Saturday, March 19, 2011
प्रफुल्ल कुमार परवेज़
ग़ज़ल
वो बेहिसाब है तन्हा तमाम लोगों में
जो आदमी है सरापा तमाम लोगों में
तू झूठ, सच की तरह बोलने में माहिर है
अज़ीम है तेरा रुतबा तमाम लोगों में
ख़ुदी की बात लबों पर ज़रा-सी क्या आई
मैं घिर गया हूँ अकेला तमाम लोगों में
मिलो तपाक से नीयत करे करे न करे
कमाल है ये सलीका तमाम लोगों में
ये क्या मुकामे-जहाँ है कि अब गरज़ के सिवा
बचा नहीं कोई रिश्ता तमाम लोगों में
इक आरज़ू थी जो शायद कभी न हो पूरी
हबीब-सा कोई मिलता तमाम लोगों में
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
बहरे-मजतस
{ थाईलैड से यह ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ , दूर हूँ , लेकिन हिंदी लिखकर ऐसा लगा मानो घर पर बैठा हूँ }
Saturday, February 19, 2011
नज़ीर बनारसी
(1909-1996)
हमने जो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर, गंगा तेरे पानी से वजू कर करके ..नज़ीर बनारसी
ग़ज़ल
इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ
जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ
कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ
सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शोकेस में चुपचाप खड़ा हूँ
वो आईना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ
दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझसे
मैं ख़ाक हूँ, मैं आग हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ
मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ ,मैं दरिया से जुदा हूँ
हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराजे मौहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूली पे चढ़ा हूँ
दुनिया से निराली है 'नज़ीर' अपनी कहानी
अंगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ऊलुन
22 1 1 221 1221 122
(हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल)
Friday, December 31, 2010
वक़्त ने फिर पन्ना पलटा है
न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है
गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है..वसीम बरेलवी
इस नये साल के मौक़े पर द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो किसी दुआ से कम नहीं है और आप सब को नये साल की शुभकामनाएँ।
द्विजेन्द्र द्विज
ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में
सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में
ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में
है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में
बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में
राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में
वक़्त! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में
ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में
हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में
अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में
काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में
देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में
कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.
Monday, December 6, 2010
सत्यप्रकाश शर्मा की एक ग़ज़ल
सत्यप्रकाश शर्मा
तस्वीर का रुख एक नहीं दूसरा भी है
खैरात जो देता है वही लूटता भी है
ईमान को अब लेके किधर जाइयेगा आप
बेकार है ये चीज कोई पूछता भी है?
बाज़ार चले आये वफ़ा भी, ख़ुलूस भी
अब घर में बचा क्या है कोई सोचता भी है
वैसे तो ज़माने के बहुत तीर खाये हैं
पर इनमें कोई तीर है जो फूल सा भी है
इस दिल ने भी फ़ितरत किसी बच्चे सी पाई है
पहले जिसे खो दे उसे फिर ढूँढता भी है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल मफ़ाईल
22 1 1221 1221 122(1)
शायर का पता-
२५४ नवशील धाम
कल्यान पुर-बिठुर मार्ग, कानपुर-१७
मोबाइल-07607435335
तस्वीर का रुख एक नहीं दूसरा भी है
खैरात जो देता है वही लूटता भी है
ईमान को अब लेके किधर जाइयेगा आप
बेकार है ये चीज कोई पूछता भी है?
बाज़ार चले आये वफ़ा भी, ख़ुलूस भी
अब घर में बचा क्या है कोई सोचता भी है
वैसे तो ज़माने के बहुत तीर खाये हैं
पर इनमें कोई तीर है जो फूल सा भी है
इस दिल ने भी फ़ितरत किसी बच्चे सी पाई है
पहले जिसे खो दे उसे फिर ढूँढता भी है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल मफ़ाईल
22 1 1221 1221 122(1)
शायर का पता-
२५४ नवशील धाम
कल्यान पुर-बिठुर मार्ग, कानपुर-१७
