पहले तुम वक़्त के माथे की लक़ीरों से मिलो
जाओ फुटपाथ के बिखरे हुए हीरों से मिलो
पदम श्री लोदी मोहम्मद शफ़ी खान उर्फ़ बेकल उत्साही शायरी की दुनिया का एक चमकता सितारा है। इनका जन्म 1924 उ.प्र. मे हुआ। इन्होंने हिंदी,उर्दू मे ग़ज़लें नज़्में और अबधि में गीत भी लिखे हैं।अज़ीम शायर जिगर मुरादाबादी के प्रिय शिष्य रहे हैं और करीब 20 पुस्तकें लिख चुके हैं।ग़ज़लों मे अपने खास अंदाज़ के लिए जाने जाते हैं। इनके दोहे भी बहुत चर्चित हुए हैं।
आज की ग़ज़ल पर हम कोई भी ग़ज़ल शायर की अनुमति के बिना नहीं छापते। फोन पर उनसे बात करके ये ग़ज़लें यहाँ हाज़िर कर रहे हैं और हमें खु़शी है कि इस क़द के शायर ने इस पत्रिका के लिए शुभकामनाएँ भेजी हैं। हाज़िर हैं पाँच ग़ज़लें-
एक
ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है
पहुँच जाती हैं दुशमन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है
अजब है आजकल की दोस्ती भी, दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है
तेरी वादी से हर इक साल बर्फीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है
किसी कुटिया को जब "बेकल"महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है
दो
वो तो मुद्दत से जानता है मुझे
फिर भी हर इक से पूछता है मुझे
रात तनहाइयों के आंगन में
चांद तारों से झांकता है मुझे
सुब्ह अख़बार की हथेली पर
सुर्खियों मे बिखेरता है मुझे
होने देता नही उदास कभी
क्या कहूँ कितना चाहता है मुझे
मैं हूँ बेकल मगर सुकून से हूँ
उसका ग़म भी संवारता है मुझे
तीन
सुनहरी सरज़मीं मेरी, रुपहला आसमाँ मेरा
मगर अब तक नहीं समझा, ठिकाना है कहाँ मेरा
किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा
मैं खुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा
सुकूँ पाएँ चमन वाले हर इक घर रोशनी पहुँचे
मुझे अच्छा लगेगा तुम जला दो आशियाँ मेरा
बचाकर रख उसे मंज़िल से पहले रूठने वाले
तुझे रस्ता दिखायेगा गुबारे-कारवाँ मेरा
पड़ेगा वक़्त जब मेरी दुआएँ काम आयेंगी
अभी कुछ तल्ख़ लगता है ये अन्दाज़-ए-बयाँ मेरा
कहीं बारूद फूलों में, कहीं शोले शिगूफ़ों में
ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे, है यही जन्नत निशाँ मेरा
मैं जब लौटा तो कोई और ही आबाद था "बेकल"
मैं इक रमता हुआ जोगी, नहीं कोई मकाँ मेरा
चार
जब दिल ने तड़पना छोड़ दिया
जलवों ने मचलना छोड़ दिया
पोशाक बहारों ने बदली
फूलों ने महकना छोड़ दिया
पिंजरे की सम्त चले पंछी
शाख़ों ने लचकना छोड़ दिया
कुछ अबके हुई बरसात ऐसी
खेतों ने लहकना छोड़ दिया
जब से वो समन्दर पार गया
गोरी ने सँवरना छोड़ दिया
बाहर की कमाई ने बेकल
अब गाँव में बसना छोड़ दिया
पाँच
हम को यूँ ही प्यासा छोड़
सामने चढ़ता दरिया छोड़
जीवन का क्या करना मोल
महँगा ले-ले, सस्ता छोड़
अपने बिखरे रूप समेट
अब टूटा आईना छोड़
चलने वाले रौंद न दें
पीछे डगर में रुकना छोड़
हो जायेगा छोटा क़द
ऊँचाई पर चढ़ना छोड़
हमने चलना सीख लिया
यार हमारा रस्ता छोड़
ग़ज़लें सब आसेबी हैं
तनहाई में पढ़ना छोड़
दीवानों का हाल न पूछ
बाहर आजा परदा छोड़
बेकल अपने गाँव में बैठ
शहरों-शहरों बिकना छोड़
शायर का पता-
गीतांजली सिविल लाइन
बलराम पुर (उ.प्र.)
9 comments:
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने, ग़ज़ल बहुत ही सुन्दर है.
हिन्दीकुंज
बेकल जी की ग़ज़लें अच्छी लगीं । पिछले साल मुम्बई में उनके साथ काव्यपाठ का सुअवसर मिला । उनका अदाज़े-बयाँ भी कमाल का है।
Dev mani pandey
बेकल जी को रूबरू सुनना एक ऐसा अनुभव है जिसे भुलाया नहीं जा सकता...जब वो तर्रन्नुम में सुनाते हैं तो लगता साँसें थम जाएँगी...उनकी बेमिसाल शायरी हम तक पहुँचने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया.
नीरज
बेकल उत्साही की ग़ज़लेँ हैँ सुरूद-ए-सरमदी
शायरी से है नुमायाँ उनकी असरी आगही
उनकी नज़मोँ और गीतोँ मेँ है कैफो सरख़ुशी
उनकी नातोँ से अयाँ है सरबसर हुब्बे नबी
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
ज़ाकिर नगर,नई दिल्ली-110025
pur-sukoon, lajawaab gazalen, rubaru karane ke liye shukriya.
सतपाल जी सलाम,
बेकल जी के ग़ज़लों से रूबरू कराया ,... उनकी कुछ ग़ज़लों का स्वाद मिला ऐसा के क्या कहने ... पहली ग़ज़ल पढ़ते पढ़ते ऐसा लग रहा था के कहन ऐसे भी लिखे जा सकते है इस तरह से भी सोची जा सकती है ... बहुत ही छोटी छोटी बात को जी करीने से पेश किया गया है वो देख के पढ़ के स्तभ रह गया ... वाकई ये पत्रिका हम जैसे सिखने वालों के बहुत ही लाभदायक साबित हो रही है ... बधाई आपको...
अर्श
वाह... बेहतरीन प्रस्तुति......
Bekal SB kaa ta'aaruf or unkee GhazloN kee i'naayat kaa shukriya kyaa hee achha hot agar ek geet bhee unkee shaamil farmaalete.
bahut bahut shukriya
KHNaiyer
mein diwana huin tere gazal ka ,
dil mein outar jaoonga,
madhosh ho gayengi teri nazme,
aiyshi makah teri fizaoin me chor jaoonga .
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