Monday, June 15, 2009
डी.के."मुफ़लिस" की ग़ज़लें और परिचय
1957 में पटियाला (पंजाब) मे जन्मे डी.के. सचदेवा जिनका तख़ल्लुस "मुफ़लिस" है , आजकल लुधियाना में बैंक मे कार्यरत हैं.शायरी मे कई सम्मान इन्होंने अर्जित किये हैं जैसे दुशयंत कुमार सम्मान, उपेन्द्र नाथ "अशक" सम्मान और समय-समय पर पत्र और पत्रिकाओं मे छपते रहे हैं. इनकी तीन ग़ज़लें आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए.
एक.
हादिसों के साथ चलना है
ठोकरें खा कर संभलना है
मुश्किलों की आग में तप कर
दर्द के सांचों में ढलना है
हों अगर कांटे भी राहों में
हर घडी बे-खौफ चलना है
जो अंधेरों को निगल जाए
बन के ऐसा दीप जलना है
वक़्त की जो क़द्र भूले, तो
जिंदगी भर हाथ मलना है
हासिले-परवाज़ हो आसाँ
रुख हवाओं का बदलना है
इन्तेहा-ए-आरजू बन कर
आप के दिल में मचलना है
जिंदगी से दोस्ती कर लो
दूर तक जो साथ चलना है
रात भर तू चाँद बन 'मुफलिस'
सुब्ह सूरज-सा निकलना है
दो.
वो भली थी या बुरी अच्छी लगी
ज़िन्दगी जैसी मिली अच्छी लगी
बोझ जो दिल पर था घुल कर बह गया
आंसुओं की ये नदी अच्छी लगी
चांदनी का लुत्फ़ भी तब मिल सका
जब चमकती धूप भी अच्छी लगी
जाग उट्ठी ख़ुद से मिलने की लगन
आज अपनी बेखुदी अच्छी लगी
दोस्तों की बेनियाज़ी देख कर
दुश्मनों की बेरुखी अच्छी लगी
आ गया अब जूझना हालात से
वक़्त की पेचीदगी अच्छी लगी
ज़हन में 'मुफलिस' उजाला छा गया
इल्मो-फ़न की रौशनी अच्छी लगी
तीन
रहे क़ायम जहाँ में प्यार प्यारे
फले-फूले ये कारोबार प्यारे
सुकून ओ चैन , अम्नो-आश्ती हो
सदा खिलता रहे गुलज़ार प्यारे
जियो ख़ुद और जीने दो सभी को
यही हो ज़िंदगी का सार प्यारे
हमेशा ही ज़माने से शिकायत
कभी ख़ुद से भी हो दो-चार प्यारे
शऊरे-ज़िंदगी फूलों से सीखो
करो तस्लीम हंस कर ख़ार प्यारे
लहू का रंग सब का एक-सा है
तो फिर आपस में क्यूं तक़रार प्यारे
किसी को क्या पड़ी सोचे किसी को
सभी अपने लिए बीमार प्यारे
बुजुर्गों ने कहा, सच ही कहा है
भंवर-जैसा है ये संसार प्यारे
तुम्हें जी भर के अपना प्यार देगी
करो तो ज़िंदगी से प्यार प्यारे
हुआ है मुब्तिला-ए-शौक़ 'मुफलिस'
नज़र आने लगे आसार प्यारे.
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18 comments:
Aapki rachanayein yahan padhkar achcha laga ..
आ गया अब जूझना हालात से
वक़्त की पेचीदगी अच्छी लगी
Undoubtedly, you are one of my favorite Poets of today!
God bless
RC
आदरणीय
मुफलिस जी
"
इल्मो-फ़न की रौशनी अच्छी लगी
और उसपे नग़मगी अच्छी लगी
ज़िन्दगी की चिलचिलाती धूप में
बरगदों की छाँव-सी अच्छी लगी
पाक है यह भी इबादत की तरह
आपकी यह शायरी अच्छी लगी"
द्विज
suno dil khol kar tareef hai ye
hamen achche lage ashaar pyaare
satpaal ji ka aabhaar, aur muflis ji ko bahut bahut bahut badhaai.
जिंदगी से दोस्ती कर लो
दूर तक जो साथ चलना है .
बोझ जो दिल पर था घुल कर बह गया
आंसुओं की ये नदी अच्छी लगी
हमेशा ही ज़माने से शिकायत
कभी ख़ुद से भी हो दो-चार प्यारे
मुफलिस साहेब की ये ही तो खूबी है..सादा जबान में कमाल की बात कह देना...वो ऐसे शख्श हैं जिनसे मैं अभी तक मिला नहीं लेकिन जब उनसे बात करता हूँ तो लगता है बरसों की पहचान है...किसी को अपना बना लेने की ये खूबी उनकी शायरी में भी झलकती है...शुक्रिया सतपाल जी उनकी ग़ज़लें पढने का मौका दिया...रब से दुआ है की वो यूँ ही हमेशा खूबसूरत अशआर की बारिश हम पर करते रहें....आमीन.
