बैसाखियां और धूप में तपता सफ़र
हमसफ़र,हमराज़ हो,हमदर्द हो या हमख़याल
फिर तो कट जाता है मीलों दूर तक लंबा सफ़र
भीड़ चारों ओर जितनी है यहाँ रह जाएगी
मुझको भी करना पड़ेगा एक दिन तनहा सफ़र
मंज़िलों की, काफ़िलों की, हौसलों की बात कर
क्या हुआ जो बीच रस्ते में तेरा टूटा सफ़र
जिन परिंदों के परों के हौसले ज़ख्मी रहे
उनसे हो पाया न कोई भी, कभी ऊँचा सफ़र
मुश्किलों, दुश्वारियों से जूझते "अनमोल" ने
जितना भी काटा है हँसकर, बोलकर काटा सफ़र
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
अनमोल जी से आप इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं-09412146255
अब आज के दूसरे शायर हैं श्री वीरेन्द्र जैन इन्होंने बैंक निराक्षक के रूप में उत्तर प्रदेश में काम किया है। आप जनवादी लेखक संघ भोपाल की इकाई के अध्यक्ष भी रहे हैं और व्यंग्य की चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं और ग़ज़ल भी बाखूबी कहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पूरे समय लेखन व पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।
पिछले पोस्ट में सदा अम्बालवी की ग़ज़लें प्रकाशित की तो सोचा इस बार सबको मेल नहीं करूँगा , लोग चिड़ जाते हैं ऐसे स्पैम मेल से। जब कामेंट देखे तो तीन। द्विज जी कहने लगे ब्लाग तो अच्छा है लेकिन कामेंट ३ ही हैं। फिर अचानक ओशो की किताब पढ़ रहा था जिसमें एक रोचक कहानी थी कि एक बार एक इश्तिहार वाला किसी बड़ी कंपनी के मालिक के पास शाम के वक़्त विज्ञापन लेने गया तो मालिक ने कहा - भई हमारी कंपनी तो स्थापित हो चुकी है। हम क्यों विज्ञापन दें, तो थोड़ी देर बाद चर्च के घंटे की आवाज़ सुनाई दी तो वो आदमी तपाक से बोला हज़ूर ये चर्च कोई २०० साल पुरानी है लेकिन फिर भी घंटा बजा के चेताती है कि आ जाइए। सो यहाँ भी कुछ ऐसा ही है मेल करना भी घंटा बजाने जैसा ही है। प्रसार के साथ-साथ प्रचार भी ज़रूरी है। खैर मुलाहिज़ा कीजिए वीरेन्द्र जी की ये ग़ज़ल
वीरेन्द्र जैन
हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
उधेड़ा रात भर दिन भर बुना है
न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे
गज़ल के नाम पर इक झुनझुना है
समझते खूब हो नज़रों की भाषा
मिरा अनुरोध फिर क्यों अनसुना है
तुम्हारे साथ बीता एक लम्हा
बकाया उम्र से लाखों गुना है
जहाँ पर झील में धोया था चेहरा
वहाँ पानी अभी तक गुनगुना है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
शायर का पता:
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (म.प्र) 462023
फोन 0755-2602432 मोबाइल 9425674629
Email- j_virendra@yahoo.com
Tuesday, June 15, 2010
सदा अम्बालवी की ग़ज़लें
राजेन्द्र पाल सिंह उर्फ़ सदा अम्बालवी की तीन ग़ज़लें आज शाया कर रहे हैं। आप पंजाब एंड सिंध बैंक में कायर्रत हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह शाया हो चुके हैं और कुछ ग़ज़लें अच्छे ग़ज़ल गायकों ने भी गाईं हैं और पत्र-पत्रिकाओं में आप अकसर छपते रहते हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह के पेश-लफ़्ज़ में आप ने कहा है-"ग़ज़ल की पाबंदियाँ अकसर शायरों को खलती रही हैं। इसमें कोई शक़ नहीं ग़ज़ल के शे’र घड़ने में मेहनत और कविश दरकार है। बहुत से शायरों ने इस मेहनत से बचने के लिए ग़ज़ल के उसूलों को दरकिनार कर दिया और इसे जदीदियत का नाम दे दिया जबकि सच्चाई ये है कि ग़ज़ल के उसूलों को निभाते हुए और उसके मिज़ाज को कायम रखते हुए भी उसमें नये रंग भरने की गुंज़ाइश है"ये बात बिल्कुल सही भी है। ग़ज़ल का हुस्न इसके उसूलों से ही है। जब तक कोई मिसरा बहर में ढल नहीं जाता उसमें कशिश पैदा नहीं होती। अगर बिना बहर के कहना है तो नज़्म कह लें ग़ज़ल ही क्यों । जदीदियत ख़यालों मे होनी चाहिए। आप ग़ज़ल की बुनियाद (अरूज़)के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकते , इसके उपर महल अपनी मर्ज़ी का बना सकते हो। उर्दू ज़बान में अलग-अलग भाषाओं की मिठास है और इसका अपना एक ख़ास मिज़ाज है। इसी मिज़ाज को अपने दामन में समेटे हुए हाज़िर हैं अम्बालवी साहब की ये ग़ज़लें-
शे’र मेरे तो हैं बस हर्फ़े-तसल्ली की तरह
मैं मसीहा नहीं सूली पे चढ़ाओ न मुझे
एक
यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई
क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई
कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई
लाख ताकीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक अहतियात हुई
इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई
क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई
शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई
क्या थी मुशकिल *विसाले-हक़ में "सदा"
तुझ से बस रद्द न तेरी ज़ात हुई
*विसाले-हक़--प्रभु मिलन
