Sunday, March 15, 2009

तरही ग़ज़लें

द्विज जी के परामर्शानुसार हम आज की ग़ज़ल पर तरही ग़ज़लों का प्रकाशन करेंगे. महीने मे एक बार तरही ग़ज़लें प्रकाशित की जायेंगी. इसमें नये और स्थापित सभी शायर हिस्सा लेंगे. इस बार हम ने दा़ग़ के शागिर्द नसीम का ये मिसरा चुना है. आप ग़ज़ल कहें और ज़ल्द भेजें.

कभी इन्कार चुटकी में , कभी इक़रार चुटकी में.

काफ़िया : इनकार
रदीफ़ : चुटकी में
और बहर : हज़ज
मुफ़ाईलुन X 4
1222 1222 1222 1222

आप अपनी ग़ज़लें २० दिन के अंदर हमें भेजें लेकिन आप अपनी सहमती ज़रूर भेज दें कि आप भाग ले रहे हैं या नहीं.हर कोई ग़ज़ल भेज सकता है बशर्ते कि बहर-वज़्न सही हो. हर तरह से सही ग़ज़लें ही प्रकाशित की जायेंगी.

सादर
ख्याल
satpalg.bhatia@gmail.com

Tuesday, March 10, 2009

होली विशेष







दिल की टहनी पे पत्तियों जैसी
शायरी बहती नद्दियों जैसी
(द्विज)

द्विज जी के इस शे’र के साथ इस होली विशेष अंक का आगा़ज़ करते हैं.आज की ग़ज़ल के सभी पाठकों को हमारी तरफ़ से होली मुबारक और सभी शायरों का धन्यवाद जिन्होंने अपना कलाम हमे भेजा.आज हम बर्क़ी साहेब के पिता स्व:श्री रहमत इलाही बर्क़ आज़मी के कलाम से शुरूआत करेंगे.लेकिन पहले देखते हैं होली के बारे मे मीर ने क्या कहा है:

आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई

अब देखिए नज़ीर क्या कहते हैं:

गुलजार खिले हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग की छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
तब देख नजारे होली के।


रहमत इलाही बर्क़ आज़मी











पहन के आया है फूलों का हार होली में
वह रशक-ए गुल है मुजस्सम बहार होली में

कली कली पे है दूना निखार होली में
चमन चमन है बना लालहज़ार होली मे

बसा है बास से फूलों की गुलशन-ए- आलम
नसीम फिरती है मसतानहवार होली में

तमाम अहल-ए-चमन के दिलों को मोह लिया
उरूस-ए-सब्ज़ह ने कर के सिंगार होली में

महक रहा है रयाज़-ए- जहाँ का हर गोशा
फज़ा-ए- दह्र है सब मुशकबार होली में

ज़मान-ए-भर में मुसर्रत की लह्र दौड गई
रहा न कोई कहीँ सोगवार होली में

ग़मो अलम का निशाँ तक न रह गया बाक़ी
ख़ुशी से सबने किया सब को प्यार होली में

यह धूम धाम है क्यों आ तुझे बताऊँ मै
कि तू हो जिसके सबब होशियार होली में

जले न भक्त प्रहलाद जल गई होलिका
खुदा रसीदह से पाया न पार होली में

वह अपने भक्तों की करता है इस तरह रक्षा
अयाँ है क़ुदरत-ए- परवरदिगार होली में

भरा था नशश्ए नख़वत से जो हिरणकश्यप
हुआ बहुत ही ज़लील और ख़्वार होली में

हमारे पेशे नज़र ह वही समां अब तक
मना रहे हैँ वही यादगार होली में

ख़शी बजा है मगर ऐ मेरे अज़ीज़ न खा
फरेबे हस्तिए नापायदार होली में

पछाड हिर्स को मर्दानगी है गर तुझमें
ग़ुरूर-ए-नफ्स को तू अपने मार होली में

बुराइयों को मिटाने का अहद कर इस दिन
सुधर ख़ुद और जहां को सुधार होली में

सुना उन्हेँ जो हैं फिसको फुजूर के आदी
कलाम-ए- बर्क़-ए हक़ीक़तनेगार होली में













देवी नांगरानी जी ने भी गुलाल भेजा है.