नीरज
har ek gazal kaabile taareef hai muflis jee ke baare me jaan kar bahu khushi hui aapka bahut bahut dhanyvad aur muflis ji ko badhaai
laajavaab
adhbhut
behatreen
kaabile taareef
Muflis saahab ki shaayri mein kuch hai jo JOGI hone ka ehsaas karaata hai........ roj marra ki vyavhaar aur jindagi ke lamhon ko likhti hai....
सतपाल जी अब जनाब मुफलिस जी के बारे में और उनके ग़ज़लगोई के बारे में क्या कहूँ इस खाकसार को एक बारी उनसे मिलने का सौभाग्य मिला है ... पहली ही बार मिला था मगर ऐसा लगा जैसे बर्षों से साथ रहते है ... और उनके खुद जुबान से शायरी का मजा लेना तो बस आप पूछो मत...उनकी सादादिली ने तो मेरा दिल चुरा लिया... आज उनकी तीनो गज़लें पढ़ के ऐसा लगा जैसे वो खुद सामने हो और पढ़ रहे है ... तीनो गज़लें अपने आप में मुकम्मल कोई एक शे'र लिख कर दुसरे शे'र से गुस्ताखी नहीं कर सकता... सलाम उनको और उनके लेखनी को ...
अर्श
Bahut hi sunder aur achoote kahyaloon se bharpoor har sher
मुश्किलों की आग में तप कर
दर्द के सांचों में ढलना है
khoob kaha hai
Devi Nnagrani
kis kis she'r ka zikra karen...........saari ghazalen umda hain ...har ik she'r behtreen hai
badhaai !
शुक्रिया सतपाल जी मुफ़लिस साहब की ग़ज़लें पढवाने के लिये. एक से बढकर एक. इतनी सादगी से ग़ज़लें कहना उनके ही बस की बात है. किसी एक शेर को कोट करने की हिम्मत नहीं हो पा रही.
प्रिय श्री सचदेवा साहब,
आपसे हुई फोन वार्तालाप के बाद भी आप का परिचय मेरे लिये मुफलिस ही रहा, आज जो यहाँ ना आता तो जान ही नही पाता।
आपसे इस पहचान में मिलकर बहुत अच्छा लगा।
आज के दौर को खूब खींचा है आपने :-
किसी को क्या पड़ी सोचे किसी को
सभी अपने लिए बीमार प्यारे
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
सतपाल जी,
मुफ़लिस साहब की ग़ज़लें पढवाने के लिये धन्यवाद।इतनी सादगी से बात कह देना उनके ही बस की बात है.....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....
Wah.. behtreen prastuti....
डी.के."मुफ़लिस" की हैँ ग़ज़लें फिक्र व फन का इम्तेज़ाज
वह बताते हैँ हमें क्या है ज़माने का मिज़ाज
उनका मेआर-ए- तग़ज़्ज़ुल है उसे बेहद पसंद
पेश करता है उन्हें अहमद अली बर्क़ी ख़ेराज
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
मुफ़लिस जी की ग़ज़लें पढीं! bahut khoob.
EINSTINE NE RELATIVITY THEORY KO SAMJHANE KE LIYE EK EXAMPLE DIYA THA KI "ACCHA WAKT JALDI NIKAL JAATA HAI AUR BURA WAQT BITAIYE NAHI BEETTA...."
MUFLIS JI AAP (LOG) AAIYE BAITHE BAATEIN HUIE (YA AGAR ARSH JI KE SHABDON MAIN KAHOON TO AAP LOGON NE MERI BATEEIN SUNI ) AUR WQUT YUN (CHUTKI) UD GAYA....
...USI KO YAAD KAR KAR KE MAN HIRAN AAP LOGON KE BLOG MAIN KULAANCHE MAAR RAHA HAI.....
....AUR ISE EHSAAS KE SAATH APLOGON KA INTZAAR RAHEGA:
"JAATE JAATE BATA GAYA WO MUJHE
DOOR MAIYNE JUDA NAHI HOTA..."
सही में लगता है पढ़ते पढ़ते के कानो में आवाज गूंजने शुरू हो जाती है मुफलिस जी की,,,,,
एक मिसरा ही पूरी गजल का लुत्फ़ दे जाता है उनकी आवाज़ में,,,,,उनके ख़ास अंदाज में,,,
हमारी खुशनसीबी के हम लोग साथ बैठे,,
zindgi se pyar karne par hii to zindgi hamen apna leti hai sach hi to hai....
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