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
दो
दिल न माना मना के देख लिया
लाख समझा-बुझा के देख लिया
वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठाके देख लिया
लोग कहते हैं दिल लगाना जिसे
रोग वो भी लगा के देख लिया
बेवफ़ाई है तेरी रग-रग में
आज़मा, आज़मा के देख लिया
ज़ख्म दिल का है लादवा यारो
चारागर को दिखाके देख लिया
उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त, दुशमन बना के देख लिया
उनका नज़रें चुरा के देखना भी
उनसे नज़रें चुरा के देख लिया
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
तीन
दाग़े-दिल दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए
दिल जो रोए भी तो हँस देंगे दिखाने के लिए
लीजिए *रस्में-मुदारात निभाने के लिए
हम भी पी लेते हैं यारों को पिलाने के लिए
ज़िंदगी रस्म है इक मौत से पहले शायद
साँस लेते रहो तुम रस्म निभाने के लिए
ख़ान-ए-दिल पे तेरी याद है क़ाबिज़ वर्ना
दर्द क्या-क्या नहीं इस घर को सजाने के लिए
रंग लाई है "सदा" खूब तेरी *हक़गोई
चार कांधे न मिले लाश उठाने के लिए
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22
हक़गोई-सच बयानी , रस्में-मुदारात -मेहमाँ नवाज़ी
शे’र मेरे तो हैं बस हर्फ़े-तसल्ली की तरह
मैं मसीहा नहीं सूली पे चढ़ाओ न मुझे
एक
यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई
क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई
कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई
लाख ताकीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक अहतियात हुई
इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई
क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई
शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई
क्या थी मुशकिल *विसाले-हक़ में "सदा"
तुझ से बस रद्द न तेरी ज़ात हुई
*विसाले-हक़--प्रभु मिलन
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
दो
दिल न माना मना के देख लिया
लाख समझा-बुझा के देख लिया
वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठाके देख लिया
लोग कहते हैं दिल लगाना जिसे
रोग वो भी लगा के देख लिया
बेवफ़ाई है तेरी रग-रग में
आज़मा, आज़मा के देख लिया
ज़ख्म दिल का है लादवा यारो
चारागर को दिखाके देख लिया
उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त, दुशमन बना के देख लिया
उनका नज़रें चुरा के देखना भी
उनसे नज़रें चुरा के देख लिया
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
तीन
दाग़े-दिल दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए
दिल जो रोए भी तो हँस देंगे दिखाने के लिए
लीजिए *रस्में-मुदारात निभाने के लिए
हम भी पी लेते हैं यारों को पिलाने के लिए
ज़िंदगी रस्म है इक मौत से पहले शायद
साँस लेते रहो तुम रस्म निभाने के लिए
ख़ान-ए-दिल पे तेरी याद है क़ाबिज़ वर्ना
दर्द क्या-क्या नहीं इस घर को सजाने के लिए
रंग लाई है "सदा" खूब तेरी *हक़गोई
चार कांधे न मिले लाश उठाने के लिए
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22
हक़गोई-सच बयानी , रस्में-मुदारात -मेहमाँ नवाज़ी
Wednesday, June 9, 2010
पाकिस्तान के शायर- तौसीफ़ तबस्सुम
आज हम पाकिस्तान के प्रमुख शायरों में से एक जनाब तौसीफ़ तबस्सुम की कुछ ग़ज़लें पेश कर रहे हैं।आम आदमी की मुसीबतें पूरी दुनिया में एक जैसी ही हैं । पाकिस्तान तो हिंदोस्तान का टूटा हुआ बाज़ू है तो वहाँ के दुख-दर्द तो और भी हमारे क़रीब हैं। इधर भी शायर ज़िंदगी से खफ़ा है तो उधर भी। इस इधर-उधर की बात पर नूर मुहम्मद नूर के ये शे’र देखिए-
ज़रा-सी मुहब्बत, ज़रा-सी शराफ़त
वही कम इधर भी, वही कम उधर भी
उखड़ता हुआ 'नूर' इंसानियत का
वही दम इधर भी वही दम उधर भी
और ज्ञान प्रकाश विवेक का शे’र इसी मंज़र को कुछ यूँ बयां करता है-
हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग-सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है
खै़र!बात तो तौसीफ़ तबस्सुम साहब की हो रही थी। इनको पाकिस्तान का अल्लामा डा. मुहम्मद इक़बाल एवार्ड हासिल हो चुका है। इनके इस खूबसूरत शे’र -
पहली बार सफ़र पर निकले, घर की खुशबू साथ चली
झुकी मुँडेरें, कच्चा रास्ता, रोग बने रस्ते भर का
-के साथ हाज़िर हैं ये ग़ज़लें-
एक
यही हुआ कि हवा ले गई उड़ा के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे
बस एक गूँज है जो साथ-साथ चलती है
कहाँ ये छोड़ गए फ़ासले सदा के मुझे
चिराग़ था तो किसी ताक़ ही में बुझ रहता
ये क्या किया के हवाले किया हवा के मुझे
हो एक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का
हज़ार रंग हैं इस शो’ला-ए- हिना के मुझे
बुलन्द शाख़ से उलझा था चाँद पिछले पहर
गुज़र गया है कोई ख़्वाब सा दिखा के मुझे
हज़ार बार खुला ज़ह्न बादबां की तरह
नुकूशे-पा न मिले उम्रे-बाद पा के मुझे
