Saturday, January 2, 2010
स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी - परिचय और ग़ज़लें
(3 अप्रैल, 1915 -11 दिसम्बर, 1982)
स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी ‘चाँद’ कुल्लुवी हिमाचल के आसमाने-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे. आप हिमाचल के नग्गर (कुल्लू) गाँव से थे. इनका कलाम बीसवीं सदी, शमअ और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था.कुल-हिन्द और हिन्द -पाक मुशायरों में भी इनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था. आपने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था. प्रस्तुत ग़ज़लें उनके मरणोपरान्त हिमाचल भाषा एवं कला संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित संकलन ‘वजूद-ओ-अदम’से ली गई हैं . आज की ग़ज़ल के लिए इनका उर्दू से लिप्यान्तरण ‘द्विज’ जी ने किया है.
‘चाँद’ कुल्लुवी साहब की तीन ग़ज़लें-
एक
हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख
दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख
रख तू किसी के दर पे जबीं अपनी या न रख
दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख
अफ़सोस हमनवाई के मआनी बदल गए
मैंने कहा था साथ कोई हमनवा न रख
मंज़िल ही उसकी आह की आतिश से जल न जाए
हमराह कारवाँ के कोई दिलजला न रख
घर अपना जानकर हैं मकीं तेरे दिल में हम
हम ग़ैर तो नहीं हैं हमें ग़ैर-सा न रख
होता तो होगा ज़िक्र मेरा भी बहार में
मुझसे छुपा के बात कोई ऐ सबा न रख
आवाज़ दे कहीं से तू ऐ मंज़िले-मुराद
इन दिलजलों को और सफ़र-आशना न रख
वुसअत में इसकी कोनो-मकाँ को समेट ले
महदूद अपने ख़ाना-ए-दिल की फ़िज़ा न रख
अच्छा है साथ-साथ चले ज़िंदगी के तू
ऐ ख़ुदफ़रेब इससे कोई फ़ासला न रख
राहे-वफ़ा में तेरी भी मजबूरियाँ सही
इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख
रौशन हो जिसकी राहे-अदम तेरी याद में
उस ख़स्ता-तन की क़ब्र पे जलता दिया न रख
ऐ चाँद आरज़ूओं की तकमील हो चुकी
रुख़सत के वक़्त दिल में कोई मुद्दआ न रख
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
दो
ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा
कहीं निज़ाम में कोई फ़तूर है बाबा
जो सो रहा है लिपट कर अना के दामन से
जगा के देख ये मेरा शऊर है बाबा
घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ
न जाने प्यास में कैसा सरूर है बाबा
भरी बहार में बैठे हैं हम अलम-व किनार
ज़रा बता कि ये किसका क़सूर है बाबा
तेरी निगाह में जो एक जल्वा देख लिया
मेरे लिए वही असरारे-तूर है बाबा
मये-निशात में देखा है झूमकर बरसों
मये-अलम में भी अब तो सरूर है बाबा
गुमान सुबहे-बदन है यक़ीन शामे-नज़र
ढला हुआ तेरे सांचे में नूर है बाबा
कभी कोई तो उसे जोड़ पाएगा शायद
अभी तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर है बाबा
नमूदे-नौ में तेरे ही तस्व्वुराते-हसीं
तेरा ख़याल बिना-ए-शऊर है बाबा
मेरा वजूद तेरे शौक़ का नतीजा है
इसी लिए तो ये साए से दूर है बाबा
छुपा-छुपा के मैं रक्खूँ कहाँ इसे ऐ ‘चाँद’
मताए-ज़ीस्त ये तेरे हुज़ूर है बाबा
बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/112
तीन
फ़रेबे-ज़िंदगी है और मैं हूँ
बला की बेबसी है और मैं हूँ
वही संजीदगी है और मैं हूँ
वही शोरीदगी है और मैं हूँ
जहाँ मैं हूँ वहाँ कोई नहीं है
मेरी आवारगी है और मैं हूँ
