Thursday, May 27, 2010
अंतिम क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
इस तरही मुशायरे में तक़रीबन ३० शायर-शाइराओं ने हिस्सा लिया। मिला-जुला सा अनुभव रहा । देश-विदेश से ३० शायर एक जगह आकर इकट्ठा हों वो भी लगभग मुफ़्त में ,बताओ और क्या चाहिए। कुछ कच्चे-पक्के शे’र, नये-पुराने शायरों ने सबके सामने रखे हैं। अनुभव और प्रयास का अनूठा संगम था ये मुशायरा और अब अंतिम क़िस्त में लीजिए पहले आदरणीय श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो और सुंदर शे’रों के साथ इस बेहद खूबसूरत शे’र को भी अपने दामन में समेटे हुए है-
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
द्विजेन्द्र द्विज
जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी
यह तेरा रनिवास रे जोगी
जप-तप का उपहास रे जोगी
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी
बीच भँवर में जैसे किश्ती
जीवन का हर श्वास रे जोगी
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
मन-मंदिर में हों जब साजन
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
साथ मिलन के क्यों रहता है
बिरहा का आभास रे जोगी
बुझ पाई है बूँदों से कब
यह मरुथल की प्यास रे जोगी
क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन
मर जाए जब आस रे जोगी
मैं अपना प्रयास भी आप सब के सामने रख रहा हूँ और डर भी रहा हूँ कि लोग कहेंगे दूसरों के शे’र तो काट देता है लेकिन अपने नहीं देखता । ये मेरा सौभाग्य है कि द्विज जी के साथ मेरी ग़ज़ल शाया हुई है। खै़र ! मुलाहिज़ा कीजिए-
सतपाल ख़याल
आए लबों पर श्वास रे जोगी
छूटा कारावास रे जोगी
दशरथ सी लाचार है नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
शाखों से रूठे हैं पत्ते
किसको किसका पास रे जोगी
रिशतों के पुल टूट चुके हैं
दूर वसो या पास रे जोगी
बस जी का जंजाल है दुनिया
अच्छा है सन्यास रे जोगी
नील , सफ़ैद और भगवा काले
सब रंग उसके दास रे जोगी
दुख-संताप, पाप के जंगल
जीवन भर बनवास रे जोगी
मुँह में राम बगल में बरछी
किसका अब विश्वास रे जोगी
राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी
दुनिया में हर चीज़ की जड़ मन में ही रहती है चाहे वो सन्यास हो या फिर दुनियादारी। मन से ही आदमी जोगी या भोगी होता और इस मन को तो संत और महापुरुष भी खोजते रहे लेकिन इसका कोई सिरा शायद ही किसी के हाथ लगा हो। योग भगवा , सफ़ेद या नीले कपड़े पहनने से नहीं मिलता योग तो मन को जीत कर ही मिलता है। इस मुशायरे का अंत मैं इस शब्द के साथ करना चाहता हूँ जो सुनने लायक है। शायरी और वाणी में यही फ़र्क़ है । वाणी गुरओं और संतो के मुख से निकलती है और संत अपनी कथनी-करनी के पक्के होते हैं लेकिन शायर तो हम जैसे ही होते हैं। सरवण करो ये शब्द-
इस मन को कोई खोजो भाई
तन छूटे मन कहाँ समाई
हिस्सा लेने वाले तमाम शायरों का और पाठकों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। कोई ग़लती हो तो मुआफ़ी चाहता हूँ। मैं सब शायरों से ये अनुरोध करता हूँ कि वो अपने अनुभव हमसे बाँटें और इस समापन पर अपनी हाज़री ज़रूर दें ।
Wednesday, May 26, 2010
अंतिम क़िस्त से पहले दो तरही ग़ज़लें और
कल शाम तक अंतिम क़िस्त शाया हो जायेगी लेकिन अंतिम क़िस्त से पहले ये दो ग़ज़लें और मुलाहिज़ा कीजिए-
पूर्णिमा वर्मन
सब कुछ तेरे पास रे जोगी
काहे आज उदास रे जोगी
मुशकिल रहना देस बेगाने
अपना पर अभ्यास रे जोगी
खाना, पानी, गीत बेगाने
अपनी मगर मिठास रे जोगी
दूर नगर में बसना है तो
रख उसका विश्वास रे जोगी
कान में कुंडल, हाथ में माला
कौन चला बनवास रे जोगी
संजीव सलिल
कौन चला बनवास रे जोगी
खु़द पर कर विश्वास रे जोगी
भू-मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी
फ़िक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
माली बाग़ और तितली भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों आज उदास रे जोगी.
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
Tuesday, May 25, 2010
आठवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
इस क़िस्त कि शुरूआत इस ग़ज़ल से कर रहे हैं ,जिसमें जगजीत सिंह ने जोगी शब्द को अलग-अलग अंदाज़ में पेश किया है। ठीक वैसे ही जैसे शायरों ने इस मुशायरे में जोगी को नचाया।
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
सातवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर" के इस खूबसूरत शे’र के साथ -
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
और माहक साहब के इस फ़लसफ़े-
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
-के साथ हाज़िर हैं सातवीं क़िस्त की तीन ग़ज़लें।
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
प्रीत न आई रास रे जोगी
ले लूँ क्या बनवास रे जोगी
दर-दर यूँ ही भटक रहा हूँ
आता नहीँ क्यों पास रे जोगी
कब तक भूखा प्यासा रहूँ मैं
आ के बुझा जा प्यास रे जोगी
देगा कब तू आख़िर दर्शन
मन है बहुत उदास रे जोगी
कितना बेहिस है तू आख़िर
तुझको नहीं एहसास रे जोगी
मन को चंचल कर देती है
अब भी मिलन की प्यास रे जोगी
छोड़ के तेरा जाऊँ कहाँ दर
मैं तो तेरा दास रे जोगी
सब्र की हो गई हद ‘बर्क़ी’ की
तेरा सत्यानास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
हुक़्म है तेरा ख़ास रे जोगी
मैं तो तेरा दास रे जोगी
जीवन का इक रूप है ये तो
खेले सारे रास रे जोगी
सब कुछ मेरा नाम है तेरे
जो भी मेरे पास रे जोगी
खूब ठिठौली कर लेता है
तू भी है बिंदास रे जोगी
जब से रूठा है तू मुझसे
टूटी मेरी आस रे जोगी
दुनिया को देना है,क्या दें
पत्थर या अल्मास रे जोगी
जोगन तेरी राह तके है
आया सावन मास रे जोगी
बस में होता तो मैं देता
रावण को बनवास रे जोगी
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
तुझको देख के मुझको रब का
होता है एहसास रे जोगी
शायर तो दुनिया में लाखों
एक "मुसाफ़िर" ख़ास रे जोगी
डा.अजमल ख़ान "माहक" लखनऊ से
ओ जोगी तुम ख़ास रे जोगी
हमको तुम से आस रे जोगी
राम सिया संग जाई बसे वन
तज कर भोग विलास रे जोगी
देख रहे हैं अपने सारे
कौन चला बनवास रे जोगी
मोह में जब तुम इतने उलझे
काहे का सन्यास रे जोगी
जिन को भूख की आदत पड़ गई
उनको क्या उपवास रे जोगी
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
ज्ञानी ध्यानी सब दुखियारे
मोह रचाऐ रास रे जोगी
घर छोड़ा पर जग नांहि छूटा
तू माया का दास रे जोगी
सच मिलता रोता- चिल्लाता
सहता है उपहास रे जोगी
“माहक” दुनिया देख रहा है
आई उसको रास रे जोगी
Sunday, May 23, 2010
छटी क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
छ्टी क़िस्त की तीन ग़ज़लें-
योगेन्द्र मौदगिल
तन का क्या विश्वास रे जोगी
तन तो मन का दास रे जोगी
भगवे में भगवान बसे हैं
जटा-जूट विन्यास रे जोगी
उर्मिल पूछ रही लछमन से
कौन दोष मम् खास रे जोगी
जाम-सुराही छूट गये सब
टूट गया अभ्यास रे जोगी
सूरज, चंदा, जुगनू, तारे
किसको किसकी आस रे जोगी
तितली, भंवरे, कोयल, खुशबू