मैं अपनी मौज़ में डूबा हुआ जज़ीरा हूँ
उतर गया है समंदर बुलन्द पा के मुझे
बहरे- मुजास
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
दो
ग़म का क्या इज़हार करें हम,दर्द से ज़ब्त ज़ियादा है
अब उस मौज़ का हाल लिखेंगे जिसमें दरिया डूबा है
जो भी गुजरनी है आँखों पर काश इस बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है
ख़्वाबों की सरहद पे हुआ है ख़त्म सफ़र बेदारी का
इक दिन शायद आन मिले वो शख़्स जो मुझमें रहता है
दिलज़दगाँ* की भीड़ में जैसे हर पहचान अधूरी हो
तेरी आँखें मेरी हैं, पर मेरा चेहरा किसका है
दिलज़दगाँ-*दुखियों
सात फ़ेलुन+एक फ़े
तीन
कभी ख़ुद मौज साहिल बन गयी है
कभी साहिल कफ़-ए-दरिया* हुआ है
पलट कर आयेगा बादल की सूरत
इसी ख़ातिर तो दरिया बह रहा है
महकते हैं जहाँ खुशबू के साये
तसव्वुर भी वहाँ तस्वीर-सा है
हवा से ख़ाक पर गिरता है ताइर*
"तबस्सुम" ये तलाश-ए-रिज़्क क्या है
कफ़-ए-दरिया-नदी की हथेली,ताइर-पक्षी
हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
चार
और आगे कहाँ तलक जाएँ
बैठ जाएँ जो पाँव थक जाएँ
आस्मां पर खिले गुले-महताब
रास्ते पत्तियों से ढँक जाएँ
कोई मद्दम करे न साज़ की लय
दिल-ब-दिल लोग सुबह तक जाएँ
ये ज़मीं क्यों क़दम पकड़ती है
उठ के किस तरह यक-ब-यक जाँए
कुछ तो कम हो फ़िराक़ का सहरा
आसुओं से कहो छलक जाएँ
दस्ते-जल्लाद क्यों है नींद के पास
गर्दनें यक-ब-यक ढुलक जाएँ
और कुछ तेज़ हो ये आतिशे-ग़म
जिस्म तप जाएँ रुख़ चमक जाएँ
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल-
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
Wednesday, June 2, 2010
श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी को श्रदाँजलि
सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद
30 अप्रैल को, श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी जी की पुण्य तिथी थी. उनकी ग़ज़लों का प्रकाशन हमारी तरफ़ से उस अज़ीम शायर को श्रदाँजलि है.शायर अपने शब्दों मे हमेशा ज़िंदा रहता है और सागर साहब की शायरी से हमें भी यही आभास होता है कि वो आज भी हमारे बीच में है.सागर साहेब 25 जनवरी 1929 को गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)मे पैदा हुए थे और 30 अप्रैल, 1996 को इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गए. लेकिन उनकी शायरी आज भी हमारे साथ है और साग़र साहेब द्वारा जलाई हुई शम्मा आज भी जल रही है, उस लौ को उनके सपुत्र श्री द्विजेंद्र द्विज जी और नवनीत जी ने आज भी रौशन कर रखा है.साग़र साहेब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को हम प्रकाशित कर रहे हैं:
एक
बेसहारों के मददगार हैं हम
ज़िंदगी ! तेरे तलबगार हैं हम
रेत के महल गिराने वालो
जान लो आहनी दीवार हैं हम
तोड़ कर कुहना रिवायात का जाल
आदमीयत के तरफ़दार हैं हम
फूल हैं अम्न की राहों के लिए
ज़ुल्म के वास्ते तलवार हैं हम
बे—वफ़ा ही सही हमदम अपने
लोग कहते हैं वफ़ादार हैं हम
जिस्म को तोड़ के जो मिल जाए
ख़ुश्क रोटी के रवादार हैं हम
अम्न—ओ—इन्साफ़ हो जिसमें ‘साग़र’!
उस फ़साने के परस्तार हैं हम
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 22/112
दो
रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें
सोच के बन में भटक जायें अगर जागें तो
क्यों न देखे हुए ख़्वाबों में ही खो कर देखें
हमनवा कोई नहीं दूर है मंज़िल फिर भी
बस अकेले तो कोई मील का पत्थर देखें
झूट का ले के सहारा कई जी लेते हैं
हम जो सच बोलें तो हर हाथ में ख़ंजर देखें
ज़िन्दगी कठिन मगर फिर भी सुहानी है यहाँ
शहर के लोग कभी गाँओं में आकर देखें
चाँद तारों के तसव्वुर में जो नित रहते हैं
काश ! वो लोग कभी आ के ज़मीं पर देखें
उम्र भर तट पे ही बैठे रहें क्यों हम ‘साग़र!’
आओ, इक बार समंदर में उतर कर देखें
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112
तीन
जिसको पाना है उसको खोना है
हादिसा एक दिन ये होना है
फ़र्श पर हो या अर्श पर कोई
सब को इक दिन ज़मीं पे सोना है
चाहे कितना अज़ीम हो इन्साँ
वक़्त के हाथ का खिलोना है
दिल पे जो दाग़ है मलामत का
वो हमें आँसुओं से धोना है
चार दिन हँस के काट लो यारो!
ज़िन्दगी उम्र भर का रोना है
छेड़ो फिर से कोई ग़ज़ल ‘साग़र’!
आज मौसम बड़ा सलोना है
खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112
चार
शाम ढलते वो याद आये हैं
अश्क पलकों पे झिलमिलाये हैं
दिल की बस्ती उजाड़ने वाले
मेरी हालत पे मुस्कुराये हैं
कोई हमदम न हमनवा कोई
हर तरफ़ रंज-ओ-ग़म के साये हैं
बाग़-ए-दिल में बहार आई है
ज़ख़्म गुल बन के खिलखिलाये हैं
वक़्त-ए-मुश्किल न कोई काम आया
हमने सब दोस्त आज़माये हैं
क़िस्सा-ए-ग़म सुनायें तो किसको
आज तो अपने भी पराये हैं
इन बहारों पे ऐतबार कहाँ
हमने इतने फ़रेब खाये हैं
प्यार की रहगुज़र पे ए ‘साग़र’!
