Friday, September 26, 2008

जयंती- सरदार भगत सिंह



‘‘पिस्तौल और बम कभी इन्कलाब नहीं लाते,
बल्कि इन्कलाब की तलवार
विचारों की सान पर तेज़ होती है !’’
-भगतसिंह


एक शे’र जो भगत सिंह ने लिखा था-
कमाले बुज़दिली है अपनी ही आंखों में पस्त होना
गरा ज़रा सी जूरत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकता।
उभरने ही नहीं देती यह बेमाइगियां दिल की
नहीं तो कौन सा कतरा है, जो दरिया हो नहीं सकता।


सरदार भगत सिंह (28 सितंबर 1907 - 23 मार्च 1931) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे । इन्होने केन्द्रीय असेम्बली की बैठक में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया । जिसके फलस्वरूप भगत सिंह को 23 मार्च 1931) को इनके साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फांसी पर लटका दिया गया । सारे देश ने उनकी शहादत को याद किया। इस महानायक को कोटि-कोटि नमन.

फ़िल्मी सितारों के जन्मदिन मनाने वाली युवा पीढ़ी और बम धमाकों से मरे लोगों के बीच खड़े होकर बार-बार विलायती सूट बदलने वाली सियासत और सब कुछ सहन करने वाले आम आदमी के लिए ही भगत सिंह ने अपनी कुर्बानी दी थी?? ?
भगत सिंह ने अपनी माँ से सही कहा था कि माँ! आजादी से कोई खास फ़र्क नही पड़ेगा बस गोरे लोगों की जगह अपने लोग आ जायेंगे.

पाश की कविता आज के दौर का कितना सही खाका खेंचती है...

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना.
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से काम पर निकलना
और काम से घर जाना
सबसे खतरनाक़ होता है
हमारे सपनों का मर जाना.



भगत सिंह के शब्द याद रखें:
‘मैं यथार्थवादी हूं। मैं अपनी अंत प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूं। ..प्रयत्न तथा प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है, सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है।’

बेहतर कल के सपने लिए... भारत

Thursday, September 25, 2008

द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ग़ज़ल









ग़ज़ल

अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नहीं आता
किसी भी सिम्त से उस पर कोई पत्थर नहीं आता

अँधेरों से उलझ कर रौशनी लेकर नहीं आता
तो मुद्दत से कोई भटका मुसाफ़िर घर नहीं आता

यहाँ कुछ सिरफिरों ने हादिसों की धुंध बाँटी है
नज़र अब इसलिए दिलकश कोई मंज़र नहीं आता

जो सूरज हर जगह सुंदर—सुनहरी धूप लाता है
वो सूरज क्यों हमारे शहर में अक्सर नहीं आता

अगर इस देश में ही देश के दुशमन नहीं होते
लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता

जो ख़ुद को बेचने की फ़ितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता

अगर ज़ुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती
हमारे दर पे ज़ुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता

ग़ज़ल को जिस जगह 'द्विज', चुटकुलों सी दाद मिलती हो
वहाँ फिर कोई भी आए मगर शायर नहीं आता

द्विजेंन्द्र द्विज

Wednesday, September 24, 2008

रामधारी सिंह दिनकर- जन्म दिवस पर विशेष












श्री रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय ज़िले के सिमरिया नामक स्थान पर हुआ.गद्य की उनकी चर्चित किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' पर उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार और वर्ष 1972में 'उर्वशी' प्रबंध काव्य पर ज्ञानपीठ का पुरस्कार दिया गया.इसके अतिरिक्त हुँकार, रेणुका, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, दिल्ली और हारे को हरिनाम और शुद्ध कविता की खोज आदि प्रमुख कृतियाँ उन्होंने लिखीं. 24 अप्रैल 1974 को दिनकर का उनका देहांत हो गया .

‘‘हृदय छोटा हो,
तो शोक वहाँ नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है,जिसका भाग्य खुलता है"


रामधारी सिंह दिनकर

Saturday, September 20, 2008

एक ज़मीन दो शायर : संत कबीर और निदा फ़ाज़ली









संत कबीर :

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?