मोबाइल-07607435335
Friday, December 3, 2010
सोच के दीप जला कर देखो- अंतिम क़िस्त
मैनें लफ़्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है
मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।
सतपाल ख़याल
उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो
क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो
क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो
हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो
दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो
मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है
मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।
सतपाल ख़याल
उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो
क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो
क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो
हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो
दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो
मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।
Monday, November 29, 2010
सोच के दीप जला कर देखो
इस बहर में शे’र कहना सचमुच पाँव में पत्थर बाँध कर पहाड़ पर चढ़ने जैसा है। क्योंकि इसमें तुकबंदी की तो बहुत गुंज़ाइश थी लेकिन शे’र कहना बहुत कठिन। इसी वज़ह से तीन-चार शायरों को हम इसमें शामिल नहीं कर सके । दानिश भारती जी(मुफ़लिस) ने कुछ ग़ल्तियों की तरफ़ इशारा किया था, उनको हमने सुधारने की कोशिश की है और आप सबसे गुज़ारिश है कि कहीं कुछ ग़ल्ति नज़र आए तो ज़रूर बताएँ। हमारा मक़सद यह भी रहता है कि नये प्रयासों को भी आपके सामने लेकर आएँ और अनुभवी शायरों को भी। भावनाएँ तो हर शायर की एक जैसी होती हैं लेकिन उनको व्यक्त करने की शैली जुदा होती है। और यही अंदाज़े-बयां एक शायर को दूसरे से जुदा करता है और यही महत्वपूर्ण है।
द्विज जी का ये शे’र
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-
द्विजेंद्र द्विज
चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो
अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो
आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो
सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो
जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो
द्विज जी का ये शे’र
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-
द्विजेंद्र द्विज
चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो
अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो
आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो
सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो
जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो
Thursday, November 25, 2010
सोच के दीप जला कर देखो-आठवीं क़िस्त
पहले शायर : कमल नयन शर्मा । आप द्विज जी के भाई हैं और एयर-फ़ोर्स में हैं। इस मंच पर हम इनका स्वागत करते हैं।
कमल नयन शर्मा
दुख को मीत बना कर देखो
खुद को सँवरा पा कर देखो
मिलता है वो, मिल जाएगा
मन के अंदर जाकर देखो
कब भरते हैं पेट दिलासे
असली फ़स्लें पाकर देखो
भर देंगे वो तेरी झोली
उनकी धुन में गा कर देखो
कब लौटे है जाने वाले
फिर भी आस लगाकर देखो
मत भटको यूं द्वारे-द्वारे
सोच के दीप जला कर देखो
आप 'कमल' खुद खिल जाओगे
जल से बाहर आकर देखो
दूसरे शायर हैं जनाब कवि कुलवंत जी
कुलवंत सिंह
सोच के दीप जला कर देखो
खुशियां जग बिखरा कर देखो
सबको मीत बना कर देखो
प्रेम का पाठ पढ़ा कर देखो
खून बने अपना ही दुश्मन
हक़ अपना जतला कर देखो
मज़मा दो पल में लग जाता
कुछ सिक्के खनका कर देखो
सिलवट माथे दिख जायेंगी
शीशे को चमका कर देखो
जनता उलझी है सालों से
नेता को उलझा कर देखो
खुद में खोये यह बहरे हैं
जोर से ढ़ोल बजा कर देखो
और शाइरा निर्मला कपिला जी का स्वागत है आज की ग़ज़ल पर।
निर्मला कपिला
मन की मैल हटा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो
सुख में साथी सब बन जाते
दुख में साथ निभा कर देखो
राम खुदा का झगडा प्यारे
अब सडकों पर जा कर देखो
लडने से क्या हासिल होगा?
मिलजुल हाथ मिला कर देखो
औरों के घर रोज़ जलाते
अपना भी जलवा कर देखो
देता झोली भर कर सब को
द्वार ख़ुदा के जाकर देखो
बिन रोजी के जीना मुश्किल
रोटी दाल चला कर देखो
कमल नयन शर्मा
दुख को मीत बना कर देखो
खुद को सँवरा पा कर देखो
मिलता है वो, मिल जाएगा
मन के अंदर जाकर देखो
कब भरते हैं पेट दिलासे
असली फ़स्लें पाकर देखो