हम कई मील चल के आये हैं
खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112
Thursday, May 27, 2010
अंतिम क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
इस तरही मुशायरे में तक़रीबन ३० शायर-शाइराओं ने हिस्सा लिया। मिला-जुला सा अनुभव रहा । देश-विदेश से ३० शायर एक जगह आकर इकट्ठा हों वो भी लगभग मुफ़्त में ,बताओ और क्या चाहिए। कुछ कच्चे-पक्के शे’र, नये-पुराने शायरों ने सबके सामने रखे हैं। अनुभव और प्रयास का अनूठा संगम था ये मुशायरा और अब अंतिम क़िस्त में लीजिए पहले आदरणीय श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो और सुंदर शे’रों के साथ इस बेहद खूबसूरत शे’र को भी अपने दामन में समेटे हुए है-
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
द्विजेन्द्र द्विज
जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी
यह तेरा रनिवास रे जोगी
जप-तप का उपहास रे जोगी
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी
बीच भँवर में जैसे किश्ती
जीवन का हर श्वास रे जोगी
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
मन-मंदिर में हों जब साजन
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
साथ मिलन के क्यों रहता है
बिरहा का आभास रे जोगी
बुझ पाई है बूँदों से कब
यह मरुथल की प्यास रे जोगी
क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन
मर जाए जब आस रे जोगी
मैं अपना प्रयास भी आप सब के सामने रख रहा हूँ और डर भी रहा हूँ कि लोग कहेंगे दूसरों के शे’र तो काट देता है लेकिन अपने नहीं देखता । ये मेरा सौभाग्य है कि द्विज जी के साथ मेरी ग़ज़ल शाया हुई है। खै़र ! मुलाहिज़ा कीजिए-
सतपाल ख़याल
आए लबों पर श्वास रे जोगी
छूटा कारावास रे जोगी
दशरथ सी लाचार है नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
शाखों से रूठे हैं पत्ते
किसको किसका पास रे जोगी
रिशतों के पुल टूट चुके हैं
दूर वसो या पास रे जोगी
बस जी का जंजाल है दुनिया
अच्छा है सन्यास रे जोगी
नील , सफ़ैद और भगवा काले
सब रंग उसके दास रे जोगी
दुख-संताप, पाप के जंगल
जीवन भर बनवास रे जोगी
मुँह में राम बगल में बरछी
किसका अब विश्वास रे जोगी
राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी
दुनिया में हर चीज़ की जड़ मन में ही रहती है चाहे वो सन्यास हो या फिर दुनियादारी। मन से ही आदमी जोगी या भोगी होता और इस मन को तो संत और महापुरुष भी खोजते रहे लेकिन इसका कोई सिरा शायद ही किसी के हाथ लगा हो। योग भगवा , सफ़ेद या नीले कपड़े पहनने से नहीं मिलता योग तो मन को जीत कर ही मिलता है। इस मुशायरे का अंत मैं इस शब्द के साथ करना चाहता हूँ जो सुनने लायक है। शायरी और वाणी में यही फ़र्क़ है । वाणी गुरओं और संतो के मुख से निकलती है और संत अपनी कथनी-करनी के पक्के होते हैं लेकिन शायर तो हम जैसे ही होते हैं। सरवण करो ये शब्द-
इस मन को कोई खोजो भाई
तन छूटे मन कहाँ समाई
हिस्सा लेने वाले तमाम शायरों का और पाठकों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। कोई ग़लती हो तो मुआफ़ी चाहता हूँ। मैं सब शायरों से ये अनुरोध करता हूँ कि वो अपने अनुभव हमसे बाँटें और इस समापन पर अपनी हाज़री ज़रूर दें ।
Wednesday, May 26, 2010
अंतिम क़िस्त से पहले दो तरही ग़ज़लें और
कल शाम तक अंतिम क़िस्त शाया हो जायेगी लेकिन अंतिम क़िस्त से पहले ये दो ग़ज़लें और मुलाहिज़ा कीजिए-
पूर्णिमा वर्मन
सब कुछ तेरे पास रे जोगी
काहे आज उदास रे जोगी
मुशकिल रहना देस बेगाने
अपना पर अभ्यास रे जोगी
खाना, पानी, गीत बेगाने
अपनी मगर मिठास रे जोगी
दूर नगर में बसना है तो
रख उसका विश्वास रे जोगी
कान में कुंडल, हाथ में माला
कौन चला बनवास रे जोगी
संजीव सलिल
कौन चला बनवास रे जोगी
खु़द पर कर विश्वास रे जोगी
भू-मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी
फ़िक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
माली बाग़ और तितली भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों आज उदास रे जोगी.
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
Tuesday, May 25, 2010
आठवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
इस क़िस्त कि शुरूआत इस ग़ज़ल से कर रहे हैं ,जिसमें जगजीत सिंह ने जोगी शब्द को अलग-अलग अंदाज़ में पेश किया है। ठीक वैसे ही जैसे शायरों ने इस मुशायरे में जोगी को नचाया।
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
सातवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर" के इस खूबसूरत शे’र के साथ -
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
और माहक साहब के इस फ़लसफ़े-
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
-के साथ हाज़िर हैं सातवीं क़िस्त की तीन ग़ज़लें।
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
प्रीत न आई रास रे जोगी
ले लूँ क्या बनवास रे जोगी
दर-दर यूँ ही भटक रहा हूँ
आता नहीँ क्यों पास रे जोगी
कब तक भूखा प्यासा रहूँ मैं
आ के बुझा जा प्यास रे जोगी
देगा कब तू आख़िर दर्शन
