नाम : मनोहर शर्मा
जन्म :25 जनवरी, 1929
निधन : 30 अप्रैल,1996
उपनाम : ’साग़र’ पालमपुरी
जन्मस्थान : गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान मे)
साग़र साहेब बहुत अच्छे शायर थे और शायरी मे उन्होने खासा नाम भी कमाया.इनके सपुत्र श्री द्विजेन्द्र द्विज और नवनीत जी ने भी विरासत को आगे बढ़ाया .द्विज जी से तो आप सब परिचित हैं ही. आज साग़र साहेब की तीन ग़ज़लें पेश कर रहा हूँ और कुछ चुनिंदा अशआर भी आप सब कि नज़’र हैं :
ग़ज़ल १
दिल के आँगन में कोई फूल खिला है शायद
आज फिर उसने मुझे याद किया है शायद
मेरे आने का गुमाँ उसको हुआ है शायद
वो मेरी राह कहीं देख रहा है शायद
एक वो शख़्स कभी जिससे मुलाक़ात न थी
मेरे हर ख़्वाब की ताबीर बना है शायद
उसको हर चंद अँधेरों ने निगलना चाहा
बुझ न पाया वो महब्बत का दिया है शायद
जो कभी अहद—ए—जवानी में हुआ था सर ज़द
ग़म उसी जुर्म—ए—महब्बत की सज़ा है शायद
ज़ीस्त वो शब है कि काटे नहीं कटती ‘साग़र’!
है सहर दूर अभी एक बजा है शायद.
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़'लान(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112या2122 1122 1122 22
ग़जल २
इरादे थे क्या और क्या कर चले
कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले
अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले
क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले
ये अहल—ए—सियासत का फ़र्मान है
न कोई यहाँ सर उठा कर चले
उजाले से मानूस थे इस क़दर
दीए आँधियों में जला कर चले
करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले
जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था
सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले
किसी की निगाहों के इक जाम से
इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ कर चले
ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले
बहरे-मुतका़रिब मुज़हिफ़ शक्ल:
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
ग़ज़ल ३
हो सके तुझ से तो ऐ दोस्त! दुआ दे मुझको
तेरे काम आऊँ ये तौफ़ीक़ ख़ुदा दे मुझको
तेरी आवाज़ को सुनते ही पलट आऊँगा
हमनवा ! प्यार से इक बार सदा दे मुझको
तू ख़ता करने की फ़ितरत तो अता कर पहले
फिर जो आए तेरे जी में वो सज़ा दे मुझको
मैं हूँ सुकरात ज़ह्र दे के अक़ीदों का मुझे
ये ज़माना मेरे साक़ी से मिला दे मुझको
राख बेशक हूँ मगर मुझ में हरारत है अभी
जिसको जलने की तमन्ना हो हवा दे मुझको
रहबरी अहल—ए—ख़िरद की मुझे मंज़ूर नहीं
कोई मजनूँ हो तो मंज़िल का पता दे मुझको
तेरी आगोश में काटी है ज़िन्दगी मैंने
अब कहाँ जाऊँ? ऐ तन्हाई! बता दे मुझको
मैं अज़ल से हूँ ख़तावार—ए—महब्बत ‘साग़र’ !
ये ज़माना नया अन्दाज़—ए—ख़ता दे मुझको.
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़'लान(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112
साग़र साहेब के कुछ चुनिंदा अशआर भी आप सब की नज़’र हैं:
खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह
सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें
दिल में यादों का धुआँ है यारो !
आग की ज़द में मकाँ है यारो !
ख़ुलूस बिकता है ईमान—ओ—सिदक़ बिकते हैं
बड़ी अजीब है दुनिया की ये दुकाँ यारो !
फ़ुर्क़त के अँधेरों से निकलने के लिये दिल का
हर गोशा हो अश्कों से मुनव्वर तो ग़ज़ल कहिये
मेरे दिल की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
झलकता है अभी तो राम का बनवास आँखों में
**तौफ़ीक़=सामर्थ्य; अक़ीदा=विश्वास, धर्म, मत, श्रद्धा; अहल—ए—खिरद=बुद्धिमान लोग ,इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ -कमज़ोर के ग़म का इलाज़
17 comments:
स्वर्गीय सागर पालमपुरी जी की गजलें पढ़वाने के लिए आपका आभार। जानदार रचनाएं हैं लेकिन कहीं-कहीं उर्दु के शब्द समझ नहीं आए। अच्छा होता अगर आप उनका हिंदी अनुवाद भी नीचे दे देते।
स्वर्गीय सागर पालमपुरी जी की गजलें पढ़वाने और उनसे परिचय करने के लिए आपका आभार। उनकी तीनो गजले पढ़ी एक से बढ़ कर एक.....हर ग़ज़ल को कई बार पढा और हर एक में से जो शेर मेरे मन को छु गया और जिसके अर्थ ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया उन्हें लिख रही हूँ......
उसको हर चंद अँधेरों ने निगलना चाहा
बुझ न पाया वो महब्बत का दिया है शायद
( मोहब्बत का दिया है जो बुझाये न बुझे .....क्या कहने ..)
करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले
( और यहाँ हम मंजिले ना मिलने के सो बहाने ब्यान करते है....सच कहा है जोश और जूनून से कोशिश जो करे कदम मिलाकर तो मंजिले कैसे न हासिल होती...)
