Monday, November 9, 2009
तरही की पहली क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर पहली दो ग़ज़लें
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
वे कैसे हैं, कहाँ हैं,हम यह फौरन जान लेते हैं
कभी भी नामाबर का हम नहीं अहसान लेते हैं
बहुत नाज़ुक है उसका शीशा-ए-दिल टूट जाएगा
वो जो कहता है अकसर इस लिए हम मान लेते हैं
मसल मशहूर है यह दिल को दिल से राह होती है
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
फ़िदा होकर हम उसकी शमे-रुख़ पर मिसले-परवाना
फिर उस से मिल के अपनी मौत का सामान लेते हैं
हदीसे-दिलबरी अफसान-ए-हस्ती की है मज़हर
हक़ीक़ी ज़िंदगी से जिसका हम उनवान लेते हैं
नहीं आती ख़ेरद जब काम अपने ऐसी हालत में
जुनूने-इंतेहा-ए-शौक़ से फरमान लेते हैं
जो हैं इंसानियत के दुशमन ऐ अहमद अली बर्क़ी
वे हैं हैवान जो नौ-ए-बशर की जान लेते हैं
ख़ेरद-अक़्ल,मसल-मुहावरा,मज़हर-निशानी,इज़हार, नौ-ए-बशर-इंसान
डी.के. मुफ़लिस
ख़ुद अपनी राह चलते हैं, ख़ुद अपनी मान लेते हैं
हम अहले-दिल किसी का कब भला अहसान लेते हैं
सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं
मुख़ालिफ़ वक़्त भी उन पर बहुत आसां गुज़रता है
ख़ुदा के हुक्म को जो ख़ुशदिली से मान लेते हैं
उन्हें इक-दुसरे का हर घड़ी अहसास रहता है
जो सच्चे दोस्त हैं वो बिन कहे सब जान लेते हैं
कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं
असर रहता है क़ायम मुस्तक़िल तहरीर में उनकी
सुख़नसाज़ी में फ़िक्र-ओ-फ़न का जो मीज़ान लेते हैं
बदल ले लाख अब 'मुफ़लिस' तू रंगत अपने चेहरे की
तेरे तर्ज़े-बयाँ से सब तुझे पहचान लेते हैं
अहले-दिल=दिल वासी ,मुख़ालिफ़=विरोधी,मुस्तक़िल=हमेशा, स्थायी, तहरीर=लिखावट ,सुख़नसाज़ी=लेखन प्रक्रिया
फिक्रो फ़न=चिंतन और कला,मीज़ान=तराज़ू ,तर्ज़-ए-बयाँ=कथन शैली
छोटी सी सूचना - दोस्तो ! एक छोटी सी सूचना है , मेरी आवाज़ में मेरी कुछ ग़ज़लें और शे’र रिकार्ड हुए हैं और इसे आप urdu-anjuman पर सुन सकते हैं। समय मिले तो ६ मिंन्ट ज़रूर सुनियेगा ये रहा लिंक-
http://www.bazm.urduanjuman.com/index.php?topic=4279.0
धन्यावाद
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15 comments:
यह बहुत खुशी की बात है कि फिराक़ साहब के इस चर्चित मिसरे पर दो और गज़लें पढ़ने को मिलीं ।
हुज़ूर !
उर्दू अंजुमन पर
आपकी गज़लें सुन ली हैं
आपकी मधुर आवाज़ का दिल फरेब जादू
अभी तक zehn par तारी है .....
मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
दो-दो उस्ताद शायरों की तरही एक साथ पढ़ना....आहहा!
बर्की साब का कहर ढ़ाता मतला, बेमिसाल गिरह और खास तौर पर ये शेर "फ़िदा होकर हम उसकी शमे-रुख़ पर मिसले-परवाना/फिर उस से मिल के अपनी मौत का सामान लेते हैं" बहुत भाया।
और मुफ़लिस साब का कमाल का ये मिस्रा "कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं" तो पहले ही सुन लिया था एसएमएस के जरिये...पूरी ग़ज़ल का जादू तो सर चढ़ के बोल रहा है।
"सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं"...आह, हुजूरsssssss!
और मक्ता तो हाय रेsss!!!!
सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं...
KAMAAL KA SHER HAI ... AUR BARKI SAAHAB KE BHI SHER ... BAS KAMAAL HAI SIR .... SHUKRIYA
ustadana shayari..
बहुत नाज़ुक है उसका शीशा-ए-दिल टूट जाएगा
वो जो कहता है अकसर इस लिए हम मान लेते हैं..
kya kamaal ki baat ki hai barque sahib ne ... matale me jo hunarmadi dikhlaayee hai wo to alag se jaan liye jaa rahaa hai... har she'r mukammal ..
jab muflis ji ki baat karun to sochataa hun kya kahun... kya kuchh paunga inke tarz-e-bayan ke liye ... inki kathan shaili aisi sadagi liye hoti hai ke kya kahane
कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं
aur is she'r kya kahane , kya khub tarika inhone dhunda hai... dono hi ustaad shayeeron ko dil se badhaayee ... aur salaam... huzoorrrrrrrrrrrrrrrrr
arsh
बदल ले लाख अब 'मुफ़लिस' तू रंगत अपने चेहरे की
तेरे तर्ज़े-बयाँ से सब तुझे पहचान लेते हैं
dilkash sher
नहीं आती ख़ेरद जब काम अपने ऐसी हालत में
जुनूने-इंतेहा-ए-शौक़ से फरमान लेते हैं
डॉ साहब को इस उम्दा कलाम के लिए
सलाम कहता हूँ ....