निदा फ़ाज़ली:

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.

उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.

हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या.

दो-ग़जला: एक ज़मीन और एक ही बहर , एक ही शायर द्वारा लिखी गई दो ग़ज़लों को दो-ग़ज़ला कहते हैं. इनकी ज़मीन एक है . माफ़ी चाहता हूँ ये दोनो ग़ज़लें दो-ग़ज़ला नहीं हैं.द्विज जी को धन्यावाद ग़ल्ती को ठीक करवाने के लिए.

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Dwij said

प्रिय सतपाल

अच्छा किया आपने वो दो—ग़ज़ला शीर्षक बदल दिया.
कबीर साहिब की ज़मीन में निदा फ़ाज़ली साहिब की ग़ज़ल भी अच्छी है
लेकिन आख़िरी शे’र?
‘मीर’ साहिब की ग़ज़ल मेहदी हसन साहिब की आवाज़ में
बचपन से सुनता आ रहा हूँ
:
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ—सा कहाँ से उठता है

मीर’ इश्क़ एक भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवाँ से उठता है?

अब इसके बाद:
हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का—भारी क्या

फ़ाज़ली साहिब का शेर यूँ ही —सा लगा . मुझे समझ नहीं आया. शायद मैं इसे उनके तरीक़े से महसूस नहीं कर पा रहा हूँ. कोई मुझे समझाये वो क्या कहना चाहते हैं, जनाबे मीर से मुत्तफ़िक़ न होकर.
ग़ालिब के शेर:
ये मसायल—ए—तसव्वुफ़, ये तेरा ब्यान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़ार होता.

के बाद गुलज़ार साहिब का:
बड़े सूफ़ियों —से ख्याल थे और बयाँ भी उसका कमाल था
मैने कब कहा कि वली था वो एक शख़्स था बादाख़ार था
भी मुझे आजतक समझ नहीं आया
और
ग़ालिब के:
“इश्क़ पर ज़ोर नहीं,है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने”

के बाद ‘मख़्मूर’ देहलवी का

“मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शोला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता”
बस यूँ ही—सा लग रहा है.
ये बड़े शायर बज़ुर्गों को कब बख़्शेंगे?


Dwij

Thursday, September 18, 2008

महावीर शर्मा की ग़ज़लें और परिचय








परिचय

1933 में दिल्ली में जन्मे श्री महावीर शर्मा . पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. हैं. आपने लन्दन विश्वविद्यालय तथा ब्राइटन विश्वविद्यालय में गणित, ऑडियो विज़ुअल एड्स तथा स्टटिस्टिक्स का अध्ययन किया है.आपने उर्दू का भी अध्ययन किया है.
1962 से 1964 तक स्व: श्री ढेबर भाई जी के प्रधानत्व में भारतीय घुमन्तूजन (Nomadic Tribes) सेवक संघ के अन्तर्गत राजस्थान रीजनल ऑर्गनाइज़र के रूप में कार्य किया . 1965 में इंग्लैण्ड के लिये प्रस्थान . 1982 तक भारत, इंग्लैण्ड तथा नाइजीरिया में अध्यापन . अनेक एशियन संस्थाओं से संपर्क रहे . तीन वर्षों तक एशियन वेलफेयर एसोशियेशन के जनरल सेक्रेटरी के पद पर सेवा करते रहे .1992 में स्वैच्छिक पद से निवृत्ति के पश्चात लन्दन में ही इनका स्थाई निवास स्थान है.
1960 से 1964 की अवधि में महावीर यात्रिक के नाम से कुछ हिन्दी और उर्दू की मासिक तथा साप्ताहिक पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहे . 1961 तक रंग-मंच से भी जुड़े रहे.
दिल्ली से प्रकाशित हिंदी पत्रिकाओं “कादम्बिनी”,”सरिता”, “गृहशोभा”, “पुष्पक”, तथा “इन्द्र दर्शन”(इंदौर), “कलायन”, “गर्भनाल”, “काव्यालय”, “निरंतर”,”अभिव्यक्ति”, “अनुभूति”, “साहित्यकुञ्ज”, “महावीर”, “अनुभूति कलश”,”अनुगूँज”, “नई सुबह”, “ई-बज़्म” आदि अनेक जालघरों में हिन्दी और उर्दू भाषा में कविताएं ,कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहते हैं. इंग्लैण्ड में आने के पश्चात साहित्य से जुड़ी हुई जो कड़ी टूट गई थी, अब उस कड़ी को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं.
आजकल आप महावीर ब्लाग के माध्यम से हज़ारों साहित्य प्रेमियों के प्रिय हैं. समय—समय पर आप इस ब्लाग पर विभिन्न साहित्यकारों/काव्य—प्रेमियों को किसी न किसी आयोजन के बहाने जुटाते रहते हैं.पिछले दिनों आपके द्वारा बरखा बहार पर आयोजित एवं संचालित मुशायरा बहुत चर्चित रहा है.

