Saturday, August 8, 2009

राजेश रेड्डी की ग़ज़लें और परिचय







22 जुलाई 1952 को जयपुर मे जन्मे श्री राजेश रेड्डी उन गिने-चुने शायरों में से हैं जिन्होंने ग़ज़ल की नई पहचान को और मजबूत किया और इसे लोगों ने सराहा भी .आप ने हिंदी साहित्य मे एम.ए. किया, फिर उसके बाद "राजस्थान पत्रिका" मे संपादन भी किया.आप नाटककार, संगीतकार, गीतकार और बहुत अच्छे गायक भी हैं.आप डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान हासिल कर चुके हैं.अभी आप आकाशवाणी मुंबई मे डायेरेक्टर सेल्स की हैसीयत से काम कर रहे हैं .जाने-माने ग़ज़ल गायक इनकी ग़ज़लों को गा चुके हैं. नेट पर इनकी कुछ ग़ज़लें हैं जिन्हें हम छाप सकते थे लेकिन जो ग़ज़लें नहीं हैं उनको हमने यहां हाज़िर किया है और ये राजेश जी की वज़ह से ही मुमकिन हुआ है मेरे एक अनुरोध पर उन्होंने अपना ग़ज़ल संग्रह "उड़ान"मुझे भेजा जिसकी बदौलत ये ग़ज़लें आप तक पहुंची और इसे हम दो या तीन हिस्सों मे पेश करेंगे. लीजिए पहली पाँच ग़ज़लें-

एक







ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
वहाँ भी रेत का अंबार होगा

ये सारे शहर मे दहशत सी क्यों हैं
यकीनन कल कोई त्योहार होगा

बदल जाएगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अख़बार होगा

उसे नाकामियां खु़द ढूंढ लेंगी
यहाँ जो साहिबे-किरदार होगा

समझ जाते हैं दरिया के मुसाफ़िर
जहां में हूँ वहां मंझदार होगा

वो निकला है फिर इक उम्मीद लेकर
वो फिर इक दर्द से दो-चार होगा

ज़माने को बदलने का इरादा
तू अब भी मान ले बेकार होगा

दो






कोई इक तिशनगी कोई समुन्दर लेके आया है
जहाँ मे हर कोई अपना मुकद्दर लेके आया है

तबस्सुम उसके होठों पर है उसके हाथ मे गुल है
मगर मालूम है मुझको वो खंज़र लेके आया है

तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है

बसा था शहर में बसने का इक सपना जिन आँखों में
वो उन आँखों मे घर जलने का मंज़र लेके आया है

न मंज़िल है न मंज़िल की है कोई दूर तक उम्मीद
ये किस रस्ते पे मुझको मेरा रहबर लेके आया है

तीन






निगाहों में वो हैरानी नहीं है
नए बच्चों में नादानी नहीं है

ये कैसा दौर है कातिल के दिल में
ज़रा सी भी पशेमानी नहीं है

नज़र के सामने है ऐसी दुनिया
जो दिल की जानी पहचानी नहीं है

जो दिखता है वो मिट जाता है इक दिन
नहीं दिखता वो, जो फ़ानी नहीं है

खु़दा अब ले ले मुझसे मेरी दुनिया
मेरे बस की ये वीरानी नहीं है

कोई तो बात है मेरे सुख़न मे
ये दुनिया यूँ ही दीवानी नहीं है

चार







मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे
खु़दा इस समुन्दर का पानी बदल दे

कई बाक़ये यूँ लगे, जैसे कोई
सुनाते-सुनाते कहानी बदल दे

न आया तमाम उम्र आखि़र न आया
वो पल जो मेरी ज़िंदगानी बदल दे

उढ़ा दे मेरी रूह को इक नया तन
ये चादर है मैली- पुरानी, बदल दे

है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे

पाँच






डाल से बिछुड़े परिंदे आसमाँ मे खो गए
इक हकी़क़त थे जो कल तक दास्तां मे खो गए

जुस्तजू में जिसकी हम आए थे वो कुछ और था
ये जहाँ कुछ और है हम जिस जहाँ मे खो गए

हसरतें जितनी भी थीं सब आह बनके उड़ गईं
ख़्वाब जितने भी थे सब अश्के-रवाँ मे खो गए

लेके अपनी-अपनी किस्मत आए थे गुलशन मे गुल
कुछ बहारों मे खिले और कुछ ख़िज़ाँ में खो गए

ज़िंदगी हमने सुना था चार दिन का खेल है
चार दिन अपने तो लेकिन इम्तिहाँ मे खो गए

अगली पाँच ग़ज़लें जल्द हाज़िर करूंगा.

