Saturday, December 19, 2009
संजीव गौतम की दो ग़ज़लें
इस बार कुछ देरी से ये पोस्ट लगा रहा हूँ लेकिन अब कोशिश करूँगा कि आपको अच्छी ग़ज़लें पढ़वाता रहूँ। इस बार 1973 में जन्में संजीव गौतम की दो ग़ज़लें हाज़िर कर रहा हूँ। इन्होंने हिंदी मे एम.ए. की है और पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर छपते रहते हैं। आशा है कि आपको ग़ज़लें पसंद आयेंगी।
ग़ज़ल
कभी तो दर्ज़ होगी जुर्म की तहरीर थानों में
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में
कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की
परिंदों का यक़ीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में
अजब हैं माअनी इस दौर की गूँगी तरक़्क़ी के
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में
कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में
नज़र-अंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में
(बहरे-हज़ज सालिम)
मुफ़ाईलुनx4
ग़ज़ल
बंद रहती हैं खिड़कियाँ अब तो
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो
हमने दुनिया से दोस्ती कर ली
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो
उफ़! ये कितना डरावना मंज़र
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो
खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो
सिर्फ़् अपने दुखों को जाने हैं
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो
सबकी आँखों में सिर्फ़ ग़ुस्सा है
और हाथों में तख़्तियाँ अब तो
बहरे-खफ़ीफ़
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ा’लुन
( 2122 1212 22/112 )
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19 comments:
sanjiv gautam ko aksar risaaloN meiN padhaa hai....
unke blog par bhi jaana hota hai....
unki gazaloN meiN aaj ke insaan ki aawaaz hameshaa numaayaN rehti hai...aaj ke daur ki talkhiyaaN aur majbooriyaaN unke ash`aar meiN khud b khud bol uth`ti haiN...
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों mein
बंद रहती हैं खिड़कियाँ अब तो
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो
खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो
ye saare aur deegar kaee sher is baat ki tasdeeq karte haiN...
meri dher-si duaaeiN Sanjiv Gautam ke liye .
बहुत ही सुंदर गजलें हैं, आभार।
------------------
जल में रह कर भी बेचारा प्यासा सा रह जाता है।
जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
है नेहायत दिल नशीँ संजीव गौतम की ग़ज़ल
गर्दिश-ए-हालात पर यह तबसेरा है बरमहल
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
कभी तो दर्ज होगी जुर्म की ....
कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ .....
अजब हैं माइने इस दौर ... कारख़ानों में
अच्छे शेर कहे हैं । यथार्थ की प्रस्तुति और भविष्य की अच्छी कल्पना है।
बंद रहती हैं खिड़कियाँ ... ग़ज़ल में आप दुष्यन्त की ओर बढ़ते दिख रहे हैं।
बधाई
तिलक राज कपूर
jajawaab rachnayen, aur janm din par dheron shubhkaamnayen,
सतपाल ख्याल साहब आदाब,
सबसे पहले आपका शुक्रिया, दिल को छूने वाली ग़ज़लें पढ़वाने के लिये..
और गौतम साहब,
आपके इस शेर को बार बार दाद दी जानी चाहिये-
कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की
परिंदों का यकीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में
दोनों ग़ज़लें बहुत अच्छी शायरी का दस्तावेज़ हैं,
मुबारकबाद
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बहुत खूब सुन्दर रचना
बहुत -२ धन्यवाद
बहुत बढ़िया ग़ज़लें.
मैं आपको फोन कर पूछने ही वाला था सतपाल भाई कि कहाँ गुमशुदा हो गये...और ये भी सोच रहा था कि संजीव जी की ग़ज़लें कब आयेंगी इस पन्ने पर।
बेहतरीन ग़ज़लें दोनों की दोनों। कमाल के अशआर चाहे वो "परिंदो का यकीं.." वाला हो या फिर "हमारा भी कभी तो जिक्र होगा..." हो या फिर "सिर्फ अपने दुखों को जाने हैं/ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो"। लाजवाब।
दूसरी ग़ज़ल के दूसरे शेर का मिस्रा-उला शायद गलत टाइप हो गया है सतपाल भाई। मेरे ख्याल से "दोस्ती कर ली" या "दोस्ती ले ली" होगा यहाँ पर।
मुफलिस जी ने तो सब कह ही दिया है .
भले ही समय है बाकी ........
असर होने लगा है.................
स्वर्गीय दुष्यंत जी की याद दिलाती ग़ज़लें .
बधाई !
Behtreen gazalen hain dono...
bahut khoob.. gautam ji..
अजब हैं माइने इस दौर की गूँगी तरक़्क़ी के
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में
wah wah..
क्या बेहतरीन शेर हैं........हर एक शेर अपने आप में मुकम्मल होने की दास्ताँ कहता है....संजीव जी को उनकी ग़ज़लों के लिए बस यही कहूँगा...."नज़र न लगे".
दोनों ग़ज़लें अच्छी हैं। अशआर में ताज़गी है।
कभी तो दर्ज़ होगी जुर्म की तहरीर थानों में
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में
देवमणि पाण्डेय
कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में
****
हमने दुनिया से दोस्ती कर ली
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो
उफ़! ये कितना डरावना मंज़र
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो
देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ...बेहतरीन ग़ज़लें पढ्वाईं आपने संजीव जी की. ग़ज़ल का हर शेर दमदार है...उन्हें पढना हमेशा ही सुकून देता है वो युवा हैं और उनकी सोच में ताजगी है. आपका तहे दिल से शुक्रिया जो आप हमें ऐसे बेहतरीन शायरों की ग़ज़लें पढने का मौका देते हैं.
नीरज
बहुत सुन्दर और दमदार लिखते हैं संजीव गौतमजी !
बहुत- बहुत बधाइयां !
धन्यवाद भाटियाजी !
इसी बहर पर एक शेर मुलाहिजा फरमाएं :
कभी तोड़ा कभी छोड़ा कभी छेड़ा बहानों में
मेरा दिल तो हमेशा ही रहा उनके निशानों में
जोगेश्वर गर्ग
कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में
खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो
बहुत दिनो बाद संजीव जी को पढा है दोनो गज़लें लाजवाब हैं तो आज कल छुटियां गज़ल लिख कर बिता रहे हैं । शुभकामनायें और इन सुन्दर गज़लों के लिये बधाई
हमने दुनिया से दोस्ती कर ली
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो
behatareen
bahut-bahut shukriyaa sabhee sammanit sudhijanon ka is hausalaa aafjaaee ke liye. computer kharab hone ke karan vilamb se upasthit hoon. iske liye maafee chahataa hoon.
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