ग़ज़ल

झूमकर नाचकर गीत गाओ
सात रंगों से जीवन सजाओ

पर्व पावन है होली का आया
भाईचारे से इसको मनाओ

हर तरफ़ शबनमी नूर छलके
आसमाँ को ज़मीं पर ले आओ

लाल, पीले, हरे, नीले चहरे
प्यार का रंग उनमें मिलाओ

देवी चहरे हैं रौशन सभी के
दीप विश्वास के सब जलाओ


देव मणि पांडेय जी :

दूर दूर तक खिली हुई है ख़ुशियों की रंगोली ,
आप सभी को बहुत मुबारक बहुत मुबारक होली


प्राण शर्मा जी भी परदेस से आए हैं:

इक-दूजे को क्यों न लुभाएँ प्यारी-प्यारी होली में
सब नाचें ,झूमें मुस्काएं प्यारी- प्यारी होली में

अपना- अपना मन बहलायें प्यारी-प्यारी होली में
बच्चे- बूढे हँसे --हंसाएं प्यारी -प्यारी होली में

ऐसा शोख नज़ारा या रब ज़न्नत में भी कहाँ होगा
रंगों के घन उड़ते जाएँ प्यारी- प्यारी होली में

प्यारी-प्यारी होली है तो प्यारी- प्यारी रहने दो
लोगों के मन खिल-खिल जाएँ प्यारी-प्यारी होली में

लाल ,गुलाबी,नीले,पीले चेहरों के क्या कहने हैं
सब के सब ही "प्राण" सुहाएँ प्यारी- प्यारी होली में

चंद्रभान भारद्वाज जी की ग़ज़लें .

1.

आओ तो आना होली पर;
देते सब ताना होली पर।

तन की आग विरह की पीड़ा,
क्या होती जाना होली पर।

मन का भेद मर्म आंखों का,
हमने पहचाना होली पर।

पढ़ पढ़ पाती मन बहलाया,
मुश्किल बहलाना होली पर।

झूठे निकले अब तक वादे,
अब मत झुठलाना होली पर।

लिक्खा है भविष्य फल में भी,
प्रिय का सुख पाना होली पर।

तुम होगे तो हो जायेगा ,
आंगन बरसाना होली पर।

(2)

आई सुघड़ सहेली होली,
बनकर एक पहेली होली।

रंग गुलाल इत्र के बदले,
माँगे आज हथेली होली।

छप्पन भोगों को तज आई,
खाने गुड़ की ढेली होली।

हम तो छप्पर के कच्चे घर,
शेखावटी हवेली होली।

खुद गहरे रंगों में डूबी,
मुझ को देख अकेली होली।

पूरी उम्र लड़े यादों से,
कर दो दिन अठखॅली होली।

तन बरसाना मन वृन्दावन,
भीगी नारि नवॅली होली।


जगदीश रावतानी

भीगे तन -मन और चोली
हिंदू मुस्लिम सब की होली.

छोड़ भाषा मज़हबी ये
बोलें हम रंगों की बोली.

चल पड़ें हम साथ मिलकर
जैसे दीवानों की टोली.


तू क्यों होती लाल पीली
ये है होली ये है होली

तू भी रंग जा ऐसे जैसे
मीरा थी कान्हा की हो ली

पुर्णिमा बर्मन जी ने भी गुलाल भेजा है:

हवा-हवा केसर उड़ा टेसू बरसा देह
बातों मे किलकारियाँ मन मे मीठा नेह

शहर रंग से भर गया चेहरों पर उल्लास
गली-गली मे टोलियाँ बांटें हास-उलास

योगेन्द्र मौदगिल जी की झूमती ग़ज़ल

झूम रहा संसार, फाग की मस्ती में.
रंगों की बौछार, फाग की मस्ती में.

सारे लंबरदार, फाग की मस्ती में.
बूढ़े-बच्चे-नार, फाग की मस्ती में.

गले मिले जुम्मन चाचा, हरिया काका,
भूले मन की खार फाग की मस्ती में.

जाने कैसी भांग पिला दी साली ने,
बीवी दिखती चार, फाग की मस्ती में.


आंगन में उट्ठी जो बातों-बातों में,
तोड़ें वो दीवार, फाग की मस्ती में.

चाचा चरतु चिलम चढ़ा कर चांद चढ़े,
चाची भी तैयार, फाग की मस्ती में.