भर देंगे वो तेरी झोली
उनकी धुन में गा कर देखो
कब लौटे है जाने वाले
फिर भी आस लगाकर देखो
मत भटको यूं द्वारे-द्वारे
सोच के दीप जला कर देखो
आप 'कमल' खुद खिल जाओगे
जल से बाहर आकर देखो
दूसरे शायर हैं जनाब कवि कुलवंत जी
कुलवंत सिंह
सोच के दीप जला कर देखो
खुशियां जग बिखरा कर देखो
सबको मीत बना कर देखो
प्रेम का पाठ पढ़ा कर देखो
खून बने अपना ही दुश्मन
हक़ अपना जतला कर देखो
मज़मा दो पल में लग जाता
कुछ सिक्के खनका कर देखो
सिलवट माथे दिख जायेंगी
शीशे को चमका कर देखो
जनता उलझी है सालों से
नेता को उलझा कर देखो
खुद में खोये यह बहरे हैं
जोर से ढ़ोल बजा कर देखो
और शाइरा निर्मला कपिला जी का स्वागत है आज की ग़ज़ल पर।
निर्मला कपिला
मन की मैल हटा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो
सुख में साथी सब बन जाते
दुख में साथ निभा कर देखो
राम खुदा का झगडा प्यारे
अब सडकों पर जा कर देखो
लडने से क्या हासिल होगा?
मिलजुल हाथ मिला कर देखो
औरों के घर रोज़ जलाते
अपना भी जलवा कर देखो
देता झोली भर कर सब को
द्वार ख़ुदा के जाकर देखो
बिन रोजी के जीना मुश्किल
रोटी दाल चला कर देखो
Monday, November 22, 2010
सोच के दीप जला कर देखो-सातवीं क़िस्त
रंजन के इस खूबसूरत शे’र-
कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो
के साथ हाज़िर हैं तरही की अगली दो ग़ज़लें-
रंजन गोरखपुरी
नफ़रत बैर मिटा कर देखो
प्यार के फूल खिला कर देखो
गुंजाइश मुस्कान की है बस
बिगडी बात बना कर देखो
ग़ज़लें बेशक छलकेंगी फिर
बस तस्वीर उठा कर देखो
डोर जुडी हो अब भी शायद
वक्त की धूल उड़ा कर देखो
मुझसे सरहद अक्सर कहती
मसले चंद भुला कर देखो
राम को फिर वनवास मिला है
आज अयोध्या जा कर देखो
मिले बुलंदी बेशक साहेब
घर में वक्त बिता कर देखो
कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो
अरसे बाद मिले हो "रंजन"
कोई शेर सुना कर देखो
डा.अजमल हुसैन खान माहक
हाथ से हाथ मिला कर देखो
सपने साथ सजा कर देखो
दुनिया तकती किसकी जानिब
"ओवामा" तुम आ कर देखो
हैं नादाँ जो दीवाने से
उनको भी समझा कर देखो
सब अँधियारा मिट जायेगा
सोच के दीप जला कर देखो
बात नही ये रुकने वाली
"माहक" आस लगा कर देखो।
कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो
के साथ हाज़िर हैं तरही की अगली दो ग़ज़लें-
रंजन गोरखपुरी
नफ़रत बैर मिटा कर देखो
प्यार के फूल खिला कर देखो
गुंजाइश मुस्कान की है बस
बिगडी बात बना कर देखो
ग़ज़लें बेशक छलकेंगी फिर
बस तस्वीर उठा कर देखो
डोर जुडी हो अब भी शायद
वक्त की धूल उड़ा कर देखो
मुझसे सरहद अक्सर कहती
मसले चंद भुला कर देखो
राम को फिर वनवास मिला है
आज अयोध्या जा कर देखो
मिले बुलंदी बेशक साहेब
घर में वक्त बिता कर देखो
कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो
अरसे बाद मिले हो "रंजन"
कोई शेर सुना कर देखो
डा.अजमल हुसैन खान माहक
हाथ से हाथ मिला कर देखो
सपने साथ सजा कर देखो
दुनिया तकती किसकी जानिब
"ओवामा" तुम आ कर देखो
हैं नादाँ जो दीवाने से
उनको भी समझा कर देखो
सब अँधियारा मिट जायेगा
सोच के दीप जला कर देखो
बात नही ये रुकने वाली
"माहक" आस लगा कर देखो।
Saturday, November 20, 2010
सोच के दीप जला कर देखो- छटी क़िस्त
इस ब्लागिंग के ज़रिये एक नया परिवार बन गया है-ग़ज़ल परिवार। जिनके मुखिया जैसे थे महावीर जी। उनका अचनाक चले जाना बहुत दुखद है। हम सब अब एक अनोखे से बंधन में बंध गए हैं। शब्दों और शे’रों का रिश्ता सा बन गया है आप सब से। है तो ये सब एक सपना सा ही लेकिन हक़ीकत से कम नहीं। खैर! ये तो रंग-मंच है। जब अपना क़िरदार ख़त्म हुआ तो परदे के पीछे चले जाना हैं। लेकिन खेल चलता रहता है , यही सब से बड़ी माया है। महावीर जी को आज की ग़ज़ल की तरफ से विनम्र श्रदाँजलि। तरही मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।
मुशायरे के अगले शायर और शाइरा हिमाचल प्रदेश से हैं। मिसरा-ए-तरह" सोच के दीप जला कर देखो" पर इनकी ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए।
चंद्र रेखा ढडवाल
सूनी आँख सजा कर देखो
सपना एक जगा कर देखो
यह भी एक दुआ, पिंजरे से
पाखी एक उड़ा कर देखो
तपती रेत पे सहरा की तुम
दरिया एक बहा कर देखो
उसको भी हँसना आता है
मीठे बोल सुना कर देखो
वो भी जी का हाल कहेगा
अपना हाल सुना कर देखो
राह सिमट जाएगी पल में
बस इक पाँव बढ़ाकर देखो
अपना चाहा बहुत दिखाया
मेरा ख़्वाब दिखाकर देखो
धू-धू जलती इस बस्ती में
अपना आप बचाकर देखो
वक़्त बहुत धुँधला-धुँधला है
सोच के दीप जलाकर देखो
जान तुम्हारी के सौ सदक़े
ग़ैर की जान बचा कर देखो