मन है बहुत उदास रे जोगी
कितना बेहिस है तू आख़िर
तुझको नहीं एहसास रे जोगी
मन को चंचल कर देती है
अब भी मिलन की प्यास रे जोगी
छोड़ के तेरा जाऊँ कहाँ दर
मैं तो तेरा दास रे जोगी
सब्र की हो गई हद ‘बर्क़ी’ की
तेरा सत्यानास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
हुक़्म है तेरा ख़ास रे जोगी
मैं तो तेरा दास रे जोगी
जीवन का इक रूप है ये तो
खेले सारे रास रे जोगी
सब कुछ मेरा नाम है तेरे
जो भी मेरे पास रे जोगी
खूब ठिठौली कर लेता है
तू भी है बिंदास रे जोगी
जब से रूठा है तू मुझसे
टूटी मेरी आस रे जोगी
दुनिया को देना है,क्या दें
पत्थर या अल्मास रे जोगी
जोगन तेरी राह तके है
आया सावन मास रे जोगी
बस में होता तो मैं देता
रावण को बनवास रे जोगी
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
तुझको देख के मुझको रब का
होता है एहसास रे जोगी
शायर तो दुनिया में लाखों
एक "मुसाफ़िर" ख़ास रे जोगी
डा.अजमल ख़ान "माहक" लखनऊ से
ओ जोगी तुम ख़ास रे जोगी
हमको तुम से आस रे जोगी
राम सिया संग जाई बसे वन
तज कर भोग विलास रे जोगी
देख रहे हैं अपने सारे
कौन चला बनवास रे जोगी
मोह में जब तुम इतने उलझे
काहे का सन्यास रे जोगी
जिन को भूख की आदत पड़ गई
उनको क्या उपवास रे जोगी
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
ज्ञानी ध्यानी सब दुखियारे
मोह रचाऐ रास रे जोगी
घर छोड़ा पर जग नांहि छूटा
तू माया का दास रे जोगी
सच मिलता रोता- चिल्लाता
सहता है उपहास रे जोगी
“माहक” दुनिया देख रहा है
आई उसको रास रे जोगी
Sunday, May 23, 2010
छटी क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
छ्टी क़िस्त की तीन ग़ज़लें-
योगेन्द्र मौदगिल
तन का क्या विश्वास रे जोगी
तन तो मन का दास रे जोगी
भगवे में भगवान बसे हैं
जटा-जूट विन्यास रे जोगी
उर्मिल पूछ रही लछमन से
कौन दोष मम् खास रे जोगी
जाम-सुराही छूट गये सब
टूट गया अभ्यास रे जोगी
सूरज, चंदा, जुगनू, तारे
किसको किसकी आस रे जोगी
तितली, भंवरे, कोयल, खुशबू
किसको दुनिया रास रे जोगी
मंत्र मणि मंदिर मर्यादा
मन माया मधुमास रे जोगी
पाहुन कुत्ता जांच रहा है
कुत्ता पाहुन-बास रे जोगी
जे विध राखे राम-रमैय्या
सो विध खासमखास रे जोगी
गंगा गये सो गंगादासा
जमना-जमनादास रे जोगी
कूंए में गूंगी परछाई
जगत पे अट्टाहास रे जोगी
चप्पा-चप्पा मौन खड़ा है
कौन चला बनवास रे जोगी
मैच अभी है शेष ’मौदगिल’
अभी हुआ है टास रे जोगी
प्राण शर्मा
जीवन आया रास रे जोगी
मैं क्यों लूँ बनवास रे जोगी
इतनी उदासी अच्छी नहीं है
कुछ तो हो परिहास रे जोगी
सोच ज़रा ये भी ,मधुवन में
क्यों आये मधुमास रे जोगी
तुलसी, केशव, सूर कबीरा
सबके सब थे दास रे जोगी
जीवन के ये भी हिस्से हैं
सुख,दुःख,भोग-विलास रे जोगी
तू न बुरा माने तो पूछूँ
तुझमें क्या है ख़ास रे जोगी
हर कोई दिल को थामे है
कौन चला बनवास रे जोगी
गिरीश पंकज
किनसे रक्खें आस रे जोगी
टूटा हर विश्वास रे जोगी
पतझर से डरता है काहे
आयेगा मधुमास रे जोगी
जीत ले सबका दिल बढ़ कर के
बन जा खासमख़ास रे जोगी
रोती है ये सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
तोते को सोने का पिंजरा
आता है क्यों रास रे जोगी
प्यार से मिट जाती है दूरी
आयें बैरी पास रे जोगी
मत रोना , होता आया है
सच का तो उपहास रे जोगी
ये तो प्रेम-पियाला पंकज
इसमें है बस प्यास रे जोगी
Wednesday, May 19, 2010
पाँचवीं क़िस्त - कौन चला बनवास रे जोगी
पाँचवीं क़िस्त की ये तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
बाबा कानपुरी
रहता नित उपवास रे जोगी
मन में अति उल्लास रे जोगी
कुछ तो है जो कसक रहा है
क्या मन में संत्रास रे जोगी
झर-झर बहते नैना जैसे
बारिश बारह मास रे जोगी
सूनी-सूनी दसों दिशाएं
कौन चला बनवास रे जोगी
व्यसनों की चादर में लिपटा
यह कैसा सन्यास रे जोगी
लेना एक न देना दो पर
नित करता अभ्यास रे जोगी.
रीता का रीता है "बाबा"
सब कुछ उसके पास रे जोगी
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का एहसास रे जोगी
तेरे आने से छाया है
हर सू इक उल्लास रे जोगी
तू आ जाये जब भी मन में
हो जाता है रास रे जोगी
कुछ दिन थोड़ी कोशिश करले
जग आयेगा रास रे जोगी
मन में है सो पा जाऊँगा
क्याँ छोडूँ मैं आस रे जोगी
दो पल की फुर्सत का सपना
इक गहरा उच्छवास रे जोगी
ये ही तुझ को खुश कर दे तो
चल मैं तेरा दास रे जोगी
वानप्रस्थ की उम्र हुई पर
कौन चला बनवास रे जोगी
कब तक सहना होगा मुझको
तन्हा ये संत्रास रे जोगी
तेरा मेरा सोच न 'राही'
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
चंद्रभान भारद्वाज
कर सूना हर वास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
बाकी अब बिरहिन की पूँजी
आँसू और निश्वास रे जोगी
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे सा विश्वास रे जोगी
उठते ही दुल्हन की डोली
उजड़ा सब जनवास रे जोगी
राजा हो या रंक सभी का
जाना तय सुरवास रे जोगी
क्या मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
मन प्रभु का आवास रे जोगी
फैली 'भारद्वाज'उसी की
कण कण बीच सुवास रे जोगी
अज़ीज दोस्तो!