इतनी चमचम, इतनी गुझिया खा डाली,
हुए पेट बेकार फाग की मस्ती में.

काली करतूतों को बक्से में धर कर,
गली में आजा यार फाग की मस्ती में.

ननदों ने भी पकड़, भाभी के भैय्या को,
दी पिचकारी मार, फाग की मस्ती में.

कईं तिलंगे खड़े चौंक में भांप रहे,
पायल की झंकार, फाग की मस्ती में.

गुब्बारे दर गुब्बारे दर गुब्बारे.......
हाय हाय सित्कार, फाग की मस्ती में.

होली है अनुबंधों की, प्रतिबंध नहीं,
सब का बेड़ा पार, फाग की मस्ती में.

चिड़िया ने भी चिड़े को फ्लाइंग-किस मारी,
दोनों पंख पसार फाग की मस्ती में.

कीचड़ रक्खें दूर 'मौदगिल' रंगों से,
भली करे करतार, फाग की मस्ती में.


नवनीत जी :

लाल, भगवा, या हरा, नीला कहो, सबके सब कबके सियासी हो गए
जो बचें हैं रंग अब बाजार में आओ उनके साथ होली खेल लें।

चाँद शुक्ला जी की ग़ज़ल

ग़ज़ल

रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके
बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके

आँख का कजरा बह जाता है रोते-रोते
खाली नैनों संग करे क्या गोरी जी के

फूलों से दिल को जितने भी घाव मिले हैं
रफ़ू किया है काँटों की सुई से सी के

सब कुछ होते हुए तक़ल्लुफ़ मत करना तुम
हम तो अपने घर ही से आए हैं पी के

तेरी माँग के ''चाँद'' सितारे रहें सलामत
जलते रहें चिराग़ तुम्हारे घर में घी के


डा अहमद अली बर्क़ी

आई होली ख़ुशी का ले के पयाम
आप सब दोस्तों को मेरा सलाम

सब हैँ सरशार कैफो मस्ती मेँ
आज की है बहुत हसीँ यह शाम

सब रहें ख़ुश यूँ ही दुआ है मेरी
हर कोई दूसरोँ के आए काम

भाईचारे की हो फ़जा़ ऐसी
बादा-ए इश्क़ का पिएँ सब जाम

हो न तफरीक़ कोई मज़हब की
जश्न की यह फ़ज़ा हो हर सू आम

अम्न और शान्ती का हो माहोल
जंग का कोई भी न ले अब नाम


रंग मे अब पडे न कोई भंग
सब करें एक दूसरे को सलाम

रहें मिल जुल के लोग आपस में
मेरा अहमद अली यही है पयाम








द्विजेन्द्र द्विज

पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
मन-पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार

पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार









मेरी एक ग़ज़ल आप सब के लिए:

बात छोटी सी है पर हम आज तक समझे नही
दिल के कहने पर कभी भी फ़ैसले करते नहीं

सुर्ख़ रुख़्सारों पे हमने जब लगाया था गुलाल
दौड़कर छत्त पे चले जाना तेरा भूले नहीं

हार कुंडल , लाल बिंदिया , लाल जोड़े मे थे वो
मेरे चेहरे की सफ़ेदी वो मगर समझे नहीं

हमने क्या-क्या ख़्वाब देखे थे इसी दिन के लिए
आज जब होली है तो वो घर से ही निकले नहीं

अब के है बारूद की बू चार -सू फैली हुई
खौफ़ फैला हर जगह आसार कुछ अच्छे नहीं.

उफ़ ! लड़कपन की वो रंगीनी न तुम पूछो `ख़याल'
तितलियों के रंग अब तक हाथ से छूटे नहीं






***उरूस-ए-सब्ज़ह-सब्ज़ की दुल्हन,रयाज़-ए- जहाँ -बाग़-ए जहाँ , फज़ा-ए- दह्र -ज़माने की फ़ज़ा ,
खुदा रसीदह - जिसकी खुदा तक पहुँच हो ,नशश्ए नख़वत - ग़ुरूर का नशा ,हक़ीक़तनेगार -हक़ीकत बयान करने वाला




