परिचय
46 वर्षीय श्री बृज कुमार अग्रवाल (आई. ए. एस.) उत्तर प्रदेश के ज़िला फ़र्रुख़ाबाद से हैं.
आप आई.आई. टी. रुड़की से बी.ई. और आई.आई. टी. दिल्ली से एम.टेक. करने के पश्चात 1985 से भारतीय प्रशासनिक सेवा के हिमाचल काडर में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैंI आप साहित्य , कला एवं संस्कृति के मर्मज्ञ व संरक्षक तथा ग़ज़ल को समर्पित एक सशक्त हस्ताक्षर हैं I
ग़ज़ल
सच को बचाना अब तो यहाँ एक ख़्वाब है
जब आईना भी दे रहा झूठे जवाब है ।
चेहरा तो कोई और है ये जानते हैं हम
कहते हैं लोग जिसको सियासत, नकाब है।
माने नियम जो वो तो है कमज़ोर आदमी
तोड़े नियम जो आज वही कामयाब है।
मेरी बेबसी है उसको ही मैं रहनुमा कहूँ
मैं जानता हूँ उसकी तो नीयत ख़राब है ।
दो पल सुकून के मिलें तो जान जाइये
अगले ही पल में आने को कोई अज़ाब है ।
सफ़`आ उलटना एक भी दुश्वार हो गया
किसने कहा था वो तो खुली इक किताब है ।
इसे तोड़ने से पहले कई बार सोचना
तेरा भी वो न हो कहीं मेरा जो ख़्वाब है ।
मेरा सवाल फिर भी वहीं का वहीं रहा
माना जवाब तेरा बहुत लाजवाब है ।
S S I, S I S I , I S S I , S I S
बह्र मुज़ारे
Wednesday, April 9, 2008
देवी नांगरानी जी की एक ग़ज़ल और परिचय

परिचय:
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ:
ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन-
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन-
प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।
ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com
ग़ज़ल:
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.
बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.
काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.
हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.
फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.
बज़न :212, 212, 212,212
faailun-faailun-faailun-faailun
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।
ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com
ग़ज़ल:
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.
बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.
काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.
हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.
फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.
बज़न :212, 212, 212,212
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