Monday, April 12, 2010
राहत इन्दौरी साहब की नई ग़ज़ल
राहत इन्दौरी किसी तआरुफ़ के मोहताज़ नहीं हैं। उनकी एक ताज़ा ग़ज़ल, उनकी इजाज़त के साथ शाया कर रहा हूँ। छोटी बहर की बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है । लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विशवास रे जोगी
इक दिन विष का प्याला पी जा
फिर न लगेगी प्यास रे जोगी
ये साँसों का बन्दी जीवन
किस को आया रास रे जोगी
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
पुर आई थी मन की नदिया
बह गए सब एहसास रे जोगी
इक पल के सुख की क्या क़ीमत
दुख हैं बाराह मास रे जोगी
बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी
चार फ़ेलुन की बहर
और राहत साहब को सुन भी लीजिए-
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26 comments:
bahut khoob waah....rahat sahab ko salaam...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
ग़जब की ग़ज़ल है ! पढके मज़ा आ गया !
दुख हैं बारहमास रे जोगी----
बहुत अच्छी ग़ज़ल है, बधाई !
देवमणि पाण्डेय
आज राहत साहब की एक नई ग़ज़ल पढ़ी,कहना काफी है, और महफिल जम गयी।
मगर अंदाज़ कहॉं से लायें।
ये साँसों का बन्दी जीवन
किस को आया रास रे जोगी
अब राहत इन्दौरी साहब की क्या बात करें...कमाल के शायर हैं...अदायगी और ज़ज्बात दोनों लाजवाब...शुक्रिया आपका उन्हें पढवाने का...
नीरज
Achchhi ghazal hai badhai.Lekin ek sher khatak raha hai,
vidhava ho gai sari nagari
kaun chala vanvaas re jogi
Vanvaas jaane se koi vidhava nahin hoti. Swargvaas hone se vidhava hoti hai.Kripaya is mudde ko Rahat Bhai ke dhyan men layen.
Itani achchhi ghazal prastut karane ke liye badhai.
मेरे पसंदीदा शईरों में एक ... सलाम इनको और आपका आभार
अर्श
राहत साहब का कुछ नया पढता हूँ तो चौक जाता हूँ
अक्सर ऐसी बात कह ही देते है कि रहा नहीं जाता
इस बार भी दूसरे शेर ने चौंका दिया
सतपाल जी मैंने आपको इक मेल भेजी थी और अभी भी आपके जवाब का इंतज़ार है
@चंद्रभान भारद्वाज जी:
आदरणीय, शाब्दिक रूप से आपकी बात ठीक कही जा सकती है लेकिन शायरी में एहसास की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। राहत भाई ने शेर में एहसास को जिया है। अगर शाब्दिक रूप से देखें तो किसी एक के देहावसान से भी सारी नगरी विधवा नहीं हो सकती फिर तो शेर में अवास्तविकता दोष भी दिखने लगेगा। लेकिन ऐसा नहीं है यहॉं किसी के वनवास जाने से नगरी में विधवा के एहसास की बात है। मुझे लगता है राहत साहब सही हैं।
एक बात आपकी अच्छी लगी कि एक नामी शायर के शेर पर भी आपने विचार खुलकर व्यक्त किया। और उस नजरिये से आपकी बात अपनी जगह ठीक है कि यही बात कोई नया शायर कहता तो शायद लोगों तक नहीं पहुँचता। शायरी जितना उपर उठेगी उतनी गहरे एहसास होंगे।
चंद्रभान जी और कपूर साहब,
राहत साहब जैसे शायर पर हम तनक़ीद तो नहीं कर सकते लेकिन शायर बात इशारे में करता है और पर्दे में करता है ।
अब जाने वो कौन सी दिल की नगरी है जो किसी के बनबास पर जाने से विधवा यानि बेसहारा हो गई। हर कोई अपने एहसास से जोड़कर इसे देखेगा। दिल की बस्तियां कई बार किसी एक के जाने से विधवा जैसी हो जाया करती हैं।
सही बात है। मुख्य बात एहसास की ही है। शाईर के एहसास तक पहुँचना जरूरी होता है, और जब कोई स्थापित शाईर कुछ कह रहा हो तो उस तक पहुँचने की कोशिश करना पढ़ने/ सुनने वाले का दायित्व हो जाता है।
तिलक राज कपूर
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी
चंद्रभान जी का मुद्दा जायज़ है। हमें अपने सीनियर शायरों के अशआर पर भी बातचीत करनी चाहिए। इस बारे में तिलक राजकपूर और सतपाल ख़याल की बातें भी स्वागतयोग्य और सराहनीय हैं। शायरी में एहसास और लहजे का रोल बहुत बड़ा होता है। शायरी के शब्दों में संकेत छुपे होते हैं। शायर ख़ुर्शीद के एक शेर से राहत इंदौरी के लहजे की ख़ूबसूरती का अंदाज़ा लगाया जा सकता है-
बिछड़ा वो इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया
-देवमणि पाण्डेय
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए आभार
.