Monday, March 2, 2009

योगेन्द्र मौदगिल की ग़ज़लें व परिचय










योगेन्द्र मौदगिल जी अच्छे हास्य-व्यंग्य कवि एवं गज़लकार हैं। अनेक सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों व क्लबों से सम्मानित हैं आप को 2001 में गढ़गंगा शिखर सम्मान , 2002 में कलमवीर सम्मान , 2004 में करील सम्मान , 2006 में युगीन सम्मान, 2007 में उदयभानु हंस कविता सम्मान व 2007 में ही पानीपत रत्न से सम्मानित.
हरियाणा की एकमात्र काव्यपत्रिका कलमदंश का 6 वर्षों से निरन्तर प्रकाशन व संपादन। दैनिक भास्कर में 2000 में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ तरकश का लेखन। इनकी कविताओं की 6 मौलिक एवं 10 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हैं हाल ही मे इनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है और आप इसे प्राप्त कर सकते हैं.आज हम तीन ग़ज़ले आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं.


ग़ज़ल








भँवर से बच के निकलें जो उन्हें साहिल डुबोते हैं
अजूबे तेरी दुनिया में कभी ऐसे भी होते हैं

ये परदे की कलाकारी भला व्यवहार थोड़े है
जो रिश्तों को बनाते हैं वही रिश्तों को खोते हैं

वो फूलों से भी सुंदर हैं वो कलियों से भी कोमल हैं
मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं

किसी को पेट भरने तक मयस्सर भी नहीं रोटी
बहुत से लोग खा-खा कर यहां बीमार होते हैं

जिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते
बिछा कर धूप का टुकड़ा ऒढ़ अखब़ार सोते हैं

हमीं ने आसमानों को सितारों से सजाया है
हमीं धरती के सीने में बसंती बीज बोते हैं

मुहब्बत से भरी नज़रें तो मिलती हैं मुकद्दर से
बहुत से लोग नज़रों के मगर नश्तर चुभोते हैं

बहरे-हजज़ सालिम


ग़ज़ल








रफ्ता-रफ्ता जो बेकसी देखी
अपनी आंखों से खुदकुशी देखी

आप सब पर यक़ीन करते हैं
आपने खाक़ ज़िन्दगी देखी

आग लगती रही मक़ानों में
लो मसानों ने रौशनी देखी

एक अब्बू ने मूंद ली आंखें
चार बच्चों ने तीरगी देखी

उतनी ज्यादा बिगड़ गयी छोरी
जितनी अम्मां ने चौकसी देखी

बाद अर्से के छत पे आया हूं
बाद अरसे के चांदनी देखी

बहरे-खफ़ीफ़
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22



ग़ज़ल







कट गये पीपल ठिकाना पंछियों का खो गया
पहले जैसा आना जाना पंछियों का खो गया

कौन जाने कब शहर में गोलियां पत्थर चलें
मौज में उड़ना उड़ाना पंछियों का खो गया

दिन में होती हैं कथाएं रात में भी रतजगे
शोरोगुल में चहचहाना पंछियों का खो गया

शह्र में बढ़ता प्रदूषण खेत घटते देख कर
प्यार की चोंचें लड़ाना पंछियों का खो गया

कौन है जो दाद देगा अब मेरी परवाज़ को
सोच कर ये छत पे आना पंछियों का खो गया

इतनी महंगाई के दाना दाना है अब कीमती
बैठ मुण्डेरों पे खाना पंछियों का खो गया

अब कहां अमुवा की डाली अब ना गूलर ढाक हैं
मस्त हों पींगे चढ़ाना पंछियों का खो गया

बहरे-रमल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


मौदगिल जी की किताब "अंधी आँखे गीले सपने" के खूबसूरत अशआर :

* बिन बरसे कैसे जायेंगे शब्दों के घन छाए तो
आँसु भी विद्रोह करेंगे हमने गीत सुनाए तो.

* माना कि सूरज की तरह हर शाम ढलना है हमे
हर हाल मे लेकिन अभी भी और चलना है हमे.

*लहू के छींटे दरवाजे पर राम भजो
सहमे-सहमे दीवारो-दर राम भजो
.

*वो भी मुझ जैसा लगता है
शीशे मे उतरा लगता है.

*बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे
जाने कितनी उम्रें पीछे ले जाता है ध्यान मुझे.

* यादें जंगल जैसी क्यों हैं
उल्झा-उलझा सोच रहा हूँ.