किसको दुनिया रास रे जोगी
मंत्र मणि मंदिर मर्यादा
मन माया मधुमास रे जोगी
पाहुन कुत्ता जांच रहा है
कुत्ता पाहुन-बास रे जोगी
जे विध राखे राम-रमैय्या
सो विध खासमखास रे जोगी
गंगा गये सो गंगादासा
जमना-जमनादास रे जोगी
कूंए में गूंगी परछाई
जगत पे अट्टाहास रे जोगी
चप्पा-चप्पा मौन खड़ा है
कौन चला बनवास रे जोगी
मैच अभी है शेष ’मौदगिल’
अभी हुआ है टास रे जोगी
प्राण शर्मा
जीवन आया रास रे जोगी
मैं क्यों लूँ बनवास रे जोगी
इतनी उदासी अच्छी नहीं है
कुछ तो हो परिहास रे जोगी
सोच ज़रा ये भी ,मधुवन में
क्यों आये मधुमास रे जोगी
तुलसी, केशव, सूर कबीरा
सबके सब थे दास रे जोगी
जीवन के ये भी हिस्से हैं
सुख,दुःख,भोग-विलास रे जोगी
तू न बुरा माने तो पूछूँ
तुझमें क्या है ख़ास रे जोगी
हर कोई दिल को थामे है
कौन चला बनवास रे जोगी
गिरीश पंकज
किनसे रक्खें आस रे जोगी
टूटा हर विश्वास रे जोगी
पतझर से डरता है काहे
आयेगा मधुमास रे जोगी
जीत ले सबका दिल बढ़ कर के
बन जा खासमख़ास रे जोगी
रोती है ये सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
तोते को सोने का पिंजरा
आता है क्यों रास रे जोगी
प्यार से मिट जाती है दूरी
आयें बैरी पास रे जोगी
मत रोना , होता आया है
सच का तो उपहास रे जोगी
ये तो प्रेम-पियाला पंकज
इसमें है बस प्यास रे जोगी
Wednesday, May 19, 2010
पाँचवीं क़िस्त - कौन चला बनवास रे जोगी
पाँचवीं क़िस्त की ये तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
बाबा कानपुरी
रहता नित उपवास रे जोगी
मन में अति उल्लास रे जोगी
कुछ तो है जो कसक रहा है
क्या मन में संत्रास रे जोगी
झर-झर बहते नैना जैसे
बारिश बारह मास रे जोगी
सूनी-सूनी दसों दिशाएं
कौन चला बनवास रे जोगी
व्यसनों की चादर में लिपटा
यह कैसा सन्यास रे जोगी
लेना एक न देना दो पर
नित करता अभ्यास रे जोगी.
रीता का रीता है "बाबा"
सब कुछ उसके पास रे जोगी
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का एहसास रे जोगी
तेरे आने से छाया है
हर सू इक उल्लास रे जोगी
तू आ जाये जब भी मन में
हो जाता है रास रे जोगी
कुछ दिन थोड़ी कोशिश करले
जग आयेगा रास रे जोगी
मन में है सो पा जाऊँगा
क्याँ छोडूँ मैं आस रे जोगी
दो पल की फुर्सत का सपना
इक गहरा उच्छवास रे जोगी
ये ही तुझ को खुश कर दे तो
चल मैं तेरा दास रे जोगी
वानप्रस्थ की उम्र हुई पर
कौन चला बनवास रे जोगी
कब तक सहना होगा मुझको
तन्हा ये संत्रास रे जोगी
तेरा मेरा सोच न 'राही'
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
चंद्रभान भारद्वाज
कर सूना हर वास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
बाकी अब बिरहिन की पूँजी
आँसू और निश्वास रे जोगी
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे सा विश्वास रे जोगी
उठते ही दुल्हन की डोली
उजड़ा सब जनवास रे जोगी
राजा हो या रंक सभी का
जाना तय सुरवास रे जोगी
क्या मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
मन प्रभु का आवास रे जोगी
फैली 'भारद्वाज'उसी की
कण कण बीच सुवास रे जोगी
अज़ीज दोस्तो!
मैं अपनी बात बड़ी हलीमी से रख रहा हूँ, कोई भी इसे अन्यथा न ले । बहस या संवाद किसी नतीजे तक न पहुँचे तो क्या फ़ायदा। बात शुरू हुई थी नास और नाश को लेकर और आदरणीय राजेन्द्र जी ने ही देशज शब्द का इस्तेमाल टिप्पणी में किया। देशज या देशी या देसी शायद एक ही अर्थ के शब्द हों । देशज,वो शब्द जो बिना किसी आधार के (तदभव, तत्सम ,गृहित,अनुकरण) विकसित हो गए हों। जिनकी पैदाइश कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं हो जैसे- घूँट, घपला पेड़,चूहा ठेस, ठेठ, धब्बा पेठा कबड्डी आदि
और आम हिंदी भाषा में तकरीबन 80% तद्भव, 15% तत्सम 13% विदेशी और 2% देशज शब्द इस्तेमाल होते हैं। शब्दकोश में नास का अर्थ है-वह चूर्ण जो नाक में डाला जाय। वह औषध जो नाक से सूँघी जाय। सूँघना या नसवार, सुँघनी ।
लेकिन ’देशज शब्द’ शब्दकोशों में नहीं मिलते पर अब धीरे-धीरे शामिल किए जा रहे हैं।
नाश यानि नष्ट और अब नास शब्द के कुछ प्रयोग देखें-
जबहिं नाम ह्रदय धरा,भया पाप का नास
मानों चिनगी आग की,परी पुरानी घास ..कबीर
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं .... सूरदास
अब शब्दकोश के लिहाज से ये तो यहाँ नास का प्रयोग ग़लत है या यूँ कहो कि घास’ के साथ तुक मिलाने के लिए कबीर ने नास लिख दिया। लेकिन उन्होंने इसे लिखा वो गुणी और गुरूजन ही हैं हमारे लिए। तुलसी की भाषा को हम क्या कहेंगे कि वो ग़लत है या फिर कबीर ग़लत हैं।
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
शे’र में बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है सब जानते हैं , लेकिन इस शब्द के प्रयोग को हम किस आधार पर ग़लत कहेंगे। मेरा ये प्रशन सिर्फ़ राजेन्द्र जी से नहीं है बल्कि सब से है। मैं आप सब से जानना चाहता हूँ ताकि कुछ हम सब सीख सकें।क्या कबीर का ’नास’ कुछ और है? क्या नास तदभव रूप नहीं है या फिर ये देशी है,क्या है? इसे संवाद तक ही सीमित रखें विवाद न समझें और न ही विवाद का रूप दें। ग़ज़ल कहने वाले तो हर बात सलीक़े और अदब से ही कहते हैं और ये मंच है ही ग़ज़ल के लिए।
बात जोगी की हो रही है तो क्यों न लता की आवाज़ में ये गीत-
जाओ रे ! जोगी तुम जाओ रे ...सुना जाए।
Monday, May 17, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी-चौथी क़िस्त
नवनीत जी की इस अरदास-
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
के साथ और राजेन्द्र स्वर्णकार के इस अनूठे और सुंदर शे’र-
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
के साथ हाज़िर है ये चौथी कि़स्त-
नवनीत शर्मा
खुशियों को बनवास रे जोगी
पीड़ा का मधुमास रे जोगी
कोई मोटा गणित बता दे
बाकी कितने श्वास रे जोगी
कट-कट कर भी बढ़ती जाए
यादों की यह घास रे जोगी
जोग भी मन की ही इच्छा है
तू इच्छा का दास रे जोगी
हँसते चेहरों के पीछे भी
पीड़ा का आवास रे जोगी
काश वो आएँ जिनको सौंपे
पल छिन घड़ियाँ मास रे जोगी
जिनको भूख से रोज उलझना
मजबूरी उपवास रे जोगी
गाँव-नगर जो तैर रहा है
कौन हरे संत्रास रे जोगी
सूखीं सपनों की धाराएँ
जैसे दरिया ब्यास रे जोगी
तू माहिर दुनियादारी में
किसको था आभास रे जोगी
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
उससे कहो पहले बन ढूँढे
कौन चला बनवास रे जोगी
राजेन्द्र स्वर्णकार(बीकानेर से)
मन है बहुत उदास रे जोगी
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी
पूछ न प्रीत का दीप जला कर
कौन चला बनवास रे जोगी
अब सम्हाले संभल न पाती
श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी
पी'मन में रम-रच गया,जैसे
पुष्प में रंग-सुवास रे जोगी
धार लिया तूने तो डर कर
इस जग से सन्यास रे जोगी
कौन पराया-अपना है रे
क्या घर और प्रवास रे जोगी
चोट लगी तो तड़प उठेगा
मत कर तू उपहास रे जोगी
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
छोड़ हमें ’राजेन्द्र’ अकेला
है इतनी अरदास रे जोगी !