बढ़ा जाता हूँ ख़ुद राहे-अदम पर
तुम्हारी रौशनी है और मैं हूँ
जनाज़ा उठ चुका है दिलबरी का
शिकस्ते-आशिक़ी है और मैं हूँ
तमाशाई हूँ अपनी हसरतों का
किसी की बेरुख़ी है और मैं हूँ
निगाहों में उधर बेबाकियाँ हैं
इधर शर्मिंदगी है और मैं हूँ
वहाँ ढूँढो मुझे ऐ ‘चाँद’ जाकर
जहाँ बस आगही है और मैं हूँ
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
Friday, January 1, 2010
नव वर्ष पर-विशेष
ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
द्विज जी के इस शे’र के साथ इस साल की अंतिम पोस्ट आपकी नज़्र है। वसीम बरेलवी की एक ग़ज़ल आज पहली बार "आज की ग़ज़ल" पर छाया कर रहा हूँ, ग़ज़ल से पहले दो शे’र वसीम बरेलवी के-
न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है
गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है
अब ये ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
कौन सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे देख न पाये दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंटों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल -
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112
निदा फ़ाज़ली की इस दुआ के साथ-
"चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला"
इस साल को विदा कहते हैं और आने वाले साल का स्वागत करते हैं । जगजीत की मख़मली आवाज़ में इसे सुनिए-
Jagjit Singh - Garaj Baras Pyasi .mp3 | ||
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Wednesday, December 23, 2009
कृश्न कुमार 'तूर' साहिब की दो ग़ज़लें
11 अक्तूबर 1933 को जन्मे जनाब—ए—कृश्न कुमार 'तूर' साहब ने उर्दू , अँग्रेज़ी और इतिहास जैसे तीन विषयों में एम.ए. किया है.आप हिमाचल प्रदेश के टूरिज़म विभाग में उच्च अधिकारी रह चुके हैं.आपका का क़लाम उर्दू जगत में प्रकाशित होने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में बड़े आदर से छपता है.भारत में आयोजित तमाम कुल—हिन्द और हिन्द—पाक मुशायरों में इन्हें बड़े अदब से सुना जाता है.
इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं - आलम ऐन ; मुश्क—मुनव्वर; शेर शगुफ़्त ; रफ़्ता रम्ज़ ; सरनामा—ए—गुमाँ नज़री .'तूर' साहब अर्से से उर्दू में प्रकाशित सर सब्ज़ पत्रिका के सम्पादक हैं.पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-
एक
मैं मंज़र हूँ *पस मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत
आख़िर मेरी पेशानी पे सूरज चमका बहुत
जाने कौन से *इस्मे-अना के हम *ज़िन्दानी थे
तेरे नाम को लेकर हमने ख़ुद को चाहा बहुत
उनसे क्या रिश्ता था वो क्या मेरे लगते थे
गिरने लगे जब पेड़ से पत्ते तो मैं रोया बहुत
कैसी *मसाफ़त सामने थी और सफ़र था कैसा लहू
मैंने उसको उसने मुझको मुड़ के देखा बहुत
है दरिया के *लम्स पे नाज़ाँ इक काग़ज़ की नाव
सूरज से बातें करता है एक दरीचा बहुत
सारी उम्र किसी की ख़ातिर सूली पे लटका
शायद 'तूर' मेरे अन्दर इक शख़्स था ज़िन्दा बहुत
(6फ़ेलुन+1फ़े)
पस मंज़र=पृष्ठभूमि,*इस्मे-अना -अहम का नाम,ज़िन्दानी -कै़दी,मसाफ़त-सफ़र की दूरी,लम्स-स्पर्श
दो
अब सामने लाएँ आईना क्या
हम ख़ुद को दिखाएँ आईना क्या
ये दिल है इसे तो टूटना था
दुनिया से बचाएँ आईना क्या
इस में जो अक्स है ख़बर है
अब देखें दिखाएँ आईना क्या
क्या *दहर को *इज़ने-आगही दें
पत्थर को दिखाएँ आईना क्या