*घर मे चिंता खड़ी होगयीं
बच्चियां अब बड़ी हो गयीं.

*तन-मन जुटा कमाई मे
अनबन भाई-भाई में.

*फ़ैशनों की झड़ी हो गई
मेंढकी जलपरी हो गई.

Wednesday, February 25, 2009

स्वर्गीय जनाब ’साग़र’ पालमपुरी : परिचय और ग़ज़लें












नाम : मनोहर शर्मा
जन्म :25 जनवरी, 1929
निधन : 30 अप्रैल,1996
उपनाम : ’साग़र’ पालमपुरी
जन्मस्थान : गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान मे)
साग़र साहेब बहुत अच्छे शायर थे और शायरी मे उन्होने खासा नाम भी कमाया.इनके सपुत्र श्री द्विजेन्द्र द्विज और नवनीत जी ने भी विरासत को आगे बढ़ाया .द्विज जी से तो आप सब परिचित हैं ही. आज साग़र साहेब की तीन ग़ज़लें पेश कर रहा हूँ और कुछ चुनिंदा अशआर भी आप सब कि नज़’र हैं :


ग़ज़ल १








दिल के आँगन में कोई फूल खिला है शायद
आज फिर उसने मुझे याद किया है शायद

मेरे आने का गुमाँ उसको हुआ है शायद
वो मेरी राह कहीं देख रहा है शायद

एक वो शख़्स कभी जिससे मुलाक़ात न थी
मेरे हर ख़्वाब की ताबीर बना है शायद

उसको हर चंद अँधेरों ने निगलना चाहा
बुझ न पाया वो महब्बत का दिया है शायद

जो कभी अहद—ए—जवानी में हुआ था सर ज़द
ग़म उसी जुर्म—ए—महब्बत की सज़ा है शायद

ज़ीस्त वो शब है कि काटे नहीं कटती ‘साग़र’!
है सहर दूर अभी एक बजा है शायद.

फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़'लान(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112या2122 1122 1122 22


ग़जल २







इरादे थे क्या और क्या कर चले
कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले

अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले
क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले

ये अहल—ए—सियासत का फ़र्मान है
न कोई यहाँ सर उठा कर चले

उजाले से मानूस थे इस क़दर
दीए आँधियों में जला कर चले

करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले

जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था
सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले

किसी की निगाहों के इक जाम से
इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ कर चले

ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले


बहरे-मुतका़रिब मुज़हिफ़ शक्ल:
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12


ग़ज़ल ३








हो सके तुझ से तो ऐ दोस्त! दुआ दे मुझको
तेरे काम आऊँ ये तौफ़ीक़ ख़ुदा दे मुझको

तेरी आवाज़ को सुनते ही पलट आऊँगा
हमनवा ! प्यार से इक बार सदा दे मुझको

तू ख़ता करने की फ़ितरत तो अता कर पहले
फिर जो आए तेरे जी में वो सज़ा दे मुझको

मैं हूँ सुकरात ज़ह्र दे के अक़ीदों का मुझे
ये ज़माना मेरे साक़ी से मिला दे मुझको

राख बेशक हूँ मगर मुझ में हरारत है अभी
जिसको जलने की तमन्ना हो हवा दे मुझको

रहबरी अहल—ए—ख़िरद की मुझे मंज़ूर नहीं
कोई मजनूँ हो तो मंज़िल का पता दे मुझको

तेरी आगोश में काटी है ज़िन्दगी मैंने
अब कहाँ जाऊँ? ऐ तन्हाई! बता दे मुझको

मैं अज़ल से हूँ ख़तावार—ए—महब्बत ‘साग़र’ !
ये ज़माना नया अन्दाज़—ए—ख़ता दे मुझको.


फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़'लान(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112

साग़र साहेब के कुछ चुनिंदा अशआर भी आप सब की नज़’र हैं:


खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह

सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद

रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें

दिल में यादों का धुआँ है यारो !
आग की ज़द में मकाँ है यारो !

ख़ुलूस बिकता है ईमान—ओ—सिदक़ बिकते हैं
बड़ी अजीब है दुनिया की ये दुकाँ यारो !