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी
मेरी बात को अगर गुस्ताख़ी न माना जाए तो कहना चाहूँगा कि भाई चन्द्रभान भारद्वाज केवल शब्दिक अर्थ ले रहे हैं. बनवास वाले शेर में तो भगवान राम के बनवास के परिणामस्वरूप अयोध्या नगरी का बिम्ब भी दिखाई दे रहा है.शेर मुकम्मिल है.
वैसे भी नगरी से अपने प्रिय सज्जन के चले जाने पर विधवा-सा अनुभव होता ही है.
" नए कपड़े पहन कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किसके लिए
,
वो शख़्स
तो शहर ही छोड़ गया मैं बाहर जाऊँ किसके लिए."
एक और ख़ूबसूरत शेर :
"इक पल के सुख की क्या क़ीमत
दुख है बारह मास रे जोगी
"
मुझे बरबस ही
Thomas Hardy
की प्रसिद्ध पंक्ति:
"Happiness is but an occasional episode in the general drama of pain."
की याद दिला गया.
भाई सतपाल ऐसी महफिलें जमाए रखें
बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
इस पूरी ग़ज़ल में एक विशेष बात की तरफ़ आपका ध्यान खीचना चाहता हूँ। ऊपर लिखे दोनों शे’रों में एक ही शब्द" बस्ती और नगरी" इस्तेमाल किया गया है। अमूमन शायर एक ही शब्द का पूरी ग़ज़ल में इस्तेमाल करने से गुरेज़ करता है। शायद इसीलिए राहत साहब ने एक जगह बस्ती और दूसरी जगह नगरी का इस्तेमाल किया है।
एक और बात कहीं दीक्षित दनकौरी साहब ने लिखा है कि जैसे "सीता और राम" के साथ मुहव्बत शब्द अखरता है और "प्रेम" एक्दम सटीक बैठता है तो उसी तरह इस शे’र में-
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
"नगरी" और "विधवा" का इस्तेमाल या मैं कहूँ कि प्रयोग सुंदर है। लेकिन इस शे’र में-
बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी
"बस्ती" का इस्तेमाल किया है, ऐसे शब्द हमारी बोल-चाल की भाषा में घुल-मिल गए हैं और दोहरा स्वभाव रखते हैं जैसे "दोस्ती" इमानदार आदि।
ये पूरी ग़ज़ल हिंदी स्वभाव और संस्कार समेटे हुए है और ऐसी ग़ज़ल में शब्दों के स्वभाव का ख़याल राहत साहब ने भी बाखूबी रक्खा है।
जैसे पूरी ग़ज़ल के शब्दों को अगर गौर से देखें तो मालूम पड़ता है-
इक दिन विष का प्याला पी जा
फिर न लगेगी प्यास रे जोगी
इसमे "विष और प्यास"
पुर आई थी मन की नदिया
बह गए सब एहसास रे जोगी
इस शे’र में "पुर" और "एहसास"
सो ग़ज़ल में शब्दों के स्वभाव और संस्कार भी अपना असर छोड़ते हैं जिसे ऐसे अदीब शायरों से सीखा जा सकता है।
भाईतिलकराज जी, सतपाल जी, देवमणि जी, द्विज जी,
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी
मैं शेर के अहसास को भली भाँति समझता हूँ और समझ कर ही
यह मुद्दा उठाया है, मुद्दा अभी भी अपनी जगह है कि वनवास