उस *रश्क़े-क़मर से वस्ल रक्खें
पहलू में सुलाएँ आईना क्या
हम भी तो मिसाले-आईना हैं
अब ‘तूर’ हटाएँ आईना क्या
रश्क़े-क़मर - चाँद से हसीन,*दहर -दुनिया,इज़्न-इजाज़त,आगही-जानकारी
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
222 212 122 या 2211 212 122
तीन
तेरे फ़िराक़ में जितनी भी अश्कबारी की
मिसाले-ताज़ा रही वो दिले-हज़ारी की
था कुछ ज़माने का बर्ताव भी *सितम आमेज़
थी लौ भी तेज़ कुछ अपनी अना-ख़ुमारी की
ये किसके नाम का अब गूँजता है अनहदनाद
ये कौन जिसने मेरे दिल पे मीनाकारी की
कभी-कभी ही हुई मेरी फ़स्ले-जाँ सर सब्ज़
कभी कभी ही मेरे इश्क़ ने पुकारी की
अगर वो सामने आए तो उससे पूछूँ मैं
ये किस की फ़र्दे-अमल मेरे नाम जारी की
सदा-ए-दर्द पड़ी भी तो बहरे कानों में
हमारे दिल ने अगर्चे बहुत पुकारी की
जो हम ज़माने में बरबाद हो गए हैं तो क्या
सज़ा तो मिलनी थी आख़िर ख़ुद अख़्तियारी की
जिसे न पासे महब्बत न दोस्ती का लिहाज़
ये ‘तूर’ तुमने भी किस बेवफ़ा से यारी की
*सितम आमेज़- जुल्म से भरा हुआ,अना-ख़ुमारी -अहम का नशा, अश्कबारी-आँसुओं की बरसात
बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112सम्पर्क:134—E,Khaniyara Road,
Dharmshala—176215 (Himachal Pradesh)
फोन: 01892—222932 ; मोबाइल: 098160—20854
Saturday, December 19, 2009
संजीव गौतम की दो ग़ज़लें
इस बार कुछ देरी से ये पोस्ट लगा रहा हूँ लेकिन अब कोशिश करूँगा कि आपको अच्छी ग़ज़लें पढ़वाता रहूँ। इस बार 1973 में जन्में संजीव गौतम की दो ग़ज़लें हाज़िर कर रहा हूँ। इन्होंने हिंदी मे एम.ए. की है और पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर छपते रहते हैं। आशा है कि आपको ग़ज़लें पसंद आयेंगी।
ग़ज़ल
कभी तो दर्ज़ होगी जुर्म की तहरीर थानों में
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में
कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की
परिंदों का यक़ीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में
अजब हैं माअनी इस दौर की गूँगी तरक़्क़ी के
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में
कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में
नज़र-अंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में
(बहरे-हज़ज सालिम)
मुफ़ाईलुनx4
ग़ज़ल
बंद रहती हैं खिड़कियाँ अब तो
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो
हमने दुनिया से दोस्ती कर ली
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो
उफ़! ये कितना डरावना मंज़र
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो
खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो
सिर्फ़् अपने दुखों को जाने हैं
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो
सबकी आँखों में सिर्फ़ ग़ुस्सा है
और हाथों में तख़्तियाँ अब तो
बहरे-खफ़ीफ़
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ा’लुन
( 2122 1212 22/112 )
Saturday, November 21, 2009
तरही की अंतिम क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अंतिम दो ग़ज़लें
कुमार ज़ाहिद
वो जो दिल ही नहीं लेते हैं अक्सर जान लेते हैं
उन्हें हम बारहा दिल से दिलो-जां मान लेते हैं
ये गुल, गुलशन,ये शहरों की हंसीं रंगीनियां सारी
ये चादर नींद में ख्वाबों की है हम तान लेते हैं
कभी खुलकर नहीं रोती,कभी शिकवा नहीं करती
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