मैं अपनी बात बड़ी हलीमी से रख रहा हूँ, कोई भी इसे अन्यथा न ले । बहस या संवाद किसी नतीजे तक न पहुँचे तो क्या फ़ायदा। बात शुरू हुई थी नास और नाश को लेकर और आदरणीय राजेन्द्र जी ने ही देशज शब्द का इस्तेमाल टिप्पणी में किया। देशज या देशी या देसी शायद एक ही अर्थ के शब्द हों । देशज,वो शब्द जो बिना किसी आधार के (तदभव, तत्सम ,गृहित,अनुकरण) विकसित हो गए हों। जिनकी पैदाइश कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं हो जैसे- घूँट, घपला पेड़,चूहा ठेस, ठेठ, धब्बा पेठा कबड्डी आदि
और आम हिंदी भाषा में तकरीबन 80% तद्भव, 15% तत्सम 13% विदेशी और 2% देशज शब्द इस्तेमाल होते हैं। शब्दकोश में नास का अर्थ है-वह चूर्ण जो नाक में डाला जाय। वह औषध जो नाक से सूँघी जाय। सूँघना या नसवार, सुँघनी ।
लेकिन ’देशज शब्द’ शब्दकोशों में नहीं मिलते पर अब धीरे-धीरे शामिल किए जा रहे हैं।
नाश यानि नष्ट और अब नास शब्द के कुछ प्रयोग देखें-
जबहिं नाम ह्रदय धरा,भया पाप का नास
मानों चिनगी आग की,परी पुरानी घास ..कबीर
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं .... सूरदास
अब शब्दकोश के लिहाज से ये तो यहाँ नास का प्रयोग ग़लत है या यूँ कहो कि घास’ के साथ तुक मिलाने के लिए कबीर ने नास लिख दिया। लेकिन उन्होंने इसे लिखा वो गुणी और गुरूजन ही हैं हमारे लिए। तुलसी की भाषा को हम क्या कहेंगे कि वो ग़लत है या फिर कबीर ग़लत हैं।
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
शे’र में बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है सब जानते हैं , लेकिन इस शब्द के प्रयोग को हम किस आधार पर ग़लत कहेंगे। मेरा ये प्रशन सिर्फ़ राजेन्द्र जी से नहीं है बल्कि सब से है। मैं आप सब से जानना चाहता हूँ ताकि कुछ हम सब सीख सकें।क्या कबीर का ’नास’ कुछ और है? क्या नास तदभव रूप नहीं है या फिर ये देशी है,क्या है? इसे संवाद तक ही सीमित रखें विवाद न समझें और न ही विवाद का रूप दें। ग़ज़ल कहने वाले तो हर बात सलीक़े और अदब से ही कहते हैं और ये मंच है ही ग़ज़ल के लिए।
बात जोगी की हो रही है तो क्यों न लता की आवाज़ में ये गीत-
जाओ रे ! जोगी तुम जाओ रे ...सुना जाए।
Monday, May 17, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी-चौथी क़िस्त
नवनीत जी की इस अरदास-
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
के साथ और राजेन्द्र स्वर्णकार के इस अनूठे और सुंदर शे’र-
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
के साथ हाज़िर है ये चौथी कि़स्त-
नवनीत शर्मा
खुशियों को बनवास रे जोगी
पीड़ा का मधुमास रे जोगी
कोई मोटा गणित बता दे
बाकी कितने श्वास रे जोगी
कट-कट कर भी बढ़ती जाए
यादों की यह घास रे जोगी
जोग भी मन की ही इच्छा है
तू इच्छा का दास रे जोगी
हँसते चेहरों के पीछे भी
पीड़ा का आवास रे जोगी
काश वो आएँ जिनको सौंपे
पल छिन घड़ियाँ मास रे जोगी
जिनको भूख से रोज उलझना
मजबूरी उपवास रे जोगी
गाँव-नगर जो तैर रहा है
कौन हरे संत्रास रे जोगी
सूखीं सपनों की धाराएँ
जैसे दरिया ब्यास रे जोगी
तू माहिर दुनियादारी में
किसको था आभास रे जोगी
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
उससे कहो पहले बन ढूँढे
कौन चला बनवास रे जोगी
राजेन्द्र स्वर्णकार(बीकानेर से)
मन है बहुत उदास रे जोगी
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी
पूछ न प्रीत का दीप जला कर
कौन चला बनवास रे जोगी
अब सम्हाले संभल न पाती
श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी
पी'मन में रम-रच गया,जैसे
पुष्प में रंग-सुवास रे जोगी
धार लिया तूने तो डर कर
इस जग से सन्यास रे जोगी
कौन पराया-अपना है रे
क्या घर और प्रवास रे जोगी
चोट लगी तो तड़प उठेगा
मत कर तू उपहास रे जोगी
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
छोड़ हमें ’राजेन्द्र’ अकेला
है इतनी अरदास रे जोगी !
