Wednesday, April 9, 2008
देवी नांगरानी जी की एक ग़ज़ल और परिचय
परिचय:
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ:
ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन-
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन-
प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।
ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com
ग़ज़ल:
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.
बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.
काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.
हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.
फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.
बज़न :212, 212, 212,212
faailun-faailun-faailun-faailun
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।
ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com
ग़ज़ल:
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.
बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.
काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.
हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.
फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.
बज़न :212, 212, 212,212
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7 comments:
काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.
achha sher hua hai..
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.
badr saahab ka ek sher yaad aa gaya..
kagaz ka ye libaas charaghoN k shahr me
janaaN sambhal sambhal k chalo tum nashe me ho..
achhi ghazal hai..
बहुत खूबसूरत गजल.. देवी जी को तो गजल गाते भी सुना है..बेहद सुरीले स्वर में..उनके साथ पिछले हफ्ते ही गोष्ठी में..
बहुत खूब ग़ज़लें कहती हैं देवी नांगरानी जी। आप उनकी एक नहीं, चार-पाँच ग़ज़लें दें।
Priya bhai,
Aapka prayas achha hai. Gazalon ko Hindi me hi de n ki use roman me bhi. Shabdon par khas apni tippani ke shabdo par dhyan denge. Nishchit hi aapke prayas prashansniya hain.
Chandel
bahut sunder alfaaz hain ,,achha laga per key,,,,
Aap sabhi ki snehatmik tippiniyaan mera housla banaye rakhti hai.
bahut aabhar
ssneh
Devi Nangrani
हम भी बैठे थे महफ़िल में इस आस में,
उसने डाली न हमपे नज़र रो दिये। ख़ूबसूरत शे'र अच्छी ग़ज़ल्।
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