फ़ुर्क़त के अँधेरों से निकलने के लिये दिल का
हर गोशा हो अश्कों से मुनव्वर तो ग़ज़ल कहिये

मेरे दिल की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
झलकता है अभी तो राम का बनवास आँखों में

**तौफ़ीक़=सामर्थ्य; अक़ीदा=विश्वास, धर्म, मत, श्रद्धा; अहल—ए—खिरद=बुद्धिमान लोग ,इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ -कमज़ोर के ग़म का इलाज़

Thursday, February 19, 2009

राजेन्द्र नाथ "रहबर" - परिचय और ग़ज़लें







राजेन्द्र नाथ 'रहबर`अदब की दुनिया का एक जाना पहचाना नाम है.इन्होंने ने हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ए., ख़ालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए. (अर्थ शास्त्र) और पंजाब यूनिवर्सिटी चण्डीगढ़ से एल. एल.बी. की .इन्होने शायरी का फ़न पंजाब के उस्ताद शायर पं.'रतन` पंडोरवी से सीखा जो प्रसिद्ध शायर अमीर मीनाई के चहेते शार्गिद थे। इनकी एक नज्म़ ''तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त`` को विश्व व्यापी शोहरत नसीब हुई है। ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह इस नज्म़ को 1980 ई. से अपनी मख़्मली आवाज़ में गा रहे हैं .

प्रकाशित पुस्तकें :याद आऊंगा ,तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त,जेबे सुख़न, ..और शाम ढल गई, मल्हार , कलस ,आगो़शे-गुल ,

आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए आज हम इनकी दो ग़ज़लें पेश कर रहे हैं.


ग़ज़ल







क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही
लेकिन वो आंख थी कि बराबर झुकी रही

मेले में ये निगाह तुझे ढूँढ़ती रही
हर महजबीं से तेरा पता पूछती रही

जाते हैं नामुराद तेरे आस्तां से हम
ऐ दोस्त फिर मिलेंगे अगर ज़िंदगी रही

आंखों में तेरे हुस्न के जल्वे बसे रहे
दिल में तेरे ख़याल की बस्ती बसी रही

इक हश्र था कि दिल में मुसलसल बरपा रहा
इक आग थी कि दिल में बराबर लगी रही

मैं था, किसी की याद थी, जामे-शराब था
ये वो निशस्त थी जो सहर तक जमी रही

शामे-विदा-ए-दोस्त का आलम न पूछिये
दिल रो रहा था लब पे हंसी खेलती रही

खुल कर मिला, न जाम ही उस ने कोई लिया
'रहबर` मेरे ख़ुलूस में शायद कमी रही

बहरे-मज़ारे
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

ग़ज़ल







जिस्मो-जां घायल, परे-परवाज़ हैं टूटे हुये
हम हैं यारों एक पंछी डार से बिछुड़े हुये

आप अगर चाहें तो कुछ कांटे भी इस में डाल दें
मेरे दामन में पड़े हैं फूल मुरझाये हुये

आज उस को देख कर आंखें मुनव्वर हो गयीं
हो गई थी इक सदी जिस शख्स़ को देखे हुये

फिर नज़र आती है नालां मुझ से मेरी हर ख़ुशी
सामने से फिर कोई गुज़रा है मुंह फेरे हुये

तुम अगर छू लो तबस्सुम-रेज़ होंटों से इसे
देर ही लगती है क्या कांटे को गुल होते हुये

वस्ल की शब क्या गिरी माला तुम्हारी टूट कर
जिस क़दर मोती थे वो सब अर्श के तारे हुये

क्या जचे 'रहबर` ग़ज़ल-गोई किसी की अब हमें
हम ने उन आंखों को देखा है ग़ज़ल कहते हुये

बहरे-रमल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


पता:
राजेन्द्र नाथ 'रहबर`
1085, सराए मुहल्ला,
पठानकोट-145001
पंजाब

Saturday, February 14, 2009

विशेष पेशकश










आज सोचा कि थोड़ा रोमांटिक हो जाएँ और फिर बरबस अहमद फ़राज़ साहब कि याद आ गई और उनकी एक बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है जो आप सब से सांझा करना चाहता हूँ और फिर साइड बार मे एक ग़ज़ल मेहदी हसन साहेब की मखमली आवाज मे आप सब के लिए पेश की है उम्मीद करता हूँ कि आप को ये पेशकश पसंद आएगी.