किसे मंज़िल नहीं मिलती, किसे रस्ता नहीं मिलता
सुना है मिलता है सब कुछ अगर हम ठान लेते हैं
सतपाल ख़याल
हम आँखें देखकर हर शख़्स को पहचान लेते हैं
बिना जाने ही अकसर हम बहुत कुछ जान लेते हैं
वही उतरा हुआ चहरा, वही कुछ सोचती आँखें
तुझ ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
ज़रा सा सर उठाता है खुशी का जब कोई अंकुर
घने बरगद ग़मों के इसपे सीना तान लेते हैं
बज़ुर्गों की किसी भी बात का गुस्सा नहीं करते
कि हम हर हाल में अपनी ही ग़लती मान लेते हैं
ज़रूरी तो नहीं हर काम का हासिल हो दुनिया में
तेरी गलियों की अक़सर खाक भी हम छान लेते हैं
ये जलवे हुस्न के का़तिल ख़याल इनसे बचे रहना
ये दिल लेते हैं पहले और फिर ये जान लेते हैं
Monday, November 16, 2009
पाँचवीं क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
दिखा कर ख़ौफ़ दुनिया के जो हमसे दान लेते हैं
मना कर दें अगर हम तो भवें वो तान लेते हैं
तआरुफ़ मांगते होंगे नये कुछ लोग मिलने पर
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
यहाँ सीधी या सच्ची बात सुनता कौन है लेकिन
मसालेदार खबरें लोग कानों-कान लेते हैं
हमारे घर हैं मिट्टी के मगर पत्थर की कोठी पर
अगर हम जोश में आयें तो मुट्ठी तान लेते हैं
हजारों इम्तिहां हम दे चुके पर देखना है ये
नया इक इम्तिहां अब कौन सा भगवान लेते हैं
ये पटियेबाज भोपाली भला कब नापकर फेंकें
यकीं हमको नहीं होता मगर हम मान लेते हैं
तबीयत और फितरत कुछ अलग ‘राही’ने पाई है
वो अपने काम के बदले बस इक मुस्कान लेते हैं
तेजेन्द्र शर्मा
बिना पूछे तुम्हारे दिल की बातें जान लेते हैं
खड़क पत्तों की होती है तुम्हें पहचान लेते हैं
भला सीने में मेरे दिल तुम्हारा क्यूं धड़कता है
यही बस सोच कर हम अपना सीना तान लेते हैं
अलग संसार है तेरा, अलग दुनियां में रहता मैं
मेरी दुनियां में तेरा नाम सब अनजान लेते हैं
कभी मुश्किल हमारा रास्ता कब रोक पाई है
वो मंज़िल मिल ही जाती है जिसे हम ठान लेते हैं
चौथी क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें
प्रेमचंद सहजवाला
सफ़र मंज़िल का मुश्किल है क़दम ये जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
ग़ज़ल कहना तो आला शाइरों का काम होता है
मगर नादाँ इसे कहना समझ आसान लेते हैं
चुनावों में तो रौनक़ सी नज़र आती है हर जानिब
हमारे गाँव में डाकू भी मूंछें तान लेते हैं
हमें तहज़ीब का रस्ता वो लाठी से सिखाते हैं
मगर हम लोग उन की असलियत को जान लेते हैं
अगरचे आप फ़ितरत से ही तानाशाह लगते हैं
कहा हम आप का फिर भी हमेशा मान लेते हैं
जवानों की न हिम्मत पर कभी हैरान हो साथी
वही करते हैं वो जांबाज़ जो कुछ ठान लेते हैं
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बुज़ुर्गों के तजुर्बे का कहां अहसान लेते हैं
वही करते हैं बच्चे दिल में जो भी ठान लेते हैं.
हमारी कश्तियाँ हैं सब की सब सागर की हमजोली
हमारे *अज़्म से टक्कर कहां तूफान लेते हैं
महक जाती हैं ये सांसें तेरे आने की आहट से
तुझे ऐ जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
मुहब्बत की अदालत में दलीलें चल नहीं पातीं
वो खु़द को बावफ़ा कहते हैं तो हम मान लेते हैं
हमारी गु़फ्तगू में एक ये मुश्किल तो है 'शाहिद'
ग़ज़ल के वास्ते अल्फाज़ भी आसान लेते हैं
*अज्म-दृढ़ प्रतिज्ञा, मज़बूत इरादा
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