Friday, May 14, 2010
तीसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
मुफ़लिस साहब के इस खूबसूरत शे’र -
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
के साथ तीसरी क़िस्त हाज़िर है जिसमें जोगेश्वर गर्ग जी की ग़ज़ल भी का़बिले-गौ़र है।साथ ही दूसरी क़िस्त में चंद्र रेखा ढडवाल के इस खूबसूरत शे’र के लिए उनको बधाई देना चाहता हूँ।
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
लीजिए ये अगली दो ग़ज़लें-
डी.के.'मुफ़लिस'
ओढ़ लिया संन्यास रे जोगी
फिर भी मन का दास रे जोगी
काश ! कभी पूरी हो पाए
जीवन की हर आस रे जोगी
पल-पल वक़्त के नाज़ उठाना
तुझ को क्या एहसास रे जोगी
सारा जग है भूल-भुलैयाँ
आया किसको रास रे जोगी
काम कभी आ ही जाता है
सपनों का विन्यास रे जोगी
बस्ती में हर आँख रूआँसी
कौन चला बनवास रे जोगी
लुक-छिप सब को नाच नचाये
कौन रचाए रास रे जोगी
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
'मुफ़लिस' जब से दूर गया वो
ग़म आ बैठा पास रे जोगी
जोगेश्वर गर्ग
जो बन्दा बिंदास रे जोगी
दुनिया उसकी दास रे जोगी
इतना ध्यान हमेशा रखना
कौन बना क्यों ख़ास रे जोगी
ज्ञान समंदर उतना गहरा
जितनी जिसकी प्यास रे जोगी
भौंचक अवध समझ नहीं पाया
कौन चला वनवास रे जोगी
दुनियादारी ढोते ढोते
फूली अपनी श्वास रे जोगी
इसका- उसका, किस किस का तू
कर बैठा विश्वास रे जोगी
जिसको खुद पर खूब भरोसा
ईश्वर उसके पास रे जोगी
"जोगेश्वर" को भूल न जाना
इतनी सी अरदास रे जोगी
दूसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
दूसरी क़िस्त में तीन शाइराओं की ग़ज़लें एक साथ मुलाहिज़ा कीजिए-
देवी नांगरानी
ओढे शब्द लिबास रे जोगी
आई ग़ज़ल है रास रे जोगी
धूप में पास रहे परछाईं
शाम को ले सन्यास रे जोगी
छल से जल में आया नज़र जो
चाँद लगा था पास रे जोगी
हिम्मत टूटी,दिल भी टूटा
टूटा जब विश्वास रे जोगी
सहरा के लब से जा पूछो
होती है क्या प्यास रे जोगी
जीस्त ने जब गेसू बिखराए
खोया होश हवास रे जोगी
’देवी’ मत ज़ाया कर इनको
पूंजी इक इक स्वास रे जोगी
चंद्र रेखा ढडवाल(धर्मशाला हिमाचल प्रदेश)
जितने खिले मधुमास रे जोगी
उतने हुए बे-आस रे जोगी
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
मेघ बरसते थे,दिन बीते
अब तो बरसती प्यास रे जोगी
साथ प्रिया बन-बन डोले तो
काहे का बनवास रे जोगी
हमको अयोध्या में रहते भी
देख मिला बनवास रे जोगी
जिसने शिलाओं को तोड़ा हो
वो ही करे अब न्यास रे जोगी
खेत भी होंगे राजसिंहासन
आम जो होंगे ख़ास रे जोगी
आज इस गाँवों कल उस नगरी
क्यों बँधवाई आस रे जोगी
खेल रहा था खेल फ़क़त तू
हमने किया विश्वास रे जोगी
सारा जबीन
जब से गया बनवास रे जोगी
टूटी प्रीत की आस रे जोगी
सब सखियां ये पूछ रही हैं
कौन चला बनवास रे जोगी
धन दौलत नहीं मांगूं तुझसे
मांगूं तेरा पास रे जोगी
किस को समझूँ अब मैं दोषी
कुछ भी न आया रास रे जोगी
लौटेगा तू 'सारा' की है
आँखों में विश्वास रे जोगी
Monday, May 10, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी- पहली क़िस्त
"कौन चला बनवास रे जोगी" राहत इन्दौरी साहब की ग़ज़ल से लिए इस मिसरे पर कई शायरों ने ग़ज़लें कहीं है या यों कहो कि राहत साहब की ज़मीन पर शायरों ने हल चलाने की हिम्मत की है। कई ग़ज़लें आईं है जो कि़स्तों मे पेश की जाएँगी।पहले हाज़िर हैं दो ग़ज़लें-
एम.बी.शर्मा "मधुर"
यूँ लेकर सन्यास रे जोगी
आएँ न भगवन पास रे जोगी
मन का द्वार न खुल पाया तो
वन भी कारावास रे जोगी
रावण आज अयोध्या में जब
राम ले क्यूँ बनवास रे जोगी
जो दुनिया से भागा उसपे
कौन करे विश्वास रे जोगी
युग बीते जो मिट न सकी वो
जीवन अनबुझ प्यास रे जोगी
जो ख़ुद से ही हारा उसको
कौन बँधाए आस रे जोगी
इंसानों में ज़ह्र जब इतना
साँपों में क्या ख़ास रे जोगी
सत्य ‘मधुर’ भी कड़वा लगता
आए किसको रास रे जोगी
पवनेंद्र "पवन"
बाहर योग-अभ्यास रे जोगी
भीतर भोग-विलास रे जोगी
रात सुरा यौवन की महफ़िल
दिन को है उपवास रे जोगी
घर में चूल्हे-सी,जंगल में
दावानल-सी प्यास रे जोगी
सन्यासी के भेस में निकला
इन्द्रियों का दास रे जोगी
झोंपड़ छोड़ महल में रहना
ये कैसा सन्यास रे जोगी
मर्यादा को बंधन समझा
घर को कारावास रे जोगी
लोग हैं जितने ख़ास वतन में
उन सब का तू ख़ास रे जोगी
घर सूना कर ख़ूब रचाता
वृंदावन में रास रे जोगी
जब सुविधाएँ पास हों सारी
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
दूर ‘पवन’ को अब भी दिल्ली
तेरे बिल्कुल पास रे जोगी
Tuesday, May 4, 2010
अनवारे इस्लाम-परिचय और ग़ज़लें
1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी चार ग़ज़लें हाज़िर हैं-
एक
ख़ैरीयत इस तरह बताता है
हाल पूछो तो मुस्कुराता है
कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है
ज़िक्र करता है हर जगह मेरा
सामने आके भूल जाता है
कल तलक सर छुपाके रखता था
आज वो जिस्म भी छुपाता है
किससे क़ौलो-क़रार कीजेगा
कोई वादा कहाँ निभाता है
तन के चलता है भाई के आगे
सर दरे-ग़ैर पर झुकाता है
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
दो
असल में मुस्कुराना चाहता है
जो बच्चा रूठ जाना चाहता है
हमारी प्यास की गहराइयों में
समंदर डूब जाना चाहता है
वो आना चाहता है पास लेकिन
मुनासिब सा बहाना चाहता है
नहीं मालूम क्या चाहत है उसकी
मगर उसको ज़माना चाहता है
कहीं मिल जाए थोड़ी छांव उसको
वो बंजारा ठिकाना चाहता है
नई तहज़ीब का बेटा हमारा
हमें अब भूल जाना चाहता है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
तीन
दुनिया की निगाहों में ख़यालों में रहेंगे
जो लोग तेरे चाहने वालों में रहेंगे
हम लोग बसायेंगे कोई दूसरी दुनिया
मस्जिद में रहेंगे, न शिवालों में रहेंगे
ऐ वक़्त तेरे ज़ुल्मो-सितम सहके भी खुश हैं
हम लोग हमेशा ही मिसालों में रहेंगे
शैरों में मेरे आज धड़कता है मेरा वक़्त
अशआर मेरे कल भी हवालों में रहेंगे
गुलशन के मुक़द्दर में जो आए नहीं अब तक
