एक ज़मीन में दो शायरों की बराबर के मेयार की ग़ज़लें बड़ी मुशकिल से मिलती हैं। ये दोनों ग़ज़लें एक ही ज़मीन में हैं लेकिन दोनों बेमिसाल और लाजवाब हैं। पढ़िए, सुनिए और लुत्फ़ लीजिए-
पहली ग़ज़ल जनाब- अहमद नदीम कासमी की -
ग़ज़ल
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा
तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा
तेरे पहलू से जो उट्ठूंगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा जिधर जाऊँगा
अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा
तेरा पैमाने-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा
चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा
अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा
ज़िन्दगी शमअ की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा
और दूसरी ग़ज़ल है जनाब मुईन नज़र की -
इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊँगा
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा
हर तरफ़ धुँध है, जुगनू , न चरागां कोई
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा
फूल रह जाएंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मैं तो ख़ुशबू हूँ फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा
पूछकर मेरा पता वक़्त राएगाँ न करो
मैं तो बंजारा हूँ क्या जाने किधर जाऊँगा
ज़िंदगी मैं भी मुसाफ़िर हूँ तेरी कश्ती का
तू जहाँ मुझसे कहेगी मैं उतर जाऊँगा
दोनों ग़ज़लें रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल में हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112
अब सुनिए गु़लाम अली की आवाज़ में मुईन नज़र की ये खूबसूरत ग़ज़ल-
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8 comments:
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगाnice
बहुत आनन्द आया दोनों ही गज़लें पढ़कर.
सतपाल जी दोनों ही गज़लें कमाल की हैं इनमेसे निचे वाली ग़ज़ल मेरे दिल के बेहद करीब है सच कहूँ तो ग़ज़ल गायकी में यह ग़ज़ल ही सीधी दर सीधी काम की है , इस ग़ज़ल के बारे में कुछ नहीं कह पाउँगा ,.. शायद इसी ग़ज़ल से मैं जाना जाता हूँ जो भी मुझे जानता है ग़ज़ल गायकी के लिए ... सुनाने और पढवाने के लिए दिल से ढेरों दुआएं आपको
अर्श
behatareen, aabhaar.
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा!
ज़िन्दगी शमअ की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा
वाह.. वाह.. नदीम साहब।
और
हर तरफ़ धुँध है, जुगनू , न चराग़ कोई
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा
फूल रह जाएंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मैं तो ख़ुशबू हूँ फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा
वाह मुइन साहब।
pahli gazal aaj hi padhne ko mili
lekin
doosri gazal bahut suni hai
its my fav.
thanks for shairing
क्या सुना दिया सतपाल भाई...दोनों ही एक जमाने से पसंदीदा ग़ज़लें रही हैं अपनी।
मैं तो बंजारा हूँ क्या जानूँ कहाँ जाऊँगा
ये मिस्रा कुछ गलत टाइप हो गया सर जी। देख लें जरा....
dear gautam thanks!
that misra is corrected now!
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