Wednesday, January 13, 2010

कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं- महमूद अकरम













शायर होना आसान है लेकिन वली होना बहुत मुशकिल है-

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान “ग़ालिब”
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता

यूँ तो शायरी में गा़लिब का स्थान किसी औलिए से कम नहीं लेकिन ग़ालिब को महफ़िलों में गाया जाता है और कबीर को मंदिरों में। इस फ़र्क को गा़लिब समझते थे।

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय
..कबीर

पीरो-मुर्शिद, औलिये, संत,फ़कीर और वली इन्हें हम "साईं" कहकर बुलाते हैं, साईं यानि मालिक । पूज्य शिरडी के संत तो "साईं" नाम से ही जाने जाते हैं। साईं रदीफ़ पर एक बहुत सादा और तसव्वुफ़ के रंग में रंगी एक ग़ज़ल आज आपकी नज़्र कर रहा हूँ जिसके शायर हैं जनाब महमूद अकरम जो न्यू जर्सी में रहते हैं। उनकी ये ग़ज़ल दो साल पहले पढ़ी थी,आप भी मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

मेरे हक़ में कोई दुआ साईं
बे-रंग हूँ, रंग चढ़ा साईं

मैं कौन हूँ,क्या हूँ, कैसा हूँ?
मैं कुछ भी नहीं समझा साईं

मेरी रात तो थी तारीक बहुत
मेरा दिन बे-नूर हुआ साईं

था छेद प्याले के अंदर
नहीं आँख में अश्क बचा साईं

वही तश्ना-लबी, वही खस्ता-तनी
मेरा हाल नहीं बदला साईं

गुम-कर्दा राह मुसाफ़िर हूँ
मुझे कोई राह दिखा साईं

मेरे दिल में नूर ज़हूर करे
मेरे मन में दीया जला साईं

मेरी झोली में फल-फूल गिरें
कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं

मेरे तन का सहरा महक उठे
मेरी रेत में फूल उगा साईं

मुझे लफ़्ज़ों की ख़ैरात मिले
मेरा हो मज़मून जुदा साईं

मेरे दिल में तेरा दर्द रहे
हो जाए दिल दरिया साईं

कोई नहीं फ़क़ीर मेरे जैसा
कहाँ दहर में तुझ जैसा साईं

मेरी आँख में एक सितारा हो
मेरे हाथ में गुल-दस्ता साईं

तेरी जानिब बढ़ता जाऊँ मैं
और ख़त्म न हो रस्ता साईं

तेरे फूल महकते रहें सदा
तेरा जलता रहे दीया साईं

अब बात जब तसव्वुफ़ की चली है तो एक सूफ़ी कलाम सुनिए । ऐसे कलाम पर हज़ारों दीवान न्यौछावर, हज़ारों अशआर कुर्बान। इसे गाया है सूफ़ी गायक हंस राज हंस ने, जिसकी आवाज़ सुनते ही फ़क़ीरों की सोहबत का सा अहसास होता है-

Friday, January 8, 2010

डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़लें















1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.

"आज की ग़ज़ल" के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इनकी 4 ग़ज़लें

एक

दूर के चर्चे न कर तू पास ही की बात कर
अपना घर तू देख पहले फिर किसी की बात कर

आ बता देता हूँ मैं,क्या चीज़ है ज़िंदादिली
मौत के साये तले तू ज़िंदगी की बात कर

तू ख़ुदा को पा चुका है मान लेता हूँ मगर
मैं तो ठहरा आदमी तू आदमी की बात कर

गुम न कर इन मंदिरों और मस्जिदों में तू वजूद
इन अँधेरों से निकलकर रौशनी की बात कर

ख़ुद-ब-ख़ुद लगने लगेगा ख़ुशनुमा तुझको जहान
हो पराई या कि अपनी तू ख़ुशी की बात कर

ताज का पत्थर नहीं तू रंग फीका क्यों पड़े
बात उल्फ़त की चले तो मुफ़लिसी की बात कर

जब कभी भी बात अपनी हो तुझे करनी ‘मधुर’
दश्त में चलते हुए इक अजनबी की बात कर

बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल):
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


दो

इक बार क्या मिले हैं किसी रोशनी से हम
फिर माँगते चिराग़ रहे ज़िन्दगी से हम

कुछ है कि निभ रहे हैं अभी ज़िन्दगी से हम
वर्ना क़रीब मौत के तो हैं कभी से हम

क़तरे तमाम धूप के पीता रहा बदन
तब रू-ब-रू हुए हैं कहीं चाँदनी से हम

जो रुख़ बदलने के लिए कोई वजह नहीं
कह दो कि पेश आ रहे हैं बेरुख़ी से हम

बस रंज है तो है यही ,हैं सब को जानते
कह सकते भी नहीं हैं मगर ये किसी से हम

बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ शक़्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

