
मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :
1. ग़ज़ल : पवनेन्द्र पवन
सियार जब से शेर का हुआ सलाहकार है
ये राजघर लुटेरों की बना पनाहगार है
ईमानदार आदमी तो बस सिपहसलार है
सम्हालता तो राज अब रँगा हुआ सियार है
कुटुम्ब सारा मोतिये की मर्ज़ का शिकार है
है साँप रस्सी दिख रहा मयान तो कटार है
अमन की तू तलाश में न करना इनका रुख़ कभी
पहाड़ियों की अब नहीं सुकूँ भरी बयार है
निशान तो रहेंगे ही तमाम उम्र के लिए
समय के साथ भर गई गो दिल की हर दरार है
आवाम की आवाम से आवाम के लिए बनी
ये लोक सत्ता धन कुबेरों की किराएदार है
धुआँ-धुआँ सुलगती ये भी इक सिरे से दूजे तक
ये ज़िन्दगी भी होंठों में दबा हुआ सिगार है
न जाने किसने ख़त लिखा कि लौट आ तू गाँव में
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है?
गुलों को छोड़् आ ‘पवन’ बना लें राक-गार्डन
शिलाओं पे तो मौसमों की होती कम ही मार है

2. ग़ज़ल: अमित रंजन गोरखपुरी
न अब कोई हकीम है न कोई गमगुसार है,
वही मरीज़-ए-इश्क, और दर्द बार बार है
उदास बेकरार होके सोचता हूँ हर घडी,
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
झुकी- झुकी, डरी- डरी, कोई निगाह-ए-नश्तरी,
हया के मैकदे, जहां खुमार ही खुमार है
ज़रा सी बात पर न कोई रूठ जाए उम्र भर,
ज़रा सी बात से कहीं अज़ल तलक बहार है
भिगा सकेंगी क्या उसे ये बारिशें खयाल की,
खुदी में भीगता हुआ जो एक आबशार है
संभल के वास्ता करो यहां किसी हसीन से,
मेरे शहर के कातिलों का हुस्न से करार है
सबक है ज़िंदगी का या शहर की तंग कैफ़ियत,
जो कल तलक सलीस* था वो आज होशियार है
लकीर खैंच कर बना रहे तमाम सरहदें,
सिकंदरों को आज भी सराब इख्तियार है
सलीस = साफ़, पारदर्शी

3. ग़ज़ल: धीरज अमेटा धीर
ये कौन उड़ा गया खबर कि मौसमे बहार है?
यहाँ तो दिल उजाड़ है, जिगर भी तार-तार है!
फ़रेब और झूठ का छपा इक इश्तेहार है!
"जो हम से काम ले वो रातों-रात माल-दार है!"
शराबे कैफ़ कब मिली है मैकदे में ज़ीस्त के?
यहाँ है जो भी, नश्शा-ए-अलम का वो शिकार है!
ये हिचकियाँ हैं बेसबब या कोई वजहे खास है,
"मिरे लिये भी क्या कोई उदास, बेक़रार है!"
तमाम नफ़्हे आपसे, ज़ियां बदौलते खुदा?
कोई नहीं जो अपने ही किये पे शर्म-सार है!
जो ज़िन्दगी की दौड़ में कभी न भूले राम-नाम
हयात के भँवर में एक उसी का बेड़ा पार है!
न इतनी एहतियाते गुफ़्तगू बरत के युँ लगे,
पुराने राब्ते पे "धीर", वक़्त का ग़ुबार है!

4. ग़ज़ल: गौतम राजरिषी
ख़बर मिली उन्हें ये जब कि तुमको मुझसे प्यार है
नशे में डूबा चाँद है, सितारों में ख़ुमार है
मैं रोऊँ अपने क़त्ल पर, या इस खबर पे रोऊँ मैं
कि क़ातिलों का सरगना तो हाय मेरा यार है
अकेले इस जहान में ये सोचता फिरूँ मैं अब
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेकरार है
ये जादू है लबों का तेरे या सरूर इश्क़ का
कि तू कहे है झूठ और हमको ऐतबार है
सुलगती ख़्वाहिशों की धूनी चल कहीं जलायें और
कुरेदना यहाँ पे क्या, ये दिल तो जार-जार है
ले मुट्ठियों में पेशगी महीने भर मजूरी की
वो उलझनों में है खड़ा कि किसका क्या उधार है
बनावटी ये तितलियाँ, ये रंगों की निशानियाँ
न भाये अब मिज़ाज को कि उम्र का उतार है
भरी-भरी निगाह से वो देखना तेरा हमें
नसों में जलतरंग जैसा बज उठा सितार है

5. ग़ज़ल: मनु ‘बेतख़ल्लुस’
सुख़न में इन दिनों बसा अजब- सा इक ख़ुमार है
सुना है जब से उनको भी हमारा इंतज़ार है
सुनी जो शमअ ने हमारी आरजू तो ये कहा
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
क़रीब और आ रही है तेज चाल की धनक
मचल रही हैं धड़कनें निखर रहा ख़ुमार है
कहें तो क्या कहें अजब है दास्ताने -ज़िंदगी
हैं तुझ पे जो इनायतें वही तो मुझ पे बार है
हैं तेरे मेरे दरमियाँ जो रात-दिन की गर्दिशें
न बस है इन पे कुछ तेरा न मेरा इख़्तियार है
फ़लक ने रहम कब किया जमीं ने कब दुआएँ दीं
मिला है आज क्या तुझे जो इतना ख़ुशगवार है
अभी अंतिम किश्त बाकी है.