जोग निभाना तो आसाँ है
रिश्ता एक निभा कर देखो
एम.बी.शर्मा मधुर
सोये ख़्वाब जगा कर देखो
दुनिया और बना कर देखो
हो जाएँगी सदियाँ रौशन
सोच के दीप जला कर देखो
रूठो यार से लेकिन पहले
मन की बात बता कर देखो
मिल जाएगा कोई तो अपना
सबसे हाथ मिलाकर देखो
शर्म-हया का नूर है अपना
यह तुम शम्अ बुझाकर देखो
सर टकराने वाले लाखों
तुम दीवार बनाकर देखो
सबका है महबूब तसव्वुर
पंख ‘मधुर’ ये लगाकर देखो
मुशायरे के अगले शायर और शाइरा हिमाचल प्रदेश से हैं। मिसरा-ए-तरह" सोच के दीप जला कर देखो" पर इनकी ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए।
चंद्र रेखा ढडवाल
सूनी आँख सजा कर देखो
सपना एक जगा कर देखो
यह भी एक दुआ, पिंजरे से
पाखी एक उड़ा कर देखो
तपती रेत पे सहरा की तुम
दरिया एक बहा कर देखो
उसको भी हँसना आता है
मीठे बोल सुना कर देखो
वो भी जी का हाल कहेगा
अपना हाल सुना कर देखो
राह सिमट जाएगी पल में
बस इक पाँव बढ़ाकर देखो
अपना चाहा बहुत दिखाया
मेरा ख़्वाब दिखाकर देखो
धू-धू जलती इस बस्ती में
अपना आप बचाकर देखो
वक़्त बहुत धुँधला-धुँधला है
सोच के दीप जलाकर देखो
जान तुम्हारी के सौ सदक़े
ग़ैर की जान बचा कर देखो
जोग निभाना तो आसाँ है
रिश्ता एक निभा कर देखो
एम.बी.शर्मा मधुर
सोये ख़्वाब जगा कर देखो
दुनिया और बना कर देखो
हो जाएँगी सदियाँ रौशन
सोच के दीप जला कर देखो
रूठो यार से लेकिन पहले
मन की बात बता कर देखो
मिल जाएगा कोई तो अपना
सबसे हाथ मिलाकर देखो
शर्म-हया का नूर है अपना
यह तुम शम्अ बुझाकर देखो
सर टकराने वाले लाखों
तुम दीवार बनाकर देखो
सबका है महबूब तसव्वुर
पंख ‘मधुर’ ये लगाकर देखो
Thursday, November 18, 2010
श्रदाँजलि
(1933-2010)
हमारे बहुत ही प्रिय , आदरणीय तथा मार्गदर्शक श्री महावीर शर्मा जी अब हमारे बीच नहीं रहे । शायर और लेखक महावीर शर्मा जी से सारा ब्लाग जगत वाकिफ़ है। आज ही ये दुखद समाचार हमें मिला है। प्रमात्मा इस बिछड़ी हुई आत्मा को शांति दे। हम इस अज़ीम शायर को श्रदाँजलि देते हैं।
Monday, November 15, 2010
मुशायरे के अगले दो शायर
मिसार-ए-तरह" सोच के दीप जला कर देखो" पर अगली दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए ।
जोगेश्वर गर्ग
जागो और जगा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो
खूब हिचक होती है जिन पर
वो सब राज़ बता कर देखो
आग लगाने वाले लोगो
इक दिन आग बुझा कर देखो
बारिश चूती छत के नीचे
सारी रात बिता कर देखो
कोई नहीं जिनका उन सब को
सीने से चिपका कर देखो
बच्चों के नन्हे हाथों को
तारे चाँद थमा कर देखो
"जोगेश्वर" उनकी महफ़िल में
अपनी ग़ज़ल सुना कर देखो
कुमार ज़ाहिद
लरज़ी पलक उठा कर देखो
ताब पै आब चढ़ा कर देखो
गिर जाएंगी सब दीवारें
सर से बोझ गिरा कर देखो
दुनिया को फिर धोक़ा दे दो
हँसकर दर्द छुपा कर देखो
तुम पर्वत को राई कर दो
दम भर ज़ोर लगा कर देखो
बंजर में भी फूल खिलेंगे
कड़ी धूप में जा कर देखो
अँधियारे में सुबह छुपी है
सोच के दीप जला कर देखो
लिपट पड़ेगी झूम के तुमसे
कोई शाख़ हिला कर देखो
ख़ाली हाथ नहीं है कोई
बढ़कर हाथ मिला कर देखो
ज़िन्दा हर तस्वीर है ‘ज़ाहिद’
टूटे कांच हटा कर देखो
जोगेश्वर गर्ग
जागो और जगा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो
खूब हिचक होती है जिन पर
वो सब राज़ बता कर देखो
आग लगाने वाले लोगो
इक दिन आग बुझा कर देखो
बारिश चूती छत के नीचे
सारी रात बिता कर देखो
कोई नहीं जिनका उन सब को
सीने से चिपका कर देखो
बच्चों के नन्हे हाथों को
तारे चाँद थमा कर देखो
"जोगेश्वर" उनकी महफ़िल में
अपनी ग़ज़ल सुना कर देखो
कुमार ज़ाहिद
लरज़ी पलक उठा कर देखो
ताब पै आब चढ़ा कर देखो
गिर जाएंगी सब दीवारें
सर से बोझ गिरा कर देखो
दुनिया को फिर धोक़ा दे दो
हँसकर दर्द छुपा कर देखो
तुम पर्वत को राई कर दो
दम भर ज़ोर लगा कर देखो
बंजर में भी फूल खिलेंगे
कड़ी धूप में जा कर देखो
अँधियारे में सुबह छुपी है
सोच के दीप जला कर देखो
लिपट पड़ेगी झूम के तुमसे
कोई शाख़ हिला कर देखो
ख़ाली हाथ नहीं है कोई
बढ़कर हाथ मिला कर देखो
ज़िन्दा हर तस्वीर है ‘ज़ाहिद’
टूटे कांच हटा कर देखो
Saturday, November 13, 2010
चौथी क़िस्त - सोच के दीप जला कर देखो
इस चौथी क़िस्त में हम मिसरा-ए-तरह " सोच के दीप जला कर देखो" पर नवनीत शर्मा और तिलक राज कपूर की ग़ज़लें पेश कर रहे हैं। उम्मीद है कि ये ग़ज़लें आपको पसंद आऐंगी।
नवनीत शर्मा
खुद को शक्ल दिखा कर देखो
शख्स नया इक पा कर देखो
भरी रहेगी यूं ही दुनिया
आकर देखो, जाकर देखो
गा लेते हैं अच्छा सपने
दिल का साज बजा कर देखो
पीठ में सूरज की अंधियारा
