Sunday, February 14, 2010
अंसार क़ंबरी-ग़ज़ल और परिचय
1950 में कानपुर में जन्में अंसार क़ंबरी देश के माने हुए शायर हैं और अपने दोहों के लिए भी चर्चित हैं। एक ग़ज़ल संग्रह "सलीबों के क़रीब" भी छाया हो चुका है और उनके दोहों की किताब भी छाया हो चुकी है। बात चल रही थी हिंदी मीटर की तो सोचा क्यों न इसी मीटर की ग़ज़ल पेश की जाए तो लीजिए पहले अंसारी साहब की इसी मीटर में कही ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
धूप का जंगल, नंगे पाँव इक बंजारा करता क्या
रेत का दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या
बादल-बादल आग लगी थी छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या
सब उसके आंगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या
तुमने चाहे चाँद-सितारे हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या
ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका फिर बँटवारा करता क्या
टूट गए जो बंधन सारे और किनारे छूट गए
बीच भँवर में मैनें उसका नाम पुकारा करता क्या
अब इस ग़ज़ल के बाद मैं श्री चंद्रभान भारद्वाज जी की टिप्पणी का उल्लेख ज़रूरी समझता हूँ-
"सतपाल जी,यदि गज़ल बहर में नही है पर मात्रिक छंद के अनुसार है, तो सही है इससे सहमत नही हुआ जा सकता। असल में हिन्दी काव्य में गज़ल विधा ही नही है। अतः जिस भाषा के काव्य से गज़ल आई है उसे यदि हिन्दी में अपनाना है तो उसके नियमों का पालन करना नितान्त आवश्यक है चूंकि गज़ल में बहर की मुख्य भूमिका होती है अतः उसे बहर में रखना आवश्यक है। अपनॆ जिस शेर का उदाहरण दिया है उससे भी स्पष्ट है कि ज़रा से हेरफेर से लय अवरुद्ध हो जाती है।"
अब इन्होंने बात पते की कही और सही भी। मैं भी इसी पक्ष में हूँ और बहर का ही पालन करता हूँ और ऐसा करने का ही मशविरा देता हूँ लेकिन जब आर.पी शर्मा जी जैसे विद्वान इसे सही कहते हैं तो हम अपनी राय को झोले में डाल लेते हैं । चंद्रभान भारद्वाज जी की इस टिप्प्णी को हम इस बहस का हासिल मान सकते हैं और बाक़ई ये भाषाई झगड़े कभी ख़त्म होने वाले नहीं और इसे अंसारी साहब के इस शे’र के साथ विराम देते हैं-
जो हम लड़ते रहे भाषा को लेकर
कोई ग़ालिब न तुलसीदास होगा
और मीर साहब की इसी हिंदी मीटर में कही ग़ज़ल
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमार जाने है..को मेंहदी हसन जी की आवाज़ में सुनते हैं-
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7 comments:
टूट गए जो बंधन सारे और किनारे छूट गए
बीच भँवर में मैनें उसका नाम पुकारा करता क्या
bahut khoob!
ek khoobsoorat prastuti aur swasth saahityik charchaa se lutf bhee HaaSil huaa aur ilm kee nayee raaheN bhee khulee hai!
Satpal saHeb ko meraa dhanyavaad!
Dheeraj Ameta "Dheer"
एक अच्छी ग़ज़ल।
अंसार कंबरी साहब को बधाई।
चंद्रभान भारद्वाज जी की पिछले ब्लॉग पर दी गयी टिप्पणी को उद्धृत कर आपने एक सकारात्मक काम किया, इसके लिये आपको धन्यवाद।
हिन्दी छंद और उर्दू बह्रों को लेकर एक अनावश्यक विवाद प्रचलन में है, उठता रहता है, दबता रहता है। इसे समझने के लिये एक प्रामाणिक आधार जो सुविधा से उपलब्ध है वह है मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह द्वारा संकलित एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से प्रकाशित उर्दू हिन्दी शब्दकोष के पृष्ठ 430-431 पर दी गयी जानकारी। जिसे देखने से स्पष्ट है कि संगीत से जन्म होने के कारण यमाताराजभानसलगा का ध्यान रखते हुए देखें तो उर्दू की बहुत सी बह्रों में और हिन्दी के छंदों में समानता कई जगह मिलती है लेकिन ऐसा केवल उन हिन्दी छंदों में होता है जिनमें छन्द रचना कुल मात्रा के स्थान पर हर्फ-ब-हर्फ मात्रिक क्रम पर होती है और संयोग से वह क्रम किसी बह्र से मेल खाता है। ज्ञानीजन अक्सर उनकी किसी ग़ज़ल में उर्दू बह्र के साथ-साथ जब समकक्ष हिन्दी छंद का नाम दे देते हैं तो यह भूल जाते हैं सभी पढ़ने वालों को इसकी पृष्ठभूमि ज्ञात नहीं होने के उनके लिये एक भ्रामक स्थिति निर्मित हो रही है। आपके पिछले दो पोस्ट पर मैनें जो टिप्पणी दी थीं उनका आशय यही था कि भ्रम से बाहर आया जा सके।
चंद्रभान भारद्वाज जी की टिप्पणी से वर्तमान चर्चा पर तो विरामलग गया लगता है। इसके लिये उनका आभार।
ैअंसार कबरी जी की गज़ल बहुत अच्छी लगी। इस सुन्दर प्रस्तुति के साथ चर्चा मे बहुत कुछ सीखने को मिलता है। इसे बार बार सुन रही हूँ और दाद दे रही हूँ धन्यवाद
bahut achcha laga.. aur aap ko sadhuvaad.. bahut sundar karya kar rahe hain aap...
सब उसके आंगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या
वाह...सतपाल जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका, आपकी वजह से ही कंबरी साहब की ये खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ पाए हैं हम. अगर आपके पास उनका ई-मेल एड्रेस या फोन नंबर हो तो सूचित करें मैं जानना चाहता हूँ की उनकी ग़ज़लों की किताब कहाँ और कैसे हासिल की जासकती है.
मुझे आपकी ये बात पसंद आई की ग़ज़ल हम चाहे हिंदी या उर्दू में लिखें उसकी बहर का पालन जरूर करें...इस से ग़ज़ल में एक संगीत स्वतः ही पैदा हो जाता है और वो पढने गुनगुनाने में अच्छी लगती है...ग़ज़ल को किसी और पैमाने पर ला कर लिखना उसकी ख़ूबसूरती को कम करना ही है...
नीरज
Ansaar Sahab ki umda gazalein yahan pesh karke padwaane ke liye bahut bahut dhanyawaad. Satpaal ji ko is manch ke naye swaroop ke liye badhayi
शुक्रिया सतपाल भाई...ग़ज़ल के अर और हीरे से मुलाकात करवाने के लिये।
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