वो नक़्श मेरे पाँव के छालों में रहेंगे
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन
22 1 1 22 11 221 122
चार
ये धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है
तुमको ज़िद्द ही अगर पर कतरने की है
शौक़ हमको भी ऊँची उड़ानों का है
जानता हूँ हवा है मु्ख़ालिफ़ मेरे
पर भरोसा मुझे बादबानों का है
बाँधकर हम परों में सफ़र उड़ चले
इम्तिहान आज फिर आसमानों का है
बहरे-मुतदारिक सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212
इ-मेल
sukhanwar12@gmail.com
Monday, April 26, 2010
हसीब सोज़ की ग़ज़लें
1962 में जन्में हसीब "सोज़" बेहतरीन शायर हैं। आप उर्दू के रिसाले "लम्हा-लम्हा"का संपादन भी करते हैं |आप उर्दू में एम.ए. हैं। बदायूं (उ,प्र) के रहने वाले हैं।शायर का असली परिचय उसके शे’र होते हैं और इस शायर के बारे में मैं क्या कहूँ। ये शे’र पढ़के के आप ख़ुद कहेंगे कि बाक़ई हसीब साहब आला दर्ज़े के शायर हैं।
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
रगें दिमाग़ की सब पेट में उतर आईं
ग़रीब लोगों में कोई हुनर नहीं होता
इनकी दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई
फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई
इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई
दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया
दुनिया की राये दूसरे दिन ही बदल गई
*हाफ़ज़े-यादाश्त
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
दो
तअल्लुका़त की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ
मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ
ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ
मगर मैं बच्चों को अपने हँसता रहता हूँ
तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की
मैं दुशमनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ
ये रोज़-रोज़ की *अहबाब से मुलाक़ातें
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ
*अहबाब-दोस्त(वहु)
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
Friday, April 23, 2010
प्रेमचंद सहजवाला - परिचय और ग़ज़लें
18 दिसम्बर 1945 को जन्मे प्रेमचंद सहजवाला हिंदी के चर्चित कथाकार हैं। इनके अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । बहुत सी पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और आप अच्छे शायर भी हैं। इनकी दो ग़ज़लें आपकी नज़्र कर रहा हूँ-
एक
ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफ़र आता है
अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है
शहृ में खु़द को तलाशें तो तलाशें कैसे
हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र आता है
अजनबीयत सी लिपटती है बदन से उस के
रोज़ जब शाम को वो लौट के घर आता है
पहले दीवानगी के शहृ से तारुफ़ रक्खो
बाद उस के ही मुहब्बत का नगर आता है
दो घड़ी बर्फ के ढेरों पे ज़रा सा चल दो
संगमरमर सा बदन कैसे सिहर आता है
जिस के साए में खड़े हो के मेरी याद आए
क्या तेरी राह में ऐसा भी शजर आता है
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
दो
हो गए हैं आप की बातों के हम मुफ़लिस शिकार
है खिज़ां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार
रोशनी दे कर मसीहा ने चुनी हँस कर सलीब
रोशनी फिर रौंदने आए अँधेरे बेशुमार
रहबरों के हाथ दे दी ज़िन्दगी की सहरो-शाम
ज़िन्दगी पर फिर रहा कोई न अपना इख़्तियार
मिल नहीं पाते नगर की तेज़ सी रफ़्तार में
याद आते हैं वही क्यों दोस्त दिल को बार बार
जिन के साए में लिखी रूदादे-उल्फ़त वक़्त ने
हो गए हैं आज वो सारे शजर क्यों शर्मसार
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
Friday, April 16, 2010
द्विजेन्द्र द्विज जी की ताज़ा ग़ज़ल और तरही मिसरा
द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल आप सब की नज़्र कर रहा हूँ। द्विज जी से तो सब लोग वाकिफ़ ही हैं। आप उनकी ग़ज़लें कविता-कोश पर यहाँ पढ़ सकते हैं। उनकी एक नई ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
Monday, April 12, 2010
राहत इन्दौरी साहब की नई ग़ज़ल
राहत इन्दौरी किसी तआरुफ़ के मोहताज़ नहीं हैं। उनकी एक ताज़ा ग़ज़ल, उनकी इजाज़त के साथ शाया कर रहा हूँ। छोटी बहर की बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है । लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विशवास रे जोगी
इक दिन विष का प्याला पी जा
फिर न लगेगी प्यास रे जोगी
ये साँसों का बन्दी जीवन
किस को आया रास रे जोगी
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
पुर आई थी मन की नदिया
बह गए सब एहसास रे जोगी
इक पल के सुख की क्या क़ीमत
दुख हैं बाराह मास रे जोगी
बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी
चार फ़ेलुन की बहर
और राहत साहब को सुन भी लीजिए-
Monday, April 5, 2010
जनाब नवाज़ देवबन्दी
जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ में हर किसी ने इस खूबसूरत ग़ज़ल-
तेरे आने कि जब ख़बर महके
तेरी खुश्बू से सारा घर महके
को ज़रूर सुना होगा। इस ग़ज़ल के शायर हैं जनाब नवाज़ देवबन्दी । ऐसी बेमिसाल कहन के मालिक जनाब मुहम्मद नवाज़ खान उर्फ़ नवाज़ देवबन्दी का जन्म 16 जुलाई 1956 को उत्तर प्रदेश में हुआ। उर्दू में आपने एम.ए किया फिर बाद में पी.एच.डी की। दो ग़ज़ल संग्रह "पहला आसमान" और "पहली बारिश" प्रकाशित हुए हैं। इनकी शायरी गुलाबों पर बिखरे ओंस के क़तरों की तरह है। हज़ारों मुशायरों में शिरक़त करने वाले देवबन्दी साहब का हर शे’र ताज़गी और सुकून समेटे रहता है-
अंजाम उसके हाथ है आग़ाज़ कर के देख
भीगे हुए परों से ही परवाज़ कर के देख
गो वक़्त ने ऐसे भी मवाक़े हमें बख़्शे
हम फिर भी बज़ुर्गों के सिराहने नहीं बैठे
ओ शहर जाने वाले ! ये बूढ़े शजर न बेच