उसके पीछे जा कर देखो
आ जाओगे खुद ही सुर में
अपना होना गा कर देखो
क्या तेरा , क्या मेरा प्यारे
ये मरघट में जाकर देखो
मिल जाएं तो उनसे कहना
मेरे घर भी आकर देखो
डूबा है जो ध्यान में कब से
उसके ध्यान में आकर देखो
दूजे के ज़ख्मों पर मरहम
ये राहत भी पा कर देखो
ज़ेहन में कितनी तारीकी है
सोच के दीप जला कर देखो
दूसरे शायर:
तिलक राज कपूर
चोट जिगर पर खाकर देखो
फिर दिल को समझा कर देखो
जाने क्या-क्या सीखोगे तुम
इक बच्चा बहला कर देखो
जिसकी कोई नहीं सुनता है
उसकी पीड़ा गा कर देखो।
कुछ देने का वादा है तो
बदरी जैसे छा कर देखो
जिसको ठुकराते आये हो
उसको भी अपना कर देखो
लड़ना है काली रातों से
सोच के दीप जला कर देखो
खून पसीने की, मेहनत की
रोटी इक दिन खाकर देखो
दर्द लहू का क्या होता है
अपना खून बहा कर देखो
चिंगारी की फि़त्रत है तो
घर में आग लगाकर देखो
अगर दबाने की इच्छा है
चाहत एक दबा कर देखो
‘राही’ नाज़ुक दिल है इसको
ऐसे मत इठला कर देखो
नवनीत शर्मा
खुद को शक्ल दिखा कर देखो
शख्स नया इक पा कर देखो
भरी रहेगी यूं ही दुनिया
आकर देखो, जाकर देखो
गा लेते हैं अच्छा सपने
दिल का साज बजा कर देखो
पीठ में सूरज की अंधियारा
उसके पीछे जा कर देखो
आ जाओगे खुद ही सुर में
अपना होना गा कर देखो
क्या तेरा , क्या मेरा प्यारे
ये मरघट में जाकर देखो
मिल जाएं तो उनसे कहना
मेरे घर भी आकर देखो
डूबा है जो ध्यान में कब से
उसके ध्यान में आकर देखो
दूजे के ज़ख्मों पर मरहम
ये राहत भी पा कर देखो
ज़ेहन में कितनी तारीकी है
सोच के दीप जला कर देखो
दूसरे शायर:
तिलक राज कपूर
चोट जिगर पर खाकर देखो
फिर दिल को समझा कर देखो
जाने क्या-क्या सीखोगे तुम
इक बच्चा बहला कर देखो
जिसकी कोई नहीं सुनता है
उसकी पीड़ा गा कर देखो।
कुछ देने का वादा है तो
बदरी जैसे छा कर देखो
जिसको ठुकराते आये हो
उसको भी अपना कर देखो
लड़ना है काली रातों से
सोच के दीप जला कर देखो
खून पसीने की, मेहनत की
रोटी इक दिन खाकर देखो
दर्द लहू का क्या होता है
अपना खून बहा कर देखो
चिंगारी की फि़त्रत है तो
घर में आग लगाकर देखो
अगर दबाने की इच्छा है
चाहत एक दबा कर देखो
‘राही’ नाज़ुक दिल है इसको
ऐसे मत इठला कर देखो
Thursday, November 11, 2010
मुशायरे की तीसरी क़िस्त
इस क़िस्त में आज की ग़ज़ल पर पहली बार शाइरा डॉ कविता'किरण'की ग़ज़ल पेश कर रहे हैं। मैं तहे-दिल से इनका इस मंच पर स्वागत करता हूँ। इनका एक शे’र मुलाहिज़ा कीजिए जो शाइरा के तेवर और कहन का एक खूबसूरत नमूना है-
कलम अपनी,जुबां अपनी, कहन अपनी ही रखती हूँ,
अंधेरों से नहीं डरती 'किरण' हूँ खुद चमकती हूँ,
इससे बेहतर और क्या परिचय हो सकता है। खैर ! लीजिए मिसरा-ए-तरह "सोच के दीप जला कर देखो " पर इनकी ये ग़ज़ल-
डॉ कविता'किरण'
चाहे आँख मिला कर देखो
चाहे आँख बचा कर देखो
लोग नहीं, रिश्ते रहते हैं
मेरे घर में आकर देखो
रोज़ देखते हो आईना
आज नकाब उठा कर देखो
समझ तुम्हारी रोशन होगी
सोच के दीप जला कर देखो
दर्द सुरीला हो जायेगा
दिल से इसको गा कर देखो
और अब पेश है देवी नांगरानी जी की ग़ज़ल । आप तो बहुत पहले से आज की ग़ज़ल से जुड़ी हुई हैं।
देवी नांगरानी
चोट खुशी में खा कर देखो
गम में जश्न मना कर देखो
बात जो करनी है पत्थर से
लब पे मौन सजा कर देखो
बचपन फिर से लौट आएगा
गीत खुशी के गा कर देखो
बिलख रहा है भूख से बच्चा
उसकी भूख मिटा कर देखो
जीवन भी इक जंग है देवी
हार में जीत मना कर देखो
इस बहर के बारे में कुछ चर्चा करना चाहता हूँ। ये बड़ी सीधी-सरल लगने वाली बहर भी बड़ी पेचीदा है। मसलन इस बहर में कुछ छूट है जो बड़े-बड़े शायरों ने ली भी है लेकिन कई शायर या अरूज़ी इसे वर्जित भी मानते हैं। हिंदी स्वभाव कि ये बहरें हमेशा चर्चा का विषय बनी रहती हैं। चार फ़ेलुन की ये बहर है तो मुतदारिक की मुज़ाहिफ़ शक्ल लेकिन ये किसी मात्रिक छंद से भी मेल खा सकती है सो ये बहस का मुद्दा बन जाता है। और ये देखिए जिस ग़ज़ल से मिसरा दिया उसमें देखिए-
किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गा कर देखो
इस शे’र में मिसरा 12 से शुरू हुआ है।
जाग जाग कर उम्र कटी है
नींद के द्वार हिला कर देखो
और यहाँ पर 21 21 से शुरू हुआ। सो हम ये छूट ले सकते हैं लेकिन जो लय फ़ेलुन(22) से बनेगी वो यकी़नन बेहतर होगी। इसीलिए मैं सारे मिसरों और शब्दों के फ़ेलुन में होने की गुज़ारिश करता हूँ।
कलम अपनी,जुबां अपनी, कहन अपनी ही रखती हूँ,
अंधेरों से नहीं डरती 'किरण' हूँ खुद चमकती हूँ,
इससे बेहतर और क्या परिचय हो सकता है। खैर ! लीजिए मिसरा-ए-तरह "सोच के दीप जला कर देखो " पर इनकी ये ग़ज़ल-
