Tuesday, August 28, 2012

द्विजेंद्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल


ग़ज़ल

ये कौन पूछता है भला आसमान से
पंछी कहाँ गए जो न लौटे उड़ान से

‘सद्भाव’ फिर कटेगा किसी पेड़ की तरह
लेंगे ये काम भी वो मगर संविधान से

दंगाइयों की भीड़ थी पैग़ाम मौत का
बच कर निकल सका न वो जलते मकान से

घायल हुए वहाँ जो वो अपने ही थे तेरे
छूटा था बन के तीर तू किसकी कमान से

पागल उन्हें इसी पे ज़माने ने कह दिया
आँखों को जो दिखा वही बोले ज़बान से

`धृतराष्ट्र’ को पसंद के `संजय’ भी मिल गए
आँखों से देख कर भी जो मुकरे ज़बान से

बोले जो हम सभा में तो वो सकपका गया
`द्विज’ की नज़र में हम थे सदा बे—ज़बान—से

Tuesday, August 14, 2012

दुष्यंत कुमार



ग़ज़ल

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं


तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

Monday, August 6, 2012

अंसार क़म्बरी की एक ग़ज़ल



ग़ज़ल

धूप का जंगल, नंगे पावों इक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या

बादल-बादल आग लगी थी, छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या

सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या

तुमने चाहे चाँद-सितारे, हमको मोती लाने थे,
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका, फिर बंटवारा करता क्या

टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बींच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा करता क्या

Wednesday, July 25, 2012

ग़ज़ल- दिनेश ठाकुर




दिनेश जी के ग़ज़ल संग्रह 'परछाइयों के शहर में' से-  एक ग़ज़ल-

दिल ग़म से आज़ाद नहीं है
ऐसा क्यों है, याद नहीं है

ख़्वाबों के ख़ंजर पलकों पर
होठों पर फ़रियाद नहीं है

जंगल तो सब हरे-भरे हैं
गुलशन क्यों आबाद नहीं है

दिल धड़का न आँसू आए
यह तो तेरी याद नहीं है

आबादी है शहरे-वफ़ा की
कौन यहाँ बर्बाद नहीं है

सच-सच कहना हँसने वाले
क्या तू भी नाशाद नहीं है..?

कितने चेहरे थे चेहरों पर
कोई चेहरा याद नहीं है

जो कुछ है इस जीवन में है
कुछ भी इस के बाद नहीं है

Thursday, April 19, 2012

श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल


सका है अज़्मे-सफ़र और निखरने वाला
सख़्त मौसम से मुसाफ़िर नहीं डरने वाला

चारागर तुझसे नहीं मुझको तवक़्क़ो कोई
दर्द होता है दवा हद से गुज़रने वाला

नाख़ुदा ! तुझको मुबारक हो ख़ुदाई तेरी
साथ तेरे मैं नहीं पार उतरने वाला

उसपे एहसान ये करना न उठाना उसको
अपने पैरों पे खड़ा होगा वो गिरने वाला

पार करने थे उसे कितने सवालों के भँवर
अटकलें छोड़ गया डूब के मरने वाला

मैं उड़ानों का तरफ़दार उसे कैसे कहूँ
बालो-पर है जो परिन्दों के कतरने वाला

क्यूँ भला मेरे लिए इतने परेशान हो तुम
  एक पत्ता ही तो हूँ सूख के झरने वाला

    अपनी नज़रों से गिरा है जो किसी का भी नहीं
      साथ क्या देगा तेरा ख़ुद से मुकरने वाला

  ग़र्द हालात की अब ऐसी जमी है, तुझ पर
  आईने ! अक्स नहीं कोई उभरने वाला

ये ज़मीं वो तो नहीं जिसका था वादा तेरा
कोई मंज़र तो हो आँखों में ठहरने वाला