श्री महावीर शर्मा की दो ग़ज़लें

एक.










ज़िन्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहाँ है
नाम लेकर प्यार से मुझ को बुलाया ही कहाँ है ?

टूट कर मेरा बिखरना, दर्द की हद से गुज़रना
दिल के आईने में ये मंज़र दिखाया ही कहाँ है ?

शीशा-ए-दिल तोड़ना है तेरे संगे-आस्ताँ पर
तेरे दामन पे लहू दिल का गिराया ही कहाँ है ?

ख़त लिखे थे ख़ून से जो आँसुओं से मिट गये अब
जो लिखा दिल के सफ़े पर, वो मिटाया ही कहाँ है ?

जो बनाई है तिरे काजल से तस्वीरे-मुहब्बत
पर अभी तो प्यार के रंग से सजाया ही कहाँ है ?

देखता है वो मुझे, पर दुश्मनों की ही नज़र से
दुश्मनी में भी मगर दिल से भुलाया ही कहाँ है ?

ग़ैर की बाहें गले में, उफ़ न थी मेरी ज़ुबाँ पर
संग दिल तू ने अभी तो आज़माया ही कहाँ है ?

जाम टूटेंगे अभी तो, सर कटेंगे सैंकड़ों ही
उसके चेहरे से अभी पर्दा हटाया ही कहाँ है ?

उन के आने की ख़ुशी में दिल की धड़कन थम न जाये
रुक ज़रा, उनका अभी पैग़ाम आया ही कहाँ है ?

बहरे-रमल फ़ा इ ला तुन/ फ़ा इ ला तुन/फ़ा इ ला तुन/फ़ा इ ला तुन
2122 2122 2122 2122

दो.










इस ज़िन्दगी से दूर, हर लम्हा बदलता जाए है,
जैसे किसी चट्टान से पत्थर फिसलता जाए है।

अपने ग़मों की ओट में यादें छुपा कर रो दिए
घुटता हुआ तनहा, कफ़स में दम निकलता जाए है।

कोई नहीं अपना रहा जब, हसरतें घुटती रहीं
इन हसरतों के ही सहारे दिल बहलता जाए है

तपती हुई —सी धूप को हम चाँदनी समझे रहे
इस गरमिये-रफ़तार में दिल भी पिघलता जाए है।

जब आज वादा-ए-वफ़ा की दास्ताँ कहने लगे,
ज्यूँ ही कहा 'लफ़ज़े-वफ़ा', वो क्यूँ सँभलता जाए है।

इक फूल बालों में सजाने, खार से उलझे रहे,
वो हैं कि उनका फूल से भी, जिस्म छिलता जाए है।

दौलत जभी आए किसी के प्यार में दीवार बन,
रिशता वफ़ा का बेवफ़ाई में बदलता जाए है।

बहरे-रजज़ -
मुस तफ़ इ लुन/मुस तफ़ इ लुन/मुस तफ़ इ लुन/मुस तफ़ इ लुन
2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2