डॉ कविता'किरण'
चाहे आँख मिला कर देखो
चाहे आँख बचा कर देखो
लोग नहीं, रिश्ते रहते हैं
मेरे घर में आकर देखो
रोज़ देखते हो आईना
आज नकाब उठा कर देखो
समझ तुम्हारी रोशन होगी
सोच के दीप जला कर देखो
दर्द सुरीला हो जायेगा
दिल से इसको गा कर देखो
और अब पेश है देवी नांगरानी जी की ग़ज़ल । आप तो बहुत पहले से आज की ग़ज़ल से जुड़ी हुई हैं।
देवी नांगरानी
चोट खुशी में खा कर देखो
गम में जश्न मना कर देखो
बात जो करनी है पत्थर से
लब पे मौन सजा कर देखो
बचपन फिर से लौट आएगा
गीत खुशी के गा कर देखो
बिलख रहा है भूख से बच्चा
उसकी भूख मिटा कर देखो
जीवन भी इक जंग है देवी
हार में जीत मना कर देखो
इस बहर के बारे में कुछ चर्चा करना चाहता हूँ। ये बड़ी सीधी-सरल लगने वाली बहर भी बड़ी पेचीदा है। मसलन इस बहर में कुछ छूट है जो बड़े-बड़े शायरों ने ली भी है लेकिन कई शायर या अरूज़ी इसे वर्जित भी मानते हैं। हिंदी स्वभाव कि ये बहरें हमेशा चर्चा का विषय बनी रहती हैं। चार फ़ेलुन की ये बहर है तो मुतदारिक की मुज़ाहिफ़ शक्ल लेकिन ये किसी मात्रिक छंद से भी मेल खा सकती है सो ये बहस का मुद्दा बन जाता है। और ये देखिए जिस ग़ज़ल से मिसरा दिया उसमें देखिए-
किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गा कर देखो
इस शे’र में मिसरा 12 से शुरू हुआ है।
जाग जाग कर उम्र कटी है
नींद के द्वार हिला कर देखो
और यहाँ पर 21 21 से शुरू हुआ। सो हम ये छूट ले सकते हैं लेकिन जो लय फ़ेलुन(22) से बनेगी वो यकी़नन बेहतर होगी। इसीलिए मैं सारे मिसरों और शब्दों के फ़ेलुन में होने की गुज़ारिश करता हूँ।
Monday, November 8, 2010
तरही मुशायरे के दूसरे शायर
दानिश भारती जी को पहचाना क्या?..ये हैं अपने मुफ़लिस जी जिन्होंने अपना अदबी नाम बदल लिया है।
मुशायरे के दूसरे शायर हैं जनाब दानिश भारती। इनका फोटो अभी खाली रखा है , कल तक इनकी तस्वीर लगाऊँगा । इस शायर को आप सब भली-भाँति जानते हैं और इस राज़ पर से कल पर्दा उठेगा। अभी मुलाहिज़ा कीजिए दानिश भारती की मिसरा-ए - तरह " सोच के दीप जला कर देखो" पर ये ग़ज़ल-
दानिश भारती
सोये लफ़्ज़ जगा कर देखो
मन की बात बता कर देखो
इश्क़ में रस्म निभा कर देखो
हुस्न के नाज़ उठा कर देखो
दिल का चैन गँवा कर देखो
याद उसे भी आ कर देखो
मन में प्रीत बसा कर देखो
अपने ख़्वाब सजा कर देखो
महके, रिश्तों की ये बगिया
प्यार के फूल खिला कर देखो
मुश्किल कोई काम नहीं है
ख़ुद से शर्त लगा कर देखो
सच्चा सुख मिलता है इसमें
काम किसी के आ कर देखो
मुहँ में राम, बगल में छुरियाँ
ऐसी सोच मिटा कर देखो
रौशन हो मन का हर कोना
सोच के दीप जला कर देखो
एक और एक बनेंगे ग्यारह
मिल-जुल हाथ बढ़ा कर देखो
दर्पण सब सच-सच कह देगा
'दानिश' आँख मिला कर देखो .
Thursday, November 4, 2010
सोच के दीप जला कर देखो-तरही की पहली क़िस्त
सबको दीपावली की शुभकामनाओं के साथ इस तरही मुशायरे का आगाज़ करते हैं। मिसरा-ए तरह " सोच के दीप जला कर देखो" पर ग़ज़लें मिलनी शुरू हो चुकी हैं और जो शायर रह गए हैं उनसे भी अनुरोध है कि जल्दी ग़ज़ल पूरी करें और भेजें।हमारे पहले शायर हैं- चंद्रभान भारद्वाज । इनके इस खूबसूरत शे’र-
स्याह अमावस पूनम होगी
सोच के दीप जला कर देखो
के साथ लीजिए इनकी ये तरही ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
चंद्रभान भारद्वाज
मन को पंख लगाकर देखो
पार गगन के जाकर देखो
खुद आकाश सिमट जायेगा
बाँहों को फैला कर देखो
इतनी सुंदर बन न सकेगी
दुनिया लाख बना कर देखो
धरती स्वर्ग नज़र आएगी
दीवाली पर आ कर देखो
स्याह अमावस पूनम होगी
सोच के दीप जला कर देखो
आँखों में फुलझड़ियाँ चमकें
प्यार किसी का पा कर देखो
अपना दर्द छिपाकर रखना
औरों का सहला कर देखो
नफ़रत की ऊँची दीवारें
प्यार से आज ढहा कर देखो
'भारद्वाज' रसिक ग़ज़लों का
ग़ज़लें आप सुना कर देखो
दिपावली की ढेर सारी शुभकामनाएँ !
स्याह अमावस पूनम होगी
सोच के दीप जला कर देखो
के साथ लीजिए इनकी ये तरही ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
चंद्रभान भारद्वाज
मन को पंख लगाकर देखो
पार गगन के जाकर देखो
खुद आकाश सिमट जायेगा
बाँहों को फैला कर देखो
इतनी सुंदर बन न सकेगी
दुनिया लाख बना कर देखो
धरती स्वर्ग नज़र आएगी
दीवाली पर आ कर देखो
स्याह अमावस पूनम होगी
सोच के दीप जला कर देखो
आँखों में फुलझड़ियाँ चमकें
प्यार किसी का पा कर देखो
अपना दर्द छिपाकर रखना
औरों का सहला कर देखो
नफ़रत की ऊँची दीवारें
प्यार से आज ढहा कर देखो
'भारद्वाज' रसिक ग़ज़लों का
ग़ज़लें आप सुना कर देखो
दिपावली की ढेर सारी शुभकामनाएँ !