मुमकिन है लौटना पड़े गाँव का घर न बेच
ऐसी सादा अल्फ़ाज़ी में इतने पुरअसर शे’र कहना क़ाबिले-तारीफ़ है। मुझे बहुत खुशी है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लें शाया करने की अनुमति हमें दी। ये पोस्ट आज की ग़ज़ल का एक सुनहरा पन्ना है।
ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
सच बोलने के तौर-तरीक़े नहीं रहे
पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे
वैसे तो हम वही हैं जो पहले थे दोस्तो
हालात जैसे पहले थे वैसे नहीं रहे
खु़द मर गया था जिनको बचाने में पहले बाप
अबके फ़साद में वही बच्चे नहीं रहे
दरिया उतर गया है मगर बह गए हैं पुल
उस पार आने-जाने के रस्ते नहीं रहे
सर अब भी कट रहे हैं नमाज़ों में दोस्तो
अफ़सोस तो ये है कि वो सजदे नहीं रहे
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
एक और नायाब ग़ज़ल-
वो अपने घर के दरीचों से झाँकता कम है
तअल्लुका़त तो अब भी हैं मगर राब्ता कम है
तुम उस खामोश तबीयत पे तंज़ मत करना
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है
बिला सबब ही मियाँ तुम उदास रहते हो
तुम्हारे घर से तो मस्जिद का फ़ासिला कम है
फ़िज़ूल तेज़ हवाओं को दोष देता है
उसे चराग़ जलाने का हौसला कम है
मैं अपने बच्चों की ख़ातिर ही जान दे देता
मगर ग़रीब की जां का मुआवज़ा कम है
बहरे मुजास वा मुज्तस की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
मु'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन मु'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
गज़ल
ख़ुद को कितना छोटा करना पड़ता है
बेटे से समझौता करना पड़ता है
जब औलादें नालायक हो जाती हैं
अपने ऊपर ग़ुस्सा करना पड़ता है
सच्चाई को अपनाना आसान नहीं
दुनिया भर से झगड़ा करना पड़ता है
जब सारे के सारे ही बेपर्दा हों
ऐसे में खु़द पर्दा करना पड़ता है
प्यासों की बस्ती में शोले भड़का कर
फिर पानी को महंगा करना पड़ता है
हँस कर अपने चहरे की हर सिलवट पर
शीशे को शर्मिंदा करना पड़ता है
पाँच फ़ेलुन+एक फ़े
गज़ल
दिल धड़कता है तो आती हैं सदाएँ तेरी
मेरी साँसों में महकने लगी साँसें तेरी
चाँद खु़द महवे-तमाशा था फ़लक पर उस दम
जब सितारों ने उतारीं थीं बलाएँ तेरी
शे’र तो रोज़ ही कहते हैं ग़ज़ल के लेकिन
आ! कभी बैठ के तुझसे करें बातें तेरी
ज़हनो-दिल तेरे तस्व्वुर से घिरे रहते हैं
मुझको बाहों में लिए रहती हैं यादें तेरी
क्यों मेरा नाम मेरे शे’र लिखे हैं इनमें
चुग़लियाँ करती हैं मुझसे ये किताबें तेरी
बेख़बर ओट से तू झाँक रहा हो मुझको
और हम चुपके से तस्वीर बना लें तेरी
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़’इ’लातुन फ़’इ’लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22
ग़ज़ल
सफ़र में मुश्किलें आएँ तो जुर्रत और बढ़ती है
कोई जब रास्ता रोके तो हिम्मत और बढ़ती है
मेरी कमज़ोरियों पर जब कोई तनक़ीद करता है
वो दुशमन क्यों न हो उस से मुहव्बत और बढ़ती है
अगर बिकने पे आ जाओ तो घट जाते हैं दाम अक़सर
न बिकने का इरादा हो तो क़ीमत और बढ़ती है
बहरे-हज़ज सालिम
चंद अशआर-
अँधेरा ही अँधेरा छा गया है
सवेरा भी उजाला खा गया है
ज़मीं वालों की ओछी हरक़तों पर
समंदर को भी गुस्सा आ गया है
एक खूबसूरत नज़्म देवबन्दी साहब की ज़ुबानी -
कुछ और शे’र-
बज़्में-दिलनवाज़ हो जाती
तुम मेरे शे’र गुनगुनाते तो
हम तो दिलनवाज़ दुशमन को
दोस्तों में शुमार करते हैं
जो झूठ बोलके करता है मुत्मइन सबको
वो झूठ बोलके ख़ुद मुत्मइन नहीं होता
बुझते हुए दीये पे हवा ने असर किया
माँ ने दुआएँ दीं तो दवा ने असर किया
जो तेरे साथ रहके कट जाए वो सज़ा भी सज़ा नहीं लगती
जिसने माँ-बाप को सताया हो उसे कोई दुआ नहीं लगती
धूप को साया ज़मीं को आस्मां करती है माँ
हाथ रखकर मेरे सर पर सायाबां करती है माँ
मेरी ख़्वाहिश और मेरी ज़िद्द उसके क़दमों पर निसार
हाँ की गुंज़ाइश न हो तो फिर भी हाँ करती है माँ
तनहाई का जश्न मनाता रहता हूँ
ख़ुद को अपने शे’र सुनाता रहता हूँ
वो भाषण से आग लगाते रहते हैं
मैं ग़ज़लों से आग बुझाता रहता हूँ
ज़न्नत की कुन्जी है मेरी मुठ्ठी में
अपनी माँ के पैर दबाता रहता हूँ
नोट: आप नवाज़ देवबन्दी साहब का ग़ज़ल संग्रह" पहली बारिश" का हिंदी या उर्दू संस्करण यहाँ फोन करके हासिल कर सकते हैं-09045631819
Monday, March 29, 2010
सुरेन्द्र चतुर्वेदी-ग़ज़लें और परिचय
1955 मे अजमेर(राजस्थान) में जन्मे सुरेन्द्र चतुर्वेदी के अब तक सात ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वो आजकल मुंबई फिल्मों मे पटकथा लेखन से जुड़े हैं.इसके अलावा भी इनकी छ: और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
किसी शायर की तबीयत जब फ़क़ीरों जैसी हो जाती है तो वो किसी दैवी शक्ति के प्रभाव में ऐसे अशआर कह जाता है जिस पर ख़ुद शायर को भी ताज्ज़ुब होता है कि ये उसने कहे हैं। फ़कीराना तबीयत के मालिक सुरेन्द्र चतुर्वेदी के शे’र भी ऐसे ही हैं-
रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं....सुरेन्द्र चतुर्वेदी
एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शे’र हूँ मैं दोस्तो
बेखुदी के रास्ते दिल मे उतर जाता हूँ मैं....सुरेन्द्र चतुर्वेदी
इनकी ग़ज़लें पहले भी शाया की थीं जिन्हें आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं-
http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/06/blog-post_26.html
जब बात सूफ़ियों की चली तो कुछ अशआर ज़हन में आ रहे हैं-
ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता
फ़स्ले बहार आई पियो सूफ़ियों शराब
बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइए ....आतिश
आज एक और शायर का ज़िक्र करना चाहूँगा जनाब मुज़फ़्फ़र रिज़मी। इनका एक शे’र जो बेमिसाल है और ऐसी ही किसी फ़कीराना तबीयत में कहा गया होगा-
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