ग़ज़ल

बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा


अबरू खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा

अल्फ़ाज़ थे के जुग्नू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा

ख़्वाबों में ख़्वाब उस के यादों में याद उस की
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ दीं
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा


कुछ ये के मुद्दतों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा

फिर यूँ हुआ के सावन आँखों में आ बसे थे
फिर यूँ हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा

अब सच कहें तो यारो हम को ख़बर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़िआ ज़रा सा

तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आश्ना सा

हम दश्त थे के दरिया हम ज़हर थे के अमृत
नाहक़ था ज़ोंउम हम को जब वो नहीं था प्यासा

हम ने भी उस को देखा कल शाम इत्तेफ़ाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो "फ़राज़" का सा

Thursday, February 5, 2009

आर.पी. शर्मा "महरिष" की तीन ग़ज़लें











श्री आर.पी. शर्मा "महरिष" का जन्म 7 मार्च 1922 ई को गोंडा में (उ.प्र.) में हुआ। अपने जीवन-सफर के 85 वर्ष पूर्ण कर चुके श्री शर्मा जी की साहित्यिक रुचि आज भी निरंतर बनी हुई है। ग़ज़ल संसार में वे "पिंगलाचार्य" की उपाधि से सम्मानित हुए हैं।

प्रकाशित पुस्तकें : हिंदी गज़ल संरचना-एक परिचय , ग़ज़ल-निर्देशिका,गज़ल-विधा ,गज़ल-लेखन कला ,व्यहवारिक छंद-शास्त्र ,नागफनियों ने सजाईं महफिलें (ग़ज़ल-संग्रह),गज़ल और गज़ल की तकनीक। पेश हैं उनकी तीन ग़ज़लें.

ग़ज़ल








नाम दुनिया में कमाना चाहिये
कारनामा कर दिखाना चाहिये

चुटकियों में कोई फ़न आता नहीं
सीखने को इक ज़माना चाहिये

जोड़कर तिनके परिदों की तरह
आशियां अपना बनाना चाहिये

तालियाँ भी बज उठेंगी ख़ुद-ब-ख़ुद
शेर कहना भी तो आना चाहिये

लफ्ज़ ‘महरिष’, हो पुराना, तो भी क्या?
इक नये मानी में लाना चाहिये.

बहरे-रमल


ग़ज़ल








सोचते ही ये अहले-सुख़न रह गये
गुनगुना कर वो भंवरे भी क्या कह गये

इस तरह भी इशारों में बातें हुई
लफ़्ज़ सारे धरे के धरे रह गये

नाख़ुदाई का दावा था जिनको बहुत
रौ में ख़ुदा अपने जज़्बात की बह गये

लब, कि ढूँढा किये क़ाफ़िये ही मगर
अश्क आये तो पूरी ग़ज़ल कह गये

'महरिष' उन कोकिलाओं के बौराए स्वर
अनकहे, अनछुए-से कथन कह गये.

चार फ़ाइलुन
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम


ग़ज़ल









नाकर्दा गुनाहों की मिली यूँ भी सज़ा है
साकी नज़र अंदाज़ हमें करके चला है

क्या होती है ये आग भी क्या जाने समंदर
कब तिश्नालबी का उसे एहसास हुआ है

उस शख़्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूट के मिलता था, तक़ल्लुफ़ से मिला है

पूछा जो मिज़ाज उसने कभी राह में रस्मन
रस्मन ही कहा मैंने कि सब उसकी दुआ है

महफ़िल में कभी जो मिरी शिरकत से ख़फ़ा था
महफ़िल में वो अब मेरे न आने से ख़फा है

क्यों उसपे जफाएँ भी न तूफान उठाएँ
जिस राह पे निकला हूँ मैं वो राहे-वफा है

पीते थे न 'महरिष, तो सभी कहते थे ज़ाहिद
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है .

बहरे-हजज़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन

22 11 22 11 22 11 22



एक बहुत महत्वपूर्ण लिंक है: यहाँ आप ग़ज़ल की बारीकियाँ सीख सकते हैं ये धारावाहिक लेख आर.पी शर्मा जी ने ही लिखा है क्लिक करें....ग़ज़ल लेखन..द्वारा आर.पी शर्मा "अभिव्यक्ति" पर .