तीन

सियासत की जो भी ज़बाँ जानता है
बदलना वो अपना बयाँ जानता है

है ग़र्ज़ अपनी-अपनी ही पहचान सबकी
कि कोई किसी को कहाँ जानता है

हैं अंगार लब और लफ़्ज़ उसके शोले
महब्बत की जो दास्ताँ जानता है

दिलों की है बस्ती फ़क़त अपनी मस्ती
जहाँ के ठिकाने जहाँ जानता है

चलो हम ज़मीं के करें ख़्वाब पूरे
हक़ीक़त तो बस आसमाँ जानता है

मुत़कारिब-चार फ़ऊलुन (122x4)
मसम्मन सालिम

चार

ख़ता है वफ़ा तो सज़ा दीजिए
वगर्ना वफ़ा को वफ़ा दीजिए

नहीं आपको भूल सकता कभी
किसी और को ये सज़ा दीजिए

मुसाफ़िर हूँ मैं आप मंज़िल मेरी
कोई रास्ता तो दिखा दीजिए

है अब जीना-मरना लिए आपके
जो भी फ़ैसला है सुना दीजिए

लिखे हर्फ़ दिल पे मिटेंगे नहीं
मेरे ख़त भले ही जला दीजिए

सताए हुए दिल के सपने-सा हूँ
निगाहों से अपनी शफ़ा दीजिए

बहरे-मुतका़रिब( मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12

संपर्क-
दूरभाष:01892-265558,
मोबाइल :9816275575

Wednesday, January 6, 2010

एक ज़मीन में दो शायर












एक ज़मीन में दो शायरों की बराबर के मेयार की ग़ज़लें बड़ी मुशकिल से मिलती हैं। ये दोनों ग़ज़लें एक ही ज़मीन में हैं लेकिन दोनों बेमिसाल और लाजवाब हैं। पढ़िए, सुनिए और लुत्फ़ लीजिए-

पहली ग़ज़ल जनाब- अहमद नदीम कासमी की -

ग़ज़ल

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा

तेरे पहलू से जो उट्ठूंगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा जिधर जाऊँगा

अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

तेरा पैमाने-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा

अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा

ज़िन्दगी शमअ‌ की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा

और दूसरी ग़ज़ल है जनाब मुईन नज़र की -

इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊँगा
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा

हर तरफ़ धुँध है, जुगनू , न चरागां कोई
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा

फूल रह जाएंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मैं तो ख़ुशबू हूँ फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा

पूछकर मेरा पता वक़्त राएगाँ न करो
मैं तो बंजारा हूँ क्या जाने किधर जाऊँगा

ज़िंदगी मैं भी मुसाफ़िर हूँ तेरी कश्ती का
तू जहाँ मुझसे कहेगी मैं उतर जाऊँगा

दोनों ग़ज़लें रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल में हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112


अब सुनिए गु़लाम अली की आवाज़ में मुईन नज़र की ये खूबसूरत ग़ज़ल-

Saturday, January 2, 2010

स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी - परिचय और ग़ज़लें
















(3 अप्रैल, 1915 -11 दिसम्बर, 1982)

स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी ‘चाँद’ कुल्लुवी हिमाचल के आसमाने-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे. आप हिमाचल के नग्गर (कुल्लू) गाँव से थे. इनका कलाम बीसवीं सदी, शमअ और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था.कुल-हिन्द और हिन्द -पाक मुशायरों में भी इनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था. आपने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था. प्रस्तुत ग़ज़लें उनके मरणोपरान्त हिमाचल भाषा एवं कला संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित संकलन ‘वजूद-ओ-अदम’से ली गई हैं . आज की ग़ज़ल के लिए इनका उर्दू से लिप्यान्तरण ‘द्विज’ जी ने किया है.

‘चाँद’ कुल्लुवी साहब की तीन ग़ज़लें-

एक

हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख
दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख

रख तू किसी के दर पे जबीं अपनी या न रख
दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख

अफ़सोस हमनवाई के मआनी बदल गए
मैंने कहा था साथ कोई हमनवा न रख

मंज़िल ही उसकी आह की आतिश से जल न जाए
हमराह कारवाँ के कोई दिलजला न रख

घर अपना जानकर हैं मकीं तेरे दिल में हम
हम ग़ैर तो नहीं हैं हमें ग़ैर-सा न रख

होता तो होगा ज़िक्र मेरा भी बहार में
मुझसे छुपा के बात कोई ऐ सबा न रख

आवाज़ दे कहीं से तू ऐ मंज़िले-मुराद
इन दिलजलों को और सफ़र-आशना न रख

वुसअत में इसकी कोनो-मकाँ को समेट ले
महदूद अपने ख़ाना-ए-दिल की फ़िज़ा न रख

अच्छा है साथ-साथ चले ज़िंदगी के तू
ऐ ख़ुदफ़रेब इससे कोई फ़ासला न रख

राहे-वफ़ा में तेरी भी मजबूरियाँ सही
इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख

रौशन हो जिसकी राहे-अदम तेरी याद में
उस ख़स्ता-तन की क़ब्र पे जलता दिया न रख

ऐ चाँद आरज़ूओं की तकमील हो चुकी
रुख़सत के वक़्त दिल में कोई मुद्दआ न रख

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212

दो

ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा
कहीं निज़ाम में कोई फ़तूर है बाबा

जो सो रहा है लिपट कर अना के दामन से
जगा के देख ये मेरा शऊर है बाबा

घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ
न जाने प्यास में कैसा सरूर है बाबा

भरी बहार में बैठे हैं हम अलम-व किनार
ज़रा बता कि ये किसका क़सूर है बाबा

तेरी निगाह में जो एक जल्वा देख लिया
मेरे लिए वही असरारे-तूर है बाबा

मये-निशात में देखा है झूमकर बरसों
मये-अलम में भी अब तो सरूर है बाबा

गुमान सुबहे-बदन है यक़ीन शामे-नज़र
ढला हुआ तेरे सांचे में नूर है बाबा

कभी कोई तो उसे जोड़ पाएगा शायद
अभी तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर है बाबा

नमूदे-नौ में तेरे ही तस्व्वुराते-हसीं
तेरा ख़याल बिना-ए-शऊर है बाबा

मेरा वजूद तेरे शौक़ का नतीजा है
इसी लिए तो ये साए से दूर है बाबा

छुपा-छुपा के मैं रक्खूँ कहाँ इसे ऐ ‘चाँद’
मताए-ज़ीस्त ये तेरे हुज़ूर है बाबा

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/112

तीन

फ़रेबे-ज़िंदगी है और मैं हूँ
बला की बेबसी है और मैं हूँ

वही संजीदगी है और मैं हूँ
वही शोरीदगी है और मैं हूँ

जहाँ मैं हूँ वहाँ कोई नहीं है
मेरी आवारगी है और मैं हूँ

बढ़ा जाता हूँ ख़ुद राहे-अदम पर
तुम्हारी रौशनी है और मैं हूँ

जनाज़ा उठ चुका है दिलबरी का
शिकस्ते-आशिक़ी है और मैं हूँ

तमाशाई हूँ अपनी हसरतों का
किसी की बेरुख़ी है और मैं हूँ

निगाहों में उधर बेबाकियाँ हैं
इधर शर्मिंदगी है और मैं हूँ

वहाँ ढूँढो मुझे ऐ ‘चाँद’ जाकर
जहाँ बस आगही है और मैं हूँ

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.

Friday, January 1, 2010

नव वर्ष पर-विशेष










ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

द्विज जी के इस शे’र के साथ इस साल की अंतिम पोस्ट आपकी नज़्र है। वसीम बरेलवी की एक ग़ज़ल आज पहली बार "आज की ग़ज़ल" पर छाया कर रहा हूँ, ग़ज़ल से पहले दो शे’र वसीम बरेलवी के-

न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है

गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है

अब ये ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-

कौन सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है

जैसा चाहा था तुझे देख न पाये दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है

एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंटों से हँसी जाती है

कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है

अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है

पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है

रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल -
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112

निदा फ़ाज़ली की इस दुआ के साथ-
"चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला"
इस साल को विदा कहते हैं और आने वाले साल का स्वागत करते हैं । जगजीत की मख़मली आवाज़ में इसे सुनिए-



Jagjit Singh - Garaj Baras Pyasi .mp3
Found at bee mp3 search engine


Wednesday, December 23, 2009

कृश्न कुमार 'तूर' साहिब की दो ग़ज़लें

















11 अक्तूबर 1933 को जन्मे जनाब—ए—कृश्न कुमार 'तूर' साहब ने उर्दू , अँग्रेज़ी और इतिहास जैसे तीन विषयों में एम.ए. किया है.आप हिमाचल प्रदेश के टूरिज़म विभाग में उच्च अधिकारी रह चुके हैं.आपका का क़लाम उर्दू जगत में प्रकाशित होने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में बड़े आदर से छपता है.भारत में आयोजित तमाम कुल—हिन्द और हिन्द—पाक मुशायरों में इन्हें बड़े अदब से सुना जाता है.
इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं - आलम ऐन ; मुश्क—मुनव्वर; शेर शगुफ़्त ; रफ़्ता रम्ज़ ; सरनामा—ए—गुमाँ नज़री .'तूर' साहब अर्से से उर्दू में प्रकाशित सर सब्ज़ पत्रिका के सम्पादक हैं.पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-

एक

मैं मंज़र हूँ *पस मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत
आख़िर मेरी पेशानी पे सूरज चमका बहुत