अगली नस्लों को दुआ दे के चला जाऊंगा....मुज़फ़्फ़र रिज़मी
और जनाब दिलावर फ़िगार ने शायर की मुशकिल को कुछ इस तरह बयान किया है -
दिले-शायर पे कुछ ऐसी ही गुज़रती है 'फ़िगार'
जो किसी क़तरे पे गुज़रे है गुहर होने तक
और अब ऐसे ही गुहर जनाब सुरेन्द्र चतुर्वेदी जिनके बारे में गुलज़ार साहब ने कहा -
मुझे हमेशा यही लगा कि मेरी शक़्ल का कोई शख़्स सुरेन्द्र में भी रहता है जो हर लम्हा उसे उंगली पकड़कर लिखने पे मज़बूर करता है...गुलज़ार
मुलाहिज़ा कीजिए इनकी तीन ग़ज़लें-
ग़ज़ल
कड़ी इस धूप में मुझको कोई पीपल बना दे
मुझे इक बार पुरखों की दुआ का फल बना दे
नहीं बरसा है मेरे गाँव में बरसों से पानी
मेरे मौला मुझे इस बार तू बादल बना दे
किसी दरगाह की आने लगी खुशबू बदन में
कहीं ऐसा न हो मुझको वफ़ा संदल बना दे
अदब , तहज़ीब अपनी ये शहर तो खो चुका है
तू ऐसा कर कि जादू से इसे जंगल बना दे
जतन से बुन रहा हूँ आज मैं बीते दिनों को
न जाने कौन सा पल याद को मखमल बना दे
बग़ाबत पर उतर आए हैं अब हालात मेरे
कोई आकर मेरे हालात को चंबल बना दे
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 1222 122
ग़ज़ल
ग़र मैं बाज़ार तक पहुँच जाता
अपने हक़दार तक पहुँच जाता
दिन फ़क़ीरी के जो बिता लेता
उसके दरबार तक पहुँच जाता
झांक लेता जो खु़द में इक लम्हा
वो गुनहगार तक पहुँच जाता
रूह में फ़ासला रखा वर्ना
जिस्म दीवार तक पहुँच जाता
मुझमें कुछ दिन अगर वो रह लेता
मेरे क़िरदार तक पहुँच जाता
आयतें उसने ग़र पढ़ी होतीं
वो मेरे प्यार तक पहुँच जाता
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
ग़ज़ल
एक लंबी उड़ान हूँ जैसे
या कोई आसमान हूँ जैसे
हर कोई कब मुझे समझता है
सूफ़ियों की ज़बान हूँ जैसे
मैं अमीरों के इक मोहल्ले में
कोई कच्चा मकान हूँ जैसे
मुझसे रहते हैं दूर-दूर सभी
उम्र भर की थकान हूँ जैसे
बारिशें तेज़ हों तो लगता है
आग के दरमियान हूँ जैसे
लोग हँस-हँस के मुझको पढ़ते हैं
दर्द की दास्तान हूँ जैसे
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
बात सूफ़ियों की हो और बाबा बुल्ले शाह का नाम न आए। सुनिए अबीदा परवीन की सूफ़ी आवाज़ में साईं बुल्ले शाह का क़लाम
धन्यवाद
Monday, March 22, 2010
शाहिद कबीर
जन्म: मई 1932
निधन: मई 2001
किसी अमीर को कोई फ़क़ीर क्या देगा
ग़ज़ल की सिन्फ़ को शाहिद कबीर क्या देगा
लेकिन शाहिद कबीर ने ग़ज़ल को जो दिया है उससे यक़ीनन ग़ज़ल और अमीर हुई है। फ़क़ीर इस दुनिया को वो दे जाते हैं, जो कोई अमीर नहीं दे सकता। फलों से लदी टहनियां हमेशा झुकी हुई मिलती हैं। भले वो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें, नग़्में आज भी ज़िंदा हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह "चारों और" " मिट्टी के मकान" और "पहचान" प्रकाशित हुए थे. मुन्नी बेग़म से लेकर जगजीत सिंह तक हर ग़ज़ल गायक ने इनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है . इन्होंने कई फिल्मों के लिए नग़मे और ग़ज़लें कहीं हैं.आज ही मैनें ये वीडिओ यू टियूब पे डाला है, आइए शाहिद साहब की आवाज़ में पहले इस रेडियो मुशायरे को सुनते हैं-
इनके ग़ज़ल संग्रह ’पहचान’ से एक कोहेनूर निकाल लाया हूँ। हाज़िर है ये बेमिसाल शे’र-
हर इक हँसी में छुपी खौ़फ़ की उदासी है
समुन्दरों के तले भी ज़मीन प्यासी है
और ये दो ग़ज़लें-
ग़ज़ल
दुआ दो हमें भी ठिकाना मिले
परिंदो ! तुम्हें आशियाना मिले
तबीयत से मुझको मिले मेरे दोस्त
मेरे दोस्तों से ज़माना मिले
समंदर तेरी प्यास बुझती रहे
भटकती नदी को ठिकाना मिले
तरसता हूँ नन्हें से लब की तरह
तबस्सुम का कोई बहाना मिले
फिर इक बार ऐ ! दौरे--फ़ुर्सत मिलें
हमें हो चला इक ज़माना मिले
मिले इस तरह सबसे ’शाहिद कबीर’
कोई दोस्त जैसे पुराना मिले
बहरे-मुतका़रिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
ग़ज़ल
अब अपने साथ भी कुछ दूर जाकर देख लेता हूँ
नदी में नाव कागज़ की बहा कर देख लेता हूँ
चलो क़िस्मत नहीं तदबीर ही की होगी कोताही
हवा के रुख़ पे भी कश्ती चलाकर देख लेता हूँ
हवाओं के किले *मिसमार हो जाते हैं, ये सच है
ज़मीं की गोद में भी घर बनाकर देख लेता हूँ
*सुकूते-आब से जब दिल मेरा घबराने लगता है
तो सतहे-आब पर कंकर गिरा कर देख लेता हूँ
कोई ’शाहिद’ जब अपने जुर्म का इक़रार करता है
तो मैं दामन में अपने सर झुका कर देख लेता हूँ
*मिसमार-धवस्त, सुकूते-आब( पानी की खामुशी)
बहरे हज़ज सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
(1222x4)
और अंत में ये ग़ज़ल सुनिए-
पानी का पत्थरों पे असर कुछ नहीं हुआ
रोए तमाम उम्र मगर कुछ नहीं हुआ
एक छोटी सी सूचना- मेरी कुछ ग़ज़लें अनुभूति पर शाया हुईं हैं। समय लगे तो ज़रूर पढ़िएगा।
निधन: मई 2001
किसी अमीर को कोई फ़क़ीर क्या देगा
ग़ज़ल की सिन्फ़ को शाहिद कबीर क्या देगा
लेकिन शाहिद कबीर ने ग़ज़ल को जो दिया है उससे यक़ीनन ग़ज़ल और अमीर हुई है। फ़क़ीर इस दुनिया को वो दे जाते हैं, जो कोई अमीर नहीं दे सकता। फलों से लदी टहनियां हमेशा झुकी हुई मिलती हैं। भले वो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें, नग़्में आज भी ज़िंदा हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह "चारों और" " मिट्टी के मकान" और "पहचान" प्रकाशित हुए थे. मुन्नी बेग़म से लेकर जगजीत सिंह तक हर ग़ज़ल गायक ने इनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है . इन्होंने कई फिल्मों के लिए नग़मे और ग़ज़लें कहीं हैं.आज ही मैनें ये वीडिओ यू टियूब पे डाला है, आइए शाहिद साहब की आवाज़ में पहले इस रेडियो मुशायरे को सुनते हैं-
इनके ग़ज़ल संग्रह ’पहचान’ से एक कोहेनूर निकाल लाया हूँ। हाज़िर है ये बेमिसाल शे’र-
हर इक हँसी में छुपी खौ़फ़ की उदासी है
समुन्दरों के तले भी ज़मीन प्यासी है
और ये दो ग़ज़लें-
ग़ज़ल
दुआ दो हमें भी ठिकाना मिले
परिंदो ! तुम्हें आशियाना मिले