राख बेशक हूँ मगर मुझ में हरारत है अभी
जिसको जलने की तमन्ना हो हवा दे मुझको
( उफ़! क्या अंदाज है इस शेर का जैसे बुझते अंगारे फ़िर से सब कुछ राख करने को बेकरार...शानदार....)
Regards
ऐसे लाजवाब शायर के लिए क्या कहें....आँखें बंद कर सजदे में सर झुकाए खड़े हैं...बस.
नीरज
उसको हर चंद अँधेरों ने निगलना चाहा
बुझ न पाया वो महब्बत का दिया है शायद
करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले
आप जो भी गज़लें ले कर आते हैं, एक से बढ़ कर एक होती हैं. इस बार तो आपने खूबसोरत शेर भी दिए हैं.
मेरे दिल की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
झलकता है अभी तो राम का बनवास आँखों में
इतनी गहराई है से बोलते हुवे लगते हैं ये शेर, सीधे दिल में उतर जाते हैं. द्विज जी की गजलों में भी उनकी चाप नज़र आती है, जीवन के गहरे अध्यन से उपजे हुवे पल नज़र आते हैं.
शुक्रिया
शायरे ख़ुश फिक्र व ख़शगुफतार साग़र को सलाम
जो थे पालमपूर की एक शख़सियत आली मोक़ाम
उनकी ग़जलोँ से नुमायाँ है शऊरे फिक्रो फन
ख़ुशनुमा गुल्दसतए अशआर है उनका कलाम
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
नई दिल्ली-110025
खयाल जी, इस शानदार प्रस्तुति के लिये सलाम..
तेरी आवाज़ को सुनते ही पलट आऊँगा
हमनवा ! प्यार से इक बार सदा दे मुझको
तेरी आगोश में काटी है ज़िन्दगी मैंने
अब कहाँ जाऊँ? ऐ तन्हाई! बता दे मुझको
Bahut hi khoob likhaa hai, mazaa aa gayaa padh kar...
वाह सतपाल जी, इस अनूठी पत्रिका का एक और नायाब तोहफ़ा।
तीनों ही गज़लें बेमिसाल हैं।
पहली गज़ल का मतला "ज़ीस्त वो शब है कि काटे नहीं कटती ‘साग़र’/है सहर दूर अभी एक बजा है शायद" तो बस पागल कर गया....
dear gautam ye she'r "ज़ीस्त वो शब है कि काटे नहीं कटती ‘साग़र’/है सहर दूर अभी एक बजा है शायद"
bakai bahut acha hai mujhe bhi bahut hi achcha lagta hai..apne aap se baat karne ka lajwab tareeqa hai.
Bhai Satpal ji Shri Palampuri ji ki itani bahtareen ghazalen padwane ke liye apko bahut bahut dhanyawad.
donon ghazalen aur sabhi ashaar kai baar pad gaya.Yah jaankar aur bhi sukhad aascharya hua ki janab palampuri ji bhai Dwij ke pitashree the.Tabhi unko yah fan virasat men mila hai jisko unhone sanwaara hi nahin hai vaaran bahut aage badaya hai.Main Janab Palampuri ji ko apni shraddhanjali arpit karata hoon.
बहुत ही अच्छा और सुन्दर ब्लोग है। दिल खुश हो गया। पर फुर्सत में शाम को आऐगे जब ही आनंद आऐगा पढ़ने का।
SAAGAR PALAMPURI JEE GAZLEN AUR
SABHEE ASHAAR PADH GAYAA HOON.HAR
SHER JAADOO JAGAATAA HAI,YE SAAGAR
JEE KAA KAMAAL HAI.AAPKAA BAHUT-
BAHUT SHUKRIYA KI AAP ACHCHHE-
ACHCHHE SHAYRON SE PARICHAY KARVA
RAHE HAIN.
सतपाल जी नमस्कार,
क्या कमाल कर दिया आपने साहब... हलाकि स्वर्गीय सागर साहब की गज़ले मैंने पढ़ी है मगर उनके अस'आर के बारे में मेरे जैसा अदना तारीफ भी क्या करे.... ढेरो बधाई साहब आपको...
अर्श
bahut sundar rahchna hai sirl.
स्वर्गीय साग़र साहेब की ग़ज़लें और सारे ही अशआर पढ़ते ही बनते हैं। मिस्रों में शब्द और भाव नगीनों की तरह जड़े हुए हैं। साग़र साहेब की ग़ज़लों का पूरा लुत्फ़ उठाना हो तो ग़ज़ल - एक प्रयास ब्लाग पर जाकर पढ़ना एक निराला ही अनुभव होगा।
saghar hissar-e-zaat se choota to yun laga
ik umrqaid kaat ke ghar aa gyaa hun main.
Khyaal sahab, Pita ji ki yaad nami ban kar aankh ki kor main rach gyee he. shukriya. Saghar Sahab Dwij Bhai aur mere Pita hi nahin, dost bhi the.
navneet sharma
saghar hissar-e-zaat se choota to yun laga
ik umrqaid kaat ke ghar aa gyaa hun main.
Khyaal sahab, Pita ji ki yaad nami ban kar aankh ki kor main rach gyee he. shukriya. Saghar Sahab Dwij Bhai aur mere Pita hi nahin, dost bhi the.
navneet sharma
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