Wednesday, October 27, 2010
इक़बाल अरशद और इक़बाल बानो
पाकिस्तान के मुलतान शहर के शायर इक़बाल अरशद की एक बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल नज़्र कर रहा हूँ। जब किसी संजीदा शायर की सोच ग़म की खौफ़नाक गहराइयों में डूबती है तभी ऐसी ग़ज़ल की आमद होती है। सच्ची ग़ज़ल वही है जिसमें सुनने वाला तिनके तरह शे’रों के साथ बह जाए।
ग़ज़ल
रगों में ज़हर के नश्तर उतर गए चुप-चाप
हम अहले-दर्द जहाँ से गुज़र गए चुप-चाप
किसी पे तर्के-तअल्लुक का भेद खुल न सका
तेरी निगाह से हम यूँ उतर गए चुप-चाप
पलट के देखा तो कुछ भी न था हमारे सिवा
जो मेरे साथ थे जाने किधर गए चुप-चाप
उदास चहरों में रो-रो के दिन गुजारे मियां
ढली जो शाम तो हम अपने घर गए चुप-चाप
हमारी जान पे भारी था गम का अफ़साना
सुनी न बात किसी ने तो मर गए चुप-चाप
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
अब इस ग़ज़ल को इक़बाल बानो की दिलकश आवाज़ में सुनिए-
और तरही मुशायरे के मिसरे की एक बार फिर आपको याद दिला देता हूँ-
सोच के दीप जला कर देखो
बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ..आपकी ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा...धन्यवाद
ग़ज़ल
रगों में ज़हर के नश्तर उतर गए चुप-चाप
हम अहले-दर्द जहाँ से गुज़र गए चुप-चाप
किसी पे तर्के-तअल्लुक का भेद खुल न सका
तेरी निगाह से हम यूँ उतर गए चुप-चाप
पलट के देखा तो कुछ भी न था हमारे सिवा
जो मेरे साथ थे जाने किधर गए चुप-चाप
उदास चहरों में रो-रो के दिन गुजारे मियां
ढली जो शाम तो हम अपने घर गए चुप-चाप
हमारी जान पे भारी था गम का अफ़साना
सुनी न बात किसी ने तो मर गए चुप-चाप
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
अब इस ग़ज़ल को इक़बाल बानो की दिलकश आवाज़ में सुनिए-
और तरही मुशायरे के मिसरे की एक बार फिर आपको याद दिला देता हूँ-
सोच के दीप जला कर देखो
बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ..आपकी ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा...धन्यवाद
Monday, October 25, 2010
इस बार का तरही मुशायरा
इस बार का तरही मिसरा शायर जनाब मुहम्मद मुनीर ख़ाँ नियाज़ी की ग़ज़ल से लिया गया है। ये रहा मिसरा-
सोच के दीप जला कर देखो
बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ।
पूरा शे’र ऐसे है-
आज की रात बहुत काली है
सोच के दीप जला कर देखो
इस ग़ज़ल को आप गुलाम अली साहब की आवाज़ में सुन भी लीजिए-
तीन दिन के बाद आप ग़ज़लें भेज सकते हैं । बाकी फ़ेलुन की बहर है इसे मात्रिक छंद की तरह इस्तेमाल न करें और लघु से मिसरा न शुरू हो तो बेहतर है। उम्मीद करता हूँ कि ये मुशायरा यादगार होगा और सभी शायर , जो पिछले मुशायरों में हिस्सा ले चुके हैं वो शिरकत करेंगे और नये शायर भी तबअ आज़माई करेंगे।
सोच के दीप जला कर देखो
बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ।
पूरा शे’र ऐसे है-
आज की रात बहुत काली है
सोच के दीप जला कर देखो
इस ग़ज़ल को आप गुलाम अली साहब की आवाज़ में सुन भी लीजिए-
तीन दिन के बाद आप ग़ज़लें भेज सकते हैं । बाकी फ़ेलुन की बहर है इसे मात्रिक छंद की तरह इस्तेमाल न करें और लघु से मिसरा न शुरू हो तो बेहतर है। उम्मीद करता हूँ कि ये मुशायरा यादगार होगा और सभी शायर , जो पिछले मुशायरों में हिस्सा ले चुके हैं वो शिरकत करेंगे और नये शायर भी तबअ आज़माई करेंगे।
Monday, October 18, 2010
अमीर खु़सरो और कबीर को ख़िराजे-अक़ीदत-आलोक श्रीवास्तव
आलोक श्रीवास्तव जी ने ये दो ग़ज़लें द्विज जी को भेजी थीं। ये ग़ज़लें आप सब के लिए हाज़िर हैं। आलोक श्रीवास्तव शायरी में अपना एक अलग मुकाम रखते हैं, जिससे हम सब वाकिफ़ हैं और ये नाम किसी परिचय का मुहताज़ नहीं है। पहली ग़ज़ल अमीर खु़सरो की ज़मीन में है। ये ग़ज़ल बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल में है( फ़ऊल फ़ालुन x 4, 12122 x4)।
मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-
आलोक श्रीवास्तव
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां....अमीर ख़ुसरो
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां
दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ, मैं करना चाहूं नज़र से बतियां
ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है
सुलगती सांसे, तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां
उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुशबू
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा, किसी दरस में पिरोलूं अंखियां
मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां
दूसरी ग़ज़ल बहरे-हज़ज में है और कबीर जी की ज़मीन में कही गई है। ये ग़ज़ल पढ़िये-
आलोक श्रीवास्तव
हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ...कबीर
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या
चचा ग़ालिब की जूती हैं, उन्हीं के क़र्ज़दारी हैं
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या, उधारी क्या
धुएं की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या
उतर जाए है छाती में, जिगरवा काट डाले हैं
मुई महंगाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या
तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू, लहू के साथ बहती है
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या
सो ये थी कबीर और अमीर ख़ुसरो को ख़िराजे-अक़ीदत आलोक जी की तरफ़ से । कबीर के लिखे को हम शायरी नहीं कह सकते, बल्कि ये बानी है जिसे मंदिरों मे गाया जाता है। लेकिन शायरी महफिलों में गाई जाती हैं, मंदिरों में नहीं। शायद ग़ज़ल के इस स्वभाव को कबीर भाँप गए होंगे और इसी वज़ह से इस विधा से उन्होंने किनारा कर लिया। यही एक ग़ज़ल शायद उनकी मिलती है जिसे उन्होंने प्रयोगवश कहा होगा
संत कबीर :
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
निदा साहब ने भी कबीर की ज़मीन में ये ग़ज़ल कही है । निदा जी ने अमीर खुसरो की ज़मीन में भी एक-आध ग़ज़ल कही है, जिसे फिर कभी पेश करूँगा। अभी मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-
निदा फ़ाज़ली:
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.
ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.
उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.
हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या
सोच रहा हूँ कि एक तरही मुशायरा भी करवा दिया जाए। मिसरे का ज़िक्र अगली पोस्ट में करूँगा...धन्यवाद ।
मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-
आलोक श्रीवास्तव
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां....अमीर ख़ुसरो
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां
दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ, मैं करना चाहूं नज़र से बतियां
ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है
सुलगती सांसे, तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां
उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुशबू
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा, किसी दरस में पिरोलूं अंखियां
मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां
दूसरी ग़ज़ल बहरे-हज़ज में है और कबीर जी की ज़मीन में कही गई है। ये ग़ज़ल पढ़िये-
आलोक श्रीवास्तव
हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ...कबीर
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या
चचा ग़ालिब की जूती हैं, उन्हीं के क़र्ज़दारी हैं
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या, उधारी क्या
धुएं की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या
उतर जाए है छाती में, जिगरवा काट डाले हैं
मुई महंगाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या
तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू, लहू के साथ बहती है
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या
सो ये थी कबीर और अमीर ख़ुसरो को ख़िराजे-अक़ीदत आलोक जी की तरफ़ से । कबीर के लिखे को हम शायरी नहीं कह सकते, बल्कि ये बानी है जिसे मंदिरों मे गाया जाता है। लेकिन शायरी महफिलों में गाई जाती हैं, मंदिरों में नहीं। शायद ग़ज़ल के इस स्वभाव को कबीर भाँप गए होंगे और इसी वज़ह से इस विधा से उन्होंने किनारा कर लिया। यही एक ग़ज़ल शायद उनकी मिलती है जिसे उन्होंने प्रयोगवश कहा होगा
संत कबीर :
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
निदा साहब ने भी कबीर की ज़मीन में ये ग़ज़ल कही है । निदा जी ने अमीर खुसरो की ज़मीन में भी एक-आध ग़ज़ल कही है, जिसे फिर कभी पेश करूँगा। अभी मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-
निदा फ़ाज़ली:
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.
ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.
उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.
हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या
सोच रहा हूँ कि एक तरही मुशायरा भी करवा दिया जाए। मिसरे का ज़िक्र अगली पोस्ट में करूँगा...धन्यवाद ।
Tuesday, September 14, 2010
राहत इंदौरी साहब की एक और ताज़ा ग़ज़ल
राहत साहब को जब भी sms करके पूछें कि सर, ये आपकी ताज़ा ग़ज़ल ब्लाग पर लगा सकता हूँ? तो तुरंत ..हाँ..में जवाब आ जाता है। सो इस नेक दिल शायर की एक और ग़ज़ल हाज़िर है। मुलाहिज़ा कीजिए -
ग़ज़ल
सर पर बोझ अँधियारों का है मौला खैर
और सफ़र कोहसारों का है मौला खैर
दुशमन से तो टक्कर ली है सौ-सौ बार
सामना अबके यारों का है मौला खैर
इस दुनिया में तेरे बाद मेरे सर पर
साया रिश्तेदारों का है मौला खैर
दुनिया से बाहर भी निकलकर देख चुके
सब कुछ दुनियादारों का है मौला खैर
और क़यामत मेरे चराग़ों पर टूटी
झगड़ा चाँद-सितारों का है मौला खैर
(पाँच फ़ेलुन+ एक फ़े )
Monday, September 6, 2010
राहत साहब की ताज़ा ग़ज़ल
राहत इंदौरी साहब की कलम से ऐसा लगता है कि ज़िंदगी खु़द बोल रही हो। ख़याल सूफ़ीयों के से और लहज़ा दार्शनिकों जैसा । ऐसी शायरी वाहवाही के मुहताज़ नहीं बल्कि इसे सुनकर ज़िंदगी खु़द टकटकी लगा के देखना शुरू कर देती और धुँध के पार के उजालों को देखकर पलकें झपकती है और वापिस लौट आती है। मुलाहिज़ा कीजिए बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में ये ग़ज़ल-
ग़ज़ल
हौसले ज़िंदगी के देखते हैं
चलिए! कुछ रोज़ जी के देखते हैं
नींद पिछली सदी से ज़ख़्मी है
ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं
रोज़ हम एक अंधेरी धुँध के पार
काफ़िले रौशनी के देखते हैं
धूप इतनी कराहती क्यों है
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं
टकटकी बाँध ली है आँखों ने
रास्ते वापसी के देखते हैं
बारिशों से तो प्यास बुझती नहीं
आइए ज़हर पी के देखते हैं
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