तबीयत से मुझको मिले मेरे दोस्त
मेरे दोस्तों से ज़माना मिले
समंदर तेरी प्यास बुझती रहे
भटकती नदी को ठिकाना मिले
तरसता हूँ नन्हें से लब की तरह
तबस्सुम का कोई बहाना मिले
फिर इक बार ऐ ! दौरे--फ़ुर्सत मिलें
हमें हो चला इक ज़माना मिले
मिले इस तरह सबसे ’शाहिद कबीर’
कोई दोस्त जैसे पुराना मिले
बहरे-मुतका़रिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
ग़ज़ल
अब अपने साथ भी कुछ दूर जाकर देख लेता हूँ
नदी में नाव कागज़ की बहा कर देख लेता हूँ
चलो क़िस्मत नहीं तदबीर ही की होगी कोताही
हवा के रुख़ पे भी कश्ती चलाकर देख लेता हूँ
हवाओं के किले *मिसमार हो जाते हैं, ये सच है
ज़मीं की गोद में भी घर बनाकर देख लेता हूँ
*सुकूते-आब से जब दिल मेरा घबराने लगता है
तो सतहे-आब पर कंकर गिरा कर देख लेता हूँ
कोई ’शाहिद’ जब अपने जुर्म का इक़रार करता है
तो मैं दामन में अपने सर झुका कर देख लेता हूँ
*मिसमार-धवस्त, सुकूते-आब( पानी की खामुशी)
बहरे हज़ज सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
(1222x4)
और अंत में ये ग़ज़ल सुनिए-
पानी का पत्थरों पे असर कुछ नहीं हुआ
रोए तमाम उम्र मगर कुछ नहीं हुआ
एक छोटी सी सूचना- मेरी कुछ ग़ज़लें अनुभूति पर शाया हुईं हैं। समय लगे तो ज़रूर पढ़िएगा।
Tuesday, March 16, 2010
गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज'- ग़जलें और परिचय
1934 में उरई (उ.प्र.) में जन्में गोपाल कृष्ण सक्सेना "पंकज" बहुत अच्छे शायर हैं। आपने अंग्रेजी में एम.ए. किया और सागर विश्वविधालय में अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक रहे हैं। एक ग़ज़ल संग्रह "दीवार में दरार है" प्रकाशित हो चुका है। कल उनसे बात करके ग़ज़लें छापने की अनुमति ली। ग़ज़लें हाज़िर करने से पहले मैं इनके एक शे’र के बारे में बताना चाहता हूँ जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया और ये एक बेमिसाल शे’र है-
फुटपाथों पर पड़ा हिमालय
टीलों के सम्मान हो गए
क्या बात है! फिर हिंदी में कही जाने वाली ग़ज़ल को लेकर इनका नज़रिया क़ाबिले-तारीफ़ है-
उर्दू की नर्म शाख पर रुद्राक्ष का फल है
सुन्दर को शिव बना रही हिंदी की ग़ज़ल है
ऐसा शायर दोनों भाषाओं कि किस तरह जीता है देखिए-
मुद्दतों से मयक़दे में बंद है
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मट्टी लगे
बदलाव की बात भी है। ग़ज़ल को रिवायत से निकालने का हौसला भी है। गंगा-जमुनी तहज़ीब की रहनुमाई भी-
जुल्फ़ के झुरमट में बिंदिया आपकी
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे
आज के दौर की त्रासदी भी-
पड़ोसी, पड़ोसी के घर तक न पहुँचा
सितारों से आगे जहाँ जा रहा है
ये सब बातें एक शायर को महानता की और लेके जाती हैं। लीजिए तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
शिव लगे , सुंदर लगे ,सच्ची लगे
बात कुछ ऐसी कहो अच्छी लगे
मुद्दतों से मयक़दे में बंद है
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मट्टी लगे
याद माँ की उँगलियों की हर सुबह
बाल में फिरती हुई कंघी लगे
जुल्फ़ के झुरमट में बिंदिया आपकी
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे
रक़्स करती देह उनकी ख़्वाब में
तैरती डल झील में कश्ती लगे
ज़िंदगी अपने समय के कुंभ में
भीड़ में खोई हुई लड़की लगे
जिस्म "पंकज" का हुआ खंडहर मगर
आँख में ब्रज भूमि की मस्ती लगे
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
दो
आप जब लाजवाब होते हैं
कितने हाज़िर जवाब होते हैं
जिनके घर रोटियां नहीं होतीं
उनके घर इन्क़लाब होते हैं
कुछ तो काँटे उन्हें चुभेंगे ही
जिनके घर में गुलाब होते हैं
पानी-पानी शराब होती है
आप जिस दिन शराब होते हैं
मौत के वक़्त एक लम्हें में
उम्र भर के हिसाब होते हैं
खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
तीन
बुझे दीयों के नाम हो गए
उजियाले बदनाम हो गए
चिड़ियों की नन्हीं चोंचों पर
चोरी के इल्ज़ाम हो गए
ढाई आखर पढ़ा न कोई
सौ-सौ पूर्ण विश्राम हो गए
वैसे तो ये ग़ज़ल चार फ़ेलुन की बहर है लेकिन इन बहरों में कई तरह की छूट ली जाती है। मसलन इस ग़ज़ल का मतला लघु से शुरू हो रहा है। जैसे हमने पहले भी मीर के मीटर को लेकर बात की थी (बेशक ये ग़ज़ल मीर के हिंदी मीटर में नहीं है), लेकिन फ़ेलुन की इस तरह की बहरों में, जो बहरे-मुतदारिक से भी मेल खाती हैं , शायर इनमें काफ़ी छूट लेते हैं। ऐसी छूट बड़े-बड़े शायरों ने भी ली हैं जैसे मीर के शे’र का मिसरा देखिए जो फ़’ऊल से शुरू होता है-
बहुत लिए तसबीह फिरे हम पहना है ज़ुन्नार बहुत
और फ़िराक़ का ये मिसरा देखें 22 को 2121 में रिपलेस कर रहा है।
लाख-लाख हम ज़ब्त करे हैं दिल है कि उमड़ावे है
और फ़िराक़ साहब के ये शे’र-
कभी बना दो हो सपनों को जलवों से रश्के-गुलज़ार
कभी रंगे-रुख बनकर तुम याद ही उड़ जाओ हो
बशीर साहब ने कैसे "आसमान" शब्द को फिट किया है-
आसमान के दोनों कोनों के आख़िर
एक सितारा तेरा है, इक मेरा है
एक महत्वपूर्ण लिंक जो मीर के मीटर के बारे में तफ़सील से बताता है-
http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00garden/apparatus/txt_meters.html
लेकिन ये बात भी भी सच है कि इन छूटों से लय तो प्रभावित होती है लेकिन शायर चाहे तो ऐसा कर सकता है अगर और कोई सूरत न बची हो।
शायर का पता-
२५४ मोती निधि काम्पलेक्स, छिंदवाड़ा
मध्य प्रदेश
संपर्क-09926-54056
Tuesday, March 9, 2010
मख़्मूर सईदी साहब को श्रदाँजलि
जाना तो मेरा तय है मगर ये नहीं मालूम
इस शहर से मैं आज चला जाऊँ कि कल जाऊँ...मख़्मूर
1934 को टोंक (राजस्थान) में जन्मे सुल्तान मुहम्मद खाँ उर्फ़ मख़्मूर सईदी, 2 मार्च 2010 को अपनी ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म करके इस दुनिया से विदा हो गए। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-पेड़ गिरता हुआ,गुफ़्तनी, सियाह बर सफ़ेद, आवाज़ का जिस्म, सबरंग, आते-जाते लम्हों की सदा, बाँस के जंगलों से गुज़रती हवा, दीवारो-दर के दरमियाँ हैं। इन्हें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार,और राजस्थान उर्दू अकादमियों के पुरस्कारों के अलावा केन्द्रीय साहित्य अकादमी से भी सम्मान हासिल हुआ।