डॉ बर्क़ी ग़ज़ल के मिज़ाज को समझते हैं
एक एक लफ्ज़ को बड़े ही नफ़ीस तरीक़े से
पिरो कर नायाब अश`आर कहने के हुनर से
वाक़िफ़ हैं ....
उनकी शायरी न सिर्फ हिन्दोस्तान
में बल्कि तमाम दुसरे मुल्कों में भी
पढी जाती है , और खूब सराही जाती है
डॉ साहब की तख्लीक़ात से मुझ जैसे
कितने ही तालीब-ए-इल्म
इस्तेफ़ादा हासिल कर रहे हैं . . .
मुबारकबाद
अच्छा शायर जब कहता है तो हर शेर छुए बिना नहीं मानता, और कोई कोई शेर तो सीधे ज़ेह्न की गहराईओं में खलबली मचा देता है। दोनों ग़ज़लें कुछ ऐसा ही कर रही हैं।
तिलक राज कपूर
t^arHee mushaae're meiN do dilkash GhalzeiN paRhne ko milee. or iskee shurua'aat hee kaamyaab nazar aarahee hai to ant bhee kaamyaab hogaa
"morning shows the day"
Satpal jee ko badhaai,y ho
Khurshidul Hasan Naiyer
वाह, क्या खूब महफिल सजी है यहां, वाकई कलाम पढकर बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
मिसरा-ए-तरह की दोनों गज़लें बहुत खूबसूरत हैं
उस्ताद डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी साहब से गुजारिश है कि एक नज़र अपनी गज़ल पर ज़रूर डालें, लगता है ये शेर पोस्ट करने में कोई मिस्टेक हुई है---
हदीसे-दिलबरी अफसान-ए-हस्ती की है मज़हर
कि हक़ क़ी ज़िंदगी से जिसका हम उनवान लेते हैं
जनाब मुफलिस साहब के ये शेर बहुत पसंद आये---
1-
मुख़ालिफ़ वक़्त भी उन पर बहुत आसां गुज़रता है
ख़ुदा के हुक्म को जो ख़ुशदिली से मान लेते हैं
2-
कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं
मिसरा-ए-तरह पर गज़ल कब तक भेजी जा सकती है, इत्तला देने की मेहरबानी फरमायें
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
इसी के वास्ते तो इनका लोहा मान लेते है.
ये हैं सतपाल हर काबिल को बस पहचान लेते है.
बधाई. अच्छी ग़ज़लों के चयन के लिए...
फिराक साहिब और मुफलिस जी की शायरी पर कुछ कहना मेरे बूते की बात नहीं है बस बार बार पढ रही हूँ। मेरे लिये तो दोनो शायरों का हल शेर हैरत अंगेज़ है। किस किस की तारीफ करूँ । फिराक साहिब और मुफ्लिस जी को बधाई दे सकती हूँ । इन उस्ताद शायरों को सलाम
बर्की साहब के ये शेर:
मसल मशहूर है यह दिल को दिल से राह होती है
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
नहीं आती ख़ेरद जब काम अपने ऐसी हालत में
जुनूने-इंतेहा-ए-शौक़ से फरमान लेते हैं
और हर दिल अजीज़ शायर, जनाब मुफलिस साहब के ये शेर:
सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं
*
उन्हें इक-दुसरे का हर घड़ी अहसास रहता है
जो सच्चे दोस्त हैं वो बिन कहे सब जान लेते हैं
*
कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं
पढ़ कर यकीन हो रहा है की ये तरही मुशायरा एक यादगार मुशायरा साबित होगा...ऐसी अजीम शख्शियतों को एक साथ एक मंच पर लाने का आप का हुनर काबिले दाद है सतपाल साहब...वाह...
नीरज
बर्की साहब के ये शेर:
मसल मशहूर है यह दिल को दिल से राह होती है
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
नहीं आती ख़ेरद जब काम अपने ऐसी हालत में
जुनूने-इंतेहा-ए-शौक़ से फरमान लेते हैं
और हर दिल अजीज़ शायर, जनाब मुफलिस साहब के ये शेर:
सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं
*
उन्हें इक-दुसरे का हर घड़ी अहसास रहता है
जो सच्चे दोस्त हैं वो बिन कहे सब जान लेते हैं
*
कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं
पढ़ कर यकीन हो रहा है की ये तरही मुशायरा एक यादगार मुशायरा साबित होगा...ऐसी अजीम शख्शियतों को एक साथ एक मंच पर लाने का आप का हुनर काबिले दाद है सतपाल साहब...वाह...
नीरज
सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं
बहुत खूब. 'मुफलिस, साहब का जवाब नहीं. 'मुफलिस' साहब फन से मुफलिस नहीं, ज़रदार भी हैं, ज़ोरदार भी.
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