जाने कौन से *इस्मे-अना के हम *ज़िन्दानी थे
तेरे नाम को लेकर हमने ख़ुद को चाहा बहुत

उनसे क्या रिश्ता था वो क्या मेरे लगते थे
गिरने लगे जब पेड़ से पत्ते तो मैं रोया बहुत

कैसी *मसाफ़त सामने थी और सफ़र था कैसा लहू
मैंने उसको उसने मुझको मुड़ के देखा बहुत

है दरिया के *लम्स पे नाज़ाँ इक काग़ज़ की नाव
सूरज से बातें करता है एक दरीचा बहुत

सारी उम्र किसी की ख़ातिर सूली पे लटका
शायद 'तूर' मेरे अन्दर इक शख़्स था ज़िन्दा बहुत

(6फ़ेलुन+1फ़े)
पस मंज़र=पृष्ठभूमि,*इस्मे-अना -अहम का नाम,ज़िन्दानी -कै़दी,मसाफ़त-सफ़र की दूरी,लम्स-स्पर्श

दो

अब सामने लाएँ आईना क्या
हम ख़ुद को दिखाएँ आईना क्या

ये दिल है इसे तो टूटना था
दुनिया से बचाएँ आईना क्या

इस में जो अक्स है ख़बर है
अब देखें दिखाएँ आईना क्या

क्या *दहर को *इज़ने-आगही दें
पत्थर को दिखाएँ आईना क्या

उस *रश्क़े-क़मर से वस्ल रक्खें
पहलू में सुलाएँ आईना क्या

हम भी तो मिसाले-आईना हैं
अब ‘तूर’ हटाएँ आईना क्या

रश्क़े-क़मर - चाँद से हसीन,*दहर -दुनिया,इज़्न-इजाज़त,आगही-जानकारी

बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
222 212 122 या 2211 212 122

तीन

तेरे फ़िराक़ में जितनी भी अश्कबारी की
मिसाले-ताज़ा रही वो दिले-हज़ारी की

था कुछ ज़माने का बर्ताव भी *सितम आमेज़
थी लौ भी तेज़ कुछ अपनी अना-ख़ुमारी की

ये किसके नाम का अब गूँजता है अनहदनाद
ये कौन जिसने मेरे दिल पे मीनाकारी की

कभी-कभी ही हुई मेरी फ़स्ले-जाँ सर सब्ज़
कभी कभी ही मेरे इश्क़ ने पुकारी की

अगर वो सामने आए तो उससे पूछूँ मैं
ये किस की फ़र्दे-अमल मेरे नाम जारी की

सदा-ए-दर्द पड़ी भी तो बहरे कानों में
हमारे दिल ने अगर्चे बहुत पुकारी की

जो हम ज़माने में बरबाद हो गए हैं तो क्या
सज़ा तो मिलनी थी आख़िर ख़ुद अख़्तियारी की

जिसे न पासे महब्बत न दोस्ती का लिहाज़
ये ‘तूर’ तुमने भी किस बेवफ़ा से यारी की

*सितम आमेज़- जुल्म से भरा हुआ,अना-ख़ुमारी -अहम का नशा, अश्कबारी-आँसुओं की बरसात

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
सम्पर्क:134—E,Khaniyara Road,
Dharmshala—176215 (Himachal Pradesh)
फोन: 01892—222932 ; मोबाइल: 098160—20854

Saturday, December 19, 2009

संजीव गौतम की दो ग़ज़लें
















इस बार कुछ देरी से ये पोस्ट लगा रहा हूँ लेकिन अब कोशिश करूँगा कि आपको अच्छी ग़ज़लें पढ़वाता रहूँ। इस बार 1973 में जन्में संजीव गौतम की दो ग़ज़लें हाज़िर कर रहा हूँ। इन्होंने हिंदी मे एम.ए. की है और पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर छपते रहते हैं। आशा है कि आपको ग़ज़लें पसंद आयेंगी।

ग़ज़ल

कभी तो दर्ज़ होगी जुर्म की तहरीर थानों में
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में

कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की
परिंदों का यक़ीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में

अजब हैं माअनी इस दौर की गूँगी तरक़्क़ी के
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में

कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में

भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में

नज़र-अंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में

(बहरे-हज़ज सालिम)
मुफ़ाईलुनx4


ग़ज़ल

बंद रहती हैं खिड़कियाँ अब तो
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो

हमने दुनिया से दोस्ती कर ली
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो

उफ़! ये कितना डरावना मंज़र
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो

खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो

सिर्फ़् अपने दुखों को जाने हैं
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो

सबकी आँखों में सिर्फ़ ग़ुस्सा है
और हाथों में तख़्तियाँ अब तो

बहरे-खफ़ीफ़
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ा’लुन
( 2122 1212 22/112 )