शायर तमाम उम्र शे’र उधेड़ता-बुनता रहता है और कुछ खोजता रहता है। इस बात को लेकर मीर ने यूँ कहा है-
गई उम्र दर बंद-ऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
ऐसा ही कुछ मख़्मूर साहब ने भी किया। अपनी उम्र के ७६ सालों में शायरी के पुराने और नये दौर को नज़दीक से देखा है और वक़्त के हिसाब से ख़ुद को ढाला भी। रिवायती और जदीद शायरी की बात आती है तो टी.एस. इलीयट के ये शब्द ख़ास मायने रखते हैं जो कुछ दिन पहले किसी किताब में पढ़ने को मिले-
"साहित्य में भी कवि को परंपरा का ख़याल रखना चाहिए। यदि परंपरा को छोड़कर कवि अपनी ही संवेदनाओं में उलझ जाए और अपने ही दुख-दर्द की बात कहे तो वो असली मक़सद से भटक जाता है। परंपरा के ख़याल से दो फ़ायदे होते हैं-
कवि को पता चल जाता है कि उसे क्या कहना या लिखना है, कैसे कहना है और उसे परंपरा के ज्ञान से अपनी कृति की क़ीमत पता चल जाती है।"
और ये बात भी पक्की है कि शायर को अपने वक़्त के साथ चलते हुए भी अपना अलग रस्ता इख़्तियार करना होता है तभी वो सफ़ल शायर बन सकता है। ऐसा ही कुछ मख़्मूर साहब ने किया, रिवायत की नींव पर जदीद शायरी की मंज़िलें खड़ी कीं। पुरानी और नयी शराबें जब मिलती हैं तो नशा दूना हो जाता है। देखिए, मख़्मूर साहब के अशआर नये लहजे की पैरवी करते हुए
पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
सर सब्ज़ पेड़ आग उगलते हैं धूप में
चारो तरफ़ हवा की लचकती कमान है
ये शाख से परिन्दे की पहली उड़ान है
रेत का ढेर थे हम,सोच लिया था हम ने
जब हवा तेज़ चलेगी तो बिखरना होगा
पार करना है नदी को तो उतर पानी में
बनती जाएगी ख़ुद एक राहगुज़र पानी में
दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई
भीड़ में है मगर अकेला है
उस का क़द दूसरों से ऊँचा है
मैं तो ये मानता हूँ कि रिवायत हमें ये बताती है कि कैसे कहना है? लेकिन किस अंदाज़ में कहना है? ये शायर ख़ुद तय करता है। अगर शायर अपनी बात को किसी दूसरे पुराने शायर के ओढ़े हुए अंदाज़,मिज़ाज या पुराने प्रतीकों का इस्तेमाल करके, ज़रा से हेर-फेर से शे’र कहता है तो रिवायती शायर है। लेकिन अगर वो ग़ज़ल के मिज़ाज को ठेस पहुँचाए बिना अपने अंदाज़ में, अपने प्रतीकों से अलग बात कह देता है तो वो जदीद है। मगर हुआ यूँ कि इश्क़-मुहव्बत की बात करना वाले को ही लोग रिवायती शायर समझने लग गए। बदकि़स्मती ये है कि ग़ज़ल में काजू, किशमिश,विस्की,विधायक, संसद आदि का ज़िक्र करना जदीद शायरी की निशानी बन गया है, मिज़ाज और लहजा क्या होता कुछ शायर इसे समझने की ज़हमत नहीं उठाते। ख़ैर , मख़्मूर साहब की तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
कितनी दीवारें उठीं है एक घर के दरमियाँ
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ
जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ
वार वो करते रहेंगे ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ
क्या कहें? हर देखने वाले को आख़िर चुप लगी
गुम था मंज़र इख़्तिलाफ़ाते-नज़र के दरमियाँ
किसकी आहट पर अँधेरे में क़दम बढ़ते रहे
रू नुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ
कुछ अँधेरा सा उजाले से गले मिलता हुआ
हमने इक मंज़र बनाया *ख़ैरो-शर के दरमियाँ
बस्तियाँ "मख़्मूर" यूँ उजड़ीं कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ
रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
*ख़ैरो-शर : भलाई और बुराई,इख़्तिलाफ़ात-मतभेद
ग़ज़ल
ख़्वाब इन जागती आँखों को दिखाने वाला
कौन था वो मेरी नींदों को चुराने वाला
एक खुश्बू मुझे दीवाना बनाने वाली
एक झोंका वो मेरे होश उड़ाने वाला
अब इन *अत्राफ में आता ही नहीं वो मौसम
मेरे बाग़ों में जो था फूल खिलाने वाला
घर तो इस शह्र में जलते हुए देखे सबने
नज़र आया न कोई आग लगाने वाला
तोड़कर कर अपनी हदें ख़ुद से गुज़र जाऊंगा मैं
कोई आए तो मेरा साथ निभाने वाला
तुमने नफ़रत के अँधेरों में मुझे क़ैद किया
मैं उजाला था तुन्हें राह दिखाने वाला
बारिशें ग़म की रुकीं हैं न रुकेंगी मख़्मूर
इन दयारों से ये मौसम नहीं जाने वाला
*अत्राफ - दिशाएँ
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़’इ’लुन
2122 1122 1122 112
ग़ज़ल
इक बार मिलके फिर न कभी उम्र भर मिले
दो अजनबी थे हम जो सरे-राहगुज़र मिले
कुछ मंज़िलों के ख़्वाब थे कुछ रास्ते की धूप
निकले सफ़र पे हम तो यही हमसफ़र मिले
यूँ अपनी सरसरी सी मुलाक़ात ख़ुद से थी
जैसे किसी से कोई सरे-रहगुज़र मिले
इक शख़्स खो गया है जो रस्ते की भीड़ में
उसका पता चले तो कुछ अपनी ख़बर मिले
अपने सफ़र में यूँ तो अकेला हूँ मैं मगर
साया सा एक राह के हर मोड़ पर मिले
बरसों मे घर आजा आये तो बेगाना वार आज
हमसे ख़ुद अपने घर के ही दीवारो-दर मिले
मख़्मूर हम भी रक़्स करें मौजे-गुल के साथ
खुलकर जो हमसे मौसमे-दीवाना ग़र मिले
बहरे-मज़ारे( मुज़ाहिह शक़्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
मीर के इस शे’र के साथ हम इस अज़ीम शायर खिराजे-अक़ीदत पेश करते हैं-
कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले
मख़्मूर साहब की आवाज़ हमेशा गूँजती रहेगी और ज़िंदा रहेगी-
Subscribe to:
Posts (Atom)
-
ग़ज़ल लेखन के बारे में आनलाइन किताबें - ग़ज़ल की बाबत > https://amzn.to/3rjnyGk बातें ग़ज़ल की > https://amzn.to/3pyuoY3 ग़ज़...
-
स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प...
-
आदाब ! मुशायरे मे आए सभी शायरों / ग़ज़लकारों का मैं स्वागत करता हूँ . आज हमारे बीच बैठे हैं: सर्व श्री बृज कुमार अग्रवाल , कृश्न कुमार “तूर” ,...