10 comments:

Yunus Khan said...

हमने उन्‍हें करीब से देखा है । उनके साथ काम किया है । एक शानदार शख्सियत एक संजीदा शायर ।
शुक्रिया इस पेशकश के लिए ।

रंजन गोरखपुरी said...

पीडा, प्रार्थना, संजीदगी और इंकलाब का अनूठा संगम!
बेशक आपका ये शेर बिलकुल मुकम्मल है:

कोई तो बात है मेरे सुख़न मे
ये दुनिया यूँ ही दीवानी नहीं है

सतपाल साहब को पुनः आभार!

गौतम राजऋषि said...

हम तो एक अर्से से भक्त हैं रेड्डी साब के...और उनकी प्रकाशित दोनों संकलन "उड़ान" और "आसमान से आगे" पर अपनी मिल्कियत है....

Arshia Ali said...

Shaandaar gazlen hain, Aabhaar.
{ Treasurer-T & S }

BrijmohanShrivastava said...

"वहां भी " अच्छा प्रयोग है ,रेत का ढेर इस पार भी हैं |हर त्यौहार पर दहशत सही बात है ""क्या कहीं पर कोई बस्ती उजड़ी ,लोग क्यों जश्न मनाने आये |स्वाभाविक है बच्चों का अखवार पढ़ कर बदल जाना बहुत सही बात है जो साहिबे किरदार है वे स्वम ही नाकामियां ढूंढ लेंगे वरना नाकामियों को उन्हें तलाश करना ही है |नदी का तैराक भी समझ जाते है की जहाँ ये है वहां मझदार दोगा ही ,और फिर बचाने की कोशिश में कहेंगे ""डूब जाना जी तेरे हक में रहेगा बेहतर ,मशवरा मुझको ये देते हैं बचाने वाले |उम्मीद लगाने पर दर्द प्राप्त होंगा ही ,,सही बात है |ज़माने को बदलने वाले बहुत आये और चले गए| वही रफ़्तार बेढंगी जो पहले थी सो अब भी है
2
सही है किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया |मुख में राम बगल में छुरी वाली बात |उनकी महफिल से तनहा लौटने वाली बात सुंदर है |दर्द भरा शेर कि जहाँ बसने की उम्मीद पाली थीं वहीं ये मंजर हुए "" बड़ी उम्मीद से हमने जिसे बनाया था ,मकां वो जल गया थोड़ी सी रौशनी के लिए |मंजिल दिखने की लालच में ऐसी जगह छोड़ गया ""सुलगती आग ,दहकता ख्याल ,तपता बदन -कहाँ पे छोड़ गया कारवां बहारों का "
( तीन .चार ,पॉँच पढ़ तो ली हैं |अब उनकी टिप्पणियाँ मैं अपने दिल में ही करूंगा

kavi kulwant said...

ek se badh kar ek gazalen..
bahut khoob

Anonymous said...

ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
वहाँ भी रेत का अंबार होगा
wah!wa
मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे
खु़दा इस समुन्दर का पानी बदल दे
we know it not ppssible but we wish to change!!
ज़िंदगी हमने सुना था चार दिन का खेल है
चार दिन अपने तो लेकिन इम्तिहाँ मे खो गए
kya baat hai.

kashmir singh

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

राजेश रेड्डी बहुत प्यारे दोस्त और उम्दा शायर हैं। पहली अगस्त को मेरे साथ उन्होंने कविता पाठ किया । वो ग़ज़ल भी सुनाई जिसमें हासिले-मुशायरा शेर है-

मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है....

देवमणि पाण्डेय, मुम्बई

dheer said...

ये सारे शहर मे दहशत सी क्यों हैं
यकीनन कल कोई त्योहार होगा

तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है

जो दिखता है वो मिट जाता है इक दिन
नहीं दिखता वो, जो फ़ानी नहीं है

न आया तमाम उम्र आखि़र न आया
वो पल जो मेरी ज़िंदगानी बदल दे

उढ़ा दे मेरी रूह को इक नया तन
ये चादर है मैली- पुरानी, बदल दे

ati sundar!! meree hazaar_haa daad aur Satpal saHeb ko dhanyavaad.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सतपाल जी,
नमस्कार,
"ये सारे शहर मे दहशत सी क्यों हैं
यकीनन कल कोई त्योहार होगा"
राजेश रेड्डी जी की ग़ज़लें बहुत ही अच्छी लगीं....बहुत उम्दा शेर......बहुत बहुत बधाई....