Friday, May 14, 2010
तीसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
मुफ़लिस साहब के इस खूबसूरत शे’र -
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
के साथ तीसरी क़िस्त हाज़िर है जिसमें जोगेश्वर गर्ग जी की ग़ज़ल भी का़बिले-गौ़र है।साथ ही दूसरी क़िस्त में चंद्र रेखा ढडवाल के इस खूबसूरत शे’र के लिए उनको बधाई देना चाहता हूँ।
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
लीजिए ये अगली दो ग़ज़लें-
डी.के.'मुफ़लिस'
ओढ़ लिया संन्यास रे जोगी
फिर भी मन का दास रे जोगी
काश ! कभी पूरी हो पाए
जीवन की हर आस रे जोगी
पल-पल वक़्त के नाज़ उठाना
तुझ को क्या एहसास रे जोगी
सारा जग है भूल-भुलैयाँ
आया किसको रास रे जोगी
काम कभी आ ही जाता है
सपनों का विन्यास रे जोगी
बस्ती में हर आँख रूआँसी
कौन चला बनवास रे जोगी
लुक-छिप सब को नाच नचाये
कौन रचाए रास रे जोगी
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
'मुफ़लिस' जब से दूर गया वो
ग़म आ बैठा पास रे जोगी
जोगेश्वर गर्ग
जो बन्दा बिंदास रे जोगी
दुनिया उसकी दास रे जोगी
इतना ध्यान हमेशा रखना
कौन बना क्यों ख़ास रे जोगी
ज्ञान समंदर उतना गहरा
जितनी जिसकी प्यास रे जोगी
भौंचक अवध समझ नहीं पाया
कौन चला वनवास रे जोगी
दुनियादारी ढोते ढोते
फूली अपनी श्वास रे जोगी
इसका- उसका, किस किस का तू
कर बैठा विश्वास रे जोगी
जिसको खुद पर खूब भरोसा
ईश्वर उसके पास रे जोगी
"जोगेश्वर" को भूल न जाना
इतनी सी अरदास रे जोगी
दूसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
दूसरी क़िस्त में तीन शाइराओं की ग़ज़लें एक साथ मुलाहिज़ा कीजिए-
देवी नांगरानी
ओढे शब्द लिबास रे जोगी
आई ग़ज़ल है रास रे जोगी
धूप में पास रहे परछाईं
शाम को ले सन्यास रे जोगी
छल से जल में आया नज़र जो
चाँद लगा था पास रे जोगी
हिम्मत टूटी,दिल भी टूटा
टूटा जब विश्वास रे जोगी
सहरा के लब से जा पूछो
होती है क्या प्यास रे जोगी
जीस्त ने जब गेसू बिखराए
खोया होश हवास रे जोगी
’देवी’ मत ज़ाया कर इनको
पूंजी इक इक स्वास रे जोगी
चंद्र रेखा ढडवाल(धर्मशाला हिमाचल प्रदेश)
जितने खिले मधुमास रे जोगी
उतने हुए बे-आस रे जोगी
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
मेघ बरसते थे,दिन बीते
अब तो बरसती प्यास रे जोगी
साथ प्रिया बन-बन डोले तो
काहे का बनवास रे जोगी
हमको अयोध्या में रहते भी
देख मिला बनवास रे जोगी
जिसने शिलाओं को तोड़ा हो
वो ही करे अब न्यास रे जोगी
खेत भी होंगे राजसिंहासन
आम जो होंगे ख़ास रे जोगी
आज इस गाँवों कल उस नगरी
क्यों बँधवाई आस रे जोगी
खेल रहा था खेल फ़क़त तू
हमने किया विश्वास रे जोगी
सारा जबीन
जब से गया बनवास रे जोगी
टूटी प्रीत की आस रे जोगी
सब सखियां ये पूछ रही हैं
कौन चला बनवास रे जोगी
धन दौलत नहीं मांगूं तुझसे
मांगूं तेरा पास रे जोगी
किस को समझूँ अब मैं दोषी
कुछ भी न आया रास रे जोगी
लौटेगा तू 'सारा' की है
आँखों में विश्वास रे जोगी
Monday, May 10, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी- पहली क़िस्त
"कौन चला बनवास रे जोगी" राहत इन्दौरी साहब की ग़ज़ल से लिए इस मिसरे पर कई शायरों ने ग़ज़लें कहीं है या यों कहो कि राहत साहब की ज़मीन पर शायरों ने हल चलाने की हिम्मत की है। कई ग़ज़लें आईं है जो कि़स्तों मे पेश की जाएँगी।पहले हाज़िर हैं दो ग़ज़लें-
एम.बी.शर्मा "मधुर"
यूँ लेकर सन्यास रे जोगी
आएँ न भगवन पास रे जोगी
मन का द्वार न खुल पाया तो
वन भी कारावास रे जोगी
रावण आज अयोध्या में जब
राम ले क्यूँ बनवास रे जोगी
जो दुनिया से भागा उसपे
कौन करे विश्वास रे जोगी
युग बीते जो मिट न सकी वो
जीवन अनबुझ प्यास रे जोगी
जो ख़ुद से ही हारा उसको
कौन बँधाए आस रे जोगी
इंसानों में ज़ह्र जब इतना
साँपों में क्या ख़ास रे जोगी
सत्य ‘मधुर’ भी कड़वा लगता
आए किसको रास रे जोगी
पवनेंद्र "पवन"
बाहर योग-अभ्यास रे जोगी
भीतर भोग-विलास रे जोगी
रात सुरा यौवन की महफ़िल
दिन को है उपवास रे जोगी
घर में चूल्हे-सी,जंगल में
दावानल-सी प्यास रे जोगी
सन्यासी के भेस में निकला
इन्द्रियों का दास रे जोगी
झोंपड़ छोड़ महल में रहना
ये कैसा सन्यास रे जोगी
मर्यादा को बंधन समझा
घर को कारावास रे जोगी
लोग हैं जितने ख़ास वतन में
उन सब का तू ख़ास रे जोगी
घर सूना कर ख़ूब रचाता
वृंदावन में रास रे जोगी
जब सुविधाएँ पास हों सारी
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
दूर ‘पवन’ को अब भी दिल्ली
तेरे बिल्कुल पास रे जोगी
Tuesday, May 4, 2010
अनवारे इस्लाम-परिचय और ग़ज़लें
1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी चार ग़ज़लें हाज़िर हैं-
एक
ख़ैरीयत इस तरह बताता है
हाल पूछो तो मुस्कुराता है
कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है
ज़िक्र करता है हर जगह मेरा
सामने आके भूल जाता है
कल तलक सर छुपाके रखता था
आज वो जिस्म भी छुपाता है
किससे क़ौलो-क़रार कीजेगा
कोई वादा कहाँ निभाता है
तन के चलता है भाई के आगे
सर दरे-ग़ैर पर झुकाता है
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
दो
असल में मुस्कुराना चाहता है
जो बच्चा रूठ जाना चाहता है
हमारी प्यास की गहराइयों में
समंदर डूब जाना चाहता है
वो आना चाहता है पास लेकिन
मुनासिब सा बहाना चाहता है
नहीं मालूम क्या चाहत है उसकी
मगर उसको ज़माना चाहता है
कहीं मिल जाए थोड़ी छांव उसको
वो बंजारा ठिकाना चाहता है
नई तहज़ीब का बेटा हमारा
हमें अब भूल जाना चाहता है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
तीन
दुनिया की निगाहों में ख़यालों में रहेंगे
जो लोग तेरे चाहने वालों में रहेंगे
हम लोग बसायेंगे कोई दूसरी दुनिया
