Wednesday, January 13, 2010

कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं- महमूद अकरम













शायर होना आसान है लेकिन वली होना बहुत मुशकिल है-

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान “ग़ालिब”
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता

यूँ तो शायरी में गा़लिब का स्थान किसी औलिए से कम नहीं लेकिन ग़ालिब को महफ़िलों में गाया जाता है और कबीर को मंदिरों में। इस फ़र्क को गा़लिब समझते थे।

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय
..कबीर

पीरो-मुर्शिद, औलिये, संत,फ़कीर और वली इन्हें हम "साईं" कहकर बुलाते हैं, साईं यानि मालिक । पूज्य शिरडी के संत तो "साईं" नाम से ही जाने जाते हैं। साईं रदीफ़ पर एक बहुत सादा और तसव्वुफ़ के रंग में रंगी एक ग़ज़ल आज आपकी नज़्र कर रहा हूँ जिसके शायर हैं जनाब महमूद अकरम जो न्यू जर्सी में रहते हैं। उनकी ये ग़ज़ल दो साल पहले पढ़ी थी,आप भी मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

मेरे हक़ में कोई दुआ साईं
बे-रंग हूँ, रंग चढ़ा साईं

मैं कौन हूँ,क्या हूँ, कैसा हूँ?
मैं कुछ भी नहीं समझा साईं

मेरी रात तो थी तारीक बहुत
मेरा दिन बे-नूर हुआ साईं

था छेद प्याले के अंदर
नहीं आँख में अश्क बचा साईं

वही तश्ना-लबी, वही खस्ता-तनी
मेरा हाल नहीं बदला साईं

गुम-कर्दा राह मुसाफ़िर हूँ
मुझे कोई राह दिखा साईं

मेरे दिल में नूर ज़हूर करे
मेरे मन में दीया जला साईं

मेरी झोली में फल-फूल गिरें
कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं

मेरे तन का सहरा महक उठे
मेरी रेत में फूल उगा साईं

मुझे लफ़्ज़ों की ख़ैरात मिले
मेरा हो मज़मून जुदा साईं

मेरे दिल में तेरा दर्द रहे
हो जाए दिल दरिया साईं

कोई नहीं फ़क़ीर मेरे जैसा
कहाँ दहर में तुझ जैसा साईं

मेरी आँख में एक सितारा हो
मेरे हाथ में गुल-दस्ता साईं

तेरी जानिब बढ़ता जाऊँ मैं
और ख़त्म न हो रस्ता साईं

तेरे फूल महकते रहें सदा
तेरा जलता रहे दीया साईं

अब बात जब तसव्वुफ़ की चली है तो एक सूफ़ी कलाम सुनिए । ऐसे कलाम पर हज़ारों दीवान न्यौछावर, हज़ारों अशआर कुर्बान। इसे गाया है सूफ़ी गायक हंस राज हंस ने, जिसकी आवाज़ सुनते ही फ़क़ीरों की सोहबत का सा अहसास होता है-

11 comments:

खुला सांड said...

वाह !! ! बहुत सुन्दर ग़ज़ल और शेर!!! ग़ालिब साहब के दर्दो गम से भी बखूबी परिचित करवाया!! "वली " शब्द के अर्थ को भी जाना !!!

सहसपुरिया said...

AA HA.... BHAI WAH
SHUKRIYA

Pushpendra Singh "Pushp" said...

वाह बहुत खूब बाबा की
सुन्दर ग़ज़ल
धन्यवाद .........

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

सतपाल भाई, आदाब
आपके ब्लाग की यही खूबी है कि
यहां मैयारी कलाम पढ़ने को मिलता है...
और उसके चयन के लिये आप बधाई के पात्र हैं
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

Rajeysha said...

लोहड़ी पर आपको भी शुभकामनाएं। खूबसूरत शेर पढ़वाने के लि‍ये शुक्रि‍या।

निर्मला कपिला said...

लाजवाब प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद। सतपाल जी आप इस आदमी के सभी ब्लाग देखें मुझे लगता है इसने आपके ब्लाग से कुछ गज़लें चुराई हैं ये पोस्त पढ कर आप्को पता चल जायेगा
http://etips-blog.blogspot.com/2010/01/blog-post_13.html

आज ब्लागजगत से पता चला कि इस आदमी ने बहुत लोगों की रचनायें चोरी की हैं उसके दो नाम से कई ब्लाग हैं
http://blogseva.blogspot.com/


http://marwaries.blogspot.com/2009/10/rrrrrrrrr.html


http://naijankari.blogspot.com/

http://falsapha.blogspot.com/

http://ruralrajasthan.blogspot.com/

http://marwaries.blogspot.com/

इसके इलावा भी हैं ब्लोग इन पर मैने पिछली पोस्ट्स मे आपके ब्लोग वाली रचनाये उस आदमी के नाम से देखी हैं।

Devi Nangrani said...

सतपाल जी
आपके मंच पर आना सुखद रहा है, शेर-ओ -गुलज़ार कि महक आती है वतन से ,वतन से दूर इस प्रदेश से
रदीफ़
हंस
राज हंस कि आवाज़ में सूफी कलाम बेपनाह नियामतों को अपंने अंदर समेटे हुए है. आपका आभार इस कि पेशगी के लिए

Yogesh Verma Swapn said...

bahut sunder , aabhaar.

Smart Indian said...

बहुत बढिया, धन्यवाद!

सतपाल ख़याल said...

कपिला जी
मैनें आपके दिये लिंक खंगाले हैं और उस आदमी को भी मेल किया और c/c सारे दोस्तों को भी की लेकिन मुझे ऐसा कुछ मिला नहीं इन लिंकस पर। आप ज़रा तफ़सील से बताएँ कहीं किसी पर ग़लत इलज़ाम न आए। कोई पोस्ट बताएँ और उसका लिंक share करें। ऐसा हो तो रहा है और बड़े पैमाने पर हो रहा है लेकिन ये रोका जा सकता है।

आप detail में बताएँ!

गौतम राजऋषि said...

क्या कमाल की ग़ज़ल है सतपाल भाई...आपको दिल से शुक्रिया अकरम साब की रचना से परिचय करवाने के लिये....बेरंग हूं, रंग चढ़ा साईं...वाह!
"तेरी जानिब बढ़ता जाऊँ मैं
और ख़त्म न हो रस्ता साईं"

उफ़्फ़्फ़्फ़! क्या शेर बुना है अकरम साब ने। हंस राज का गाया सुनकर याद आया कि आपने एक बार लिंक भेजा था अपनी रिकार्डिंग का। एक बार फिर से भेजने का अनुग्रह करुंगा...मेरा ब्राडबेंड अभी दुरुस्त हुआ है तो सुन पाऊंगा।

जहां तक निर्मला जी के दिये हुये लिंक की बात है तो उस बाबत आपसे बात हो ही गयी थी आज। वहां पर मेरी भी एक ग़ज़ल दिखी मुझे। लेकिन मुझे इन श्रीमान जी मंतव्य शायद चुराना नहीं लगा। उन्हें कुछ रचनायें पसंद आयी तो उन्होंने अपने ब्लौग पर सेव कर लिया वैसे ही जैसे कि हम अमूमन कोई शेर या कविता पसंद आने पर अपनी डायरी में नोट कर लेते हैं....क्या वो भी चोरी कहलायेगी? फिर तो हम सब चोर हुये....