मस्जिद में रहेंगे, न शिवालों में रहेंगे
ऐ वक़्त तेरे ज़ुल्मो-सितम सहके भी खुश हैं
हम लोग हमेशा ही मिसालों में रहेंगे
शैरों में मेरे आज धड़कता है मेरा वक़्त
अशआर मेरे कल भी हवालों में रहेंगे
गुलशन के मुक़द्दर में जो आए नहीं अब तक
वो नक़्श मेरे पाँव के छालों में रहेंगे
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन
22 1 1 22 11 221 122
चार
ये धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है
तुमको ज़िद्द ही अगर पर कतरने की है
शौक़ हमको भी ऊँची उड़ानों का है
जानता हूँ हवा है मु्ख़ालिफ़ मेरे
पर भरोसा मुझे बादबानों का है
बाँधकर हम परों में सफ़र उड़ चले
इम्तिहान आज फिर आसमानों का है
बहरे-मुतदारिक सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212
इ-मेल
sukhanwar12@gmail.com
Monday, April 26, 2010
हसीब सोज़ की ग़ज़लें
1962 में जन्में हसीब "सोज़" बेहतरीन शायर हैं। आप उर्दू के रिसाले "लम्हा-लम्हा"का संपादन भी करते हैं |आप उर्दू में एम.ए. हैं। बदायूं (उ,प्र) के रहने वाले हैं।शायर का असली परिचय उसके शे’र होते हैं और इस शायर के बारे में मैं क्या कहूँ। ये शे’र पढ़के के आप ख़ुद कहेंगे कि बाक़ई हसीब साहब आला दर्ज़े के शायर हैं।
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
रगें दिमाग़ की सब पेट में उतर आईं
ग़रीब लोगों में कोई हुनर नहीं होता
इनकी दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई
फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई
इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई
दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया
दुनिया की राये दूसरे दिन ही बदल गई
*हाफ़ज़े-यादाश्त
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
दो
तअल्लुका़त की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ
मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ
ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ
मगर मैं बच्चों को अपने हँसता रहता हूँ
तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की
मैं दुशमनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ
ये रोज़-रोज़ की *अहबाब से मुलाक़ातें
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ
*अहबाब-दोस्त(वहु)
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
Friday, April 23, 2010
प्रेमचंद सहजवाला - परिचय और ग़ज़लें
18 दिसम्बर 1945 को जन्मे प्रेमचंद सहजवाला हिंदी के चर्चित कथाकार हैं। इनके अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । बहुत सी पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और आप अच्छे शायर भी हैं। इनकी दो ग़ज़लें आपकी नज़्र कर रहा हूँ-
एक
ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफ़र आता है
अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है
शहृ में खु़द को तलाशें तो तलाशें कैसे
हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र आता है
अजनबीयत सी लिपटती है बदन से उस के
रोज़ जब शाम को वो लौट के घर आता है
पहले दीवानगी के शहृ से तारुफ़ रक्खो
बाद उस के ही मुहब्बत का नगर आता है
दो घड़ी बर्फ के ढेरों पे ज़रा सा चल दो
संगमरमर सा बदन कैसे सिहर आता है
जिस के साए में खड़े हो के मेरी याद आए
क्या तेरी राह में ऐसा भी शजर आता है
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
दो
हो गए हैं आप की बातों के हम मुफ़लिस शिकार
है खिज़ां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार
रोशनी दे कर मसीहा ने चुनी हँस कर सलीब
रोशनी फिर रौंदने आए अँधेरे बेशुमार
रहबरों के हाथ दे दी ज़िन्दगी की सहरो-शाम
ज़िन्दगी पर फिर रहा कोई न अपना इख़्तियार
मिल नहीं पाते नगर की तेज़ सी रफ़्तार में
याद आते हैं वही क्यों दोस्त दिल को बार बार
जिन के साए में लिखी रूदादे-उल्फ़त वक़्त ने
हो गए हैं आज वो सारे शजर क्यों शर्मसार
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
Friday, April 16, 2010
द्विजेन्द्र द्विज जी की ताज़ा ग़ज़ल और तरही मिसरा
द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल आप सब की नज़्र कर रहा हूँ। द्विज जी से तो सब लोग वाकिफ़ ही हैं। आप उनकी ग़ज़लें कविता-कोश पर यहाँ पढ़ सकते हैं। उनकी एक नई ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
Monday, April 12, 2010
राहत इन्दौरी साहब की नई ग़ज़ल
राहत इन्दौरी किसी तआरुफ़ के मोहताज़ नहीं हैं। उनकी एक ताज़ा ग़ज़ल, उनकी इजाज़त के साथ शाया कर रहा हूँ। छोटी बहर की बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है । लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विशवास रे जोगी
इक दिन विष का प्याला पी जा
फिर न लगेगी प्यास रे जोगी
ये साँसों का बन्दी जीवन
किस को आया रास रे जोगी
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
पुर आई थी मन की नदिया
बह गए सब एहसास रे जोगी
इक पल के सुख की क्या क़ीमत
दुख हैं बाराह मास रे जोगी
बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी
चार फ़ेलुन की बहर
और राहत साहब को सुन भी लीजिए-
Subscribe to:
Posts (Atom)
-
ग़ज़ल लेखन के बारे में आनलाइन किताबें - ग़ज़ल की बाबत > https://amzn.to/3rjnyGk बातें ग़ज़ल की > https://amzn.to/3pyuoY3 ग़ज़...
-
स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प...
-
आज हम ग़ज़ल की बहरों को लेकर चर्चा आरम्भ कर रहे हैं | आपके प्रश्नों का स्वागत है | आठ बेसिक अरकान: फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2) मु-त-फ़ा-इ-लुन(...