जाने से नगरी विधवा नही होती बल्कि विधवा सी लगती है।
अगर निम्न तरह से बात कही जाती तो मेरे विचार से अधिक
सटीक होती-
विधवा लगती सारी नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी
विधवा होने में और विधवा लगने में फ़र्क है, मेरा मतलब
इसी फ़र्क की ओर ध्यान आकर्षित करना है। यदि विधवा होना
ही प्रयोग करना था तो शेर निम्न तरह से कहा जाना चाहिए-
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला सुरवास रे जोगी
सुरवास का अर्थ स्वर्गवास ही है।
मैं शेर के अहसास को पूरी गहराई के साथ महसूस कर रहा हूँ
लेकिन वनवास जाने पर विधवा होने की बात को पचा नहीं पा
रहा हूँ विधवा लगना ठीक होता इसी कारण से मैने अपने विचार
रखे हैं। आशा है इसे सही रूप में लिया जायेगा। आदर सहित
चन्द्रभान भारद्वाज
मुझे लगता है कि यहॉं कुछ ऐसी स्थिति निर्मित हो गयी है कि अगर 'हो गई' को 'लगती' भी कर दें तो अभी तो कोई बनवास को चला है और चलते ही नगरी विधवा लगने लगी; यह भी ठीक नहीं लगता।
कौन चला सुरवास भी नहीं चलेगा क्यूँकि स्वर्गवास होता है कोई स्वर्गवास चलता नहीं।
इसे एक स्वस्थ साहित्यिक बहस मानते हुए क्या यह ठीक न होगा कि राहत साहब ही अब स्थिति स्पष्ट करें उस एहसास की जो उनकी कहन के पीछे है।
जनाब सत पाल जी ,,
राहत साहब का ये शेर
सच में चर्चा का ही विषय है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी ...
दरअस्ल....
यहाँ इक एहसास और उसकी शिद्दत को ही
जीया गया है....विधवा हो जाने का जो दुःख होता है,,उसी संताप, तड़प को महसूस होना ही कहा गया है
नगरी से किसी का चले जाना ,,,
मा`ने अपनी जुदाई का कभी न ख़त्म हो पाने वाला दुःख दे जाना
जब श्री कृष्ण भगवान् को शासकीय कारणों से
एक नगरी से दूसरी नगरी जाना हुआ तो गोपियों/सखियों के
दुःख, व्यथा , करुणा
यहाँ तक कि क्रंदन और रुदन
की गाथा आप सब ने पढी होगी ....
देव जी ने एक शेर भी लिख दिया है...
"इक शख्स सारे शेहर को वीरान कर गया...."
हाँ......
शाब्दिक तौर पर देखें
तो बिलकुल अटपटा सा लगने लगता है
लेकिन
दुःख कितना है....कितना ज़्यादा हो सकता है...
उसी को बताने के लिए 'विधवा' शब्द को प्रतीक बनाया गया है
विधवा शब्द को हटाये बगैर भी शेर यु कहा जा सकता है
"विधवा हो गयी "मन की नगरी"
कौन चला वनवास रे जोगी...."
"सारी नगरी" से शाईर का हवाला यही कहना ही रहा होगा क दिल के सारे अरमान ही
मुरझा गए हैं...
या सारी की सारी ख्वाहिशें ही मर गयी हैं ....
खैर.....
तिलक राज जी,, चन्द्र भान जी,, देव मणि जी, द्विज जी ....
इन सब का बहुत बहुत शुक्रिया जो इन्होने
अपने अमूल्य विचारों से जानकार करवाया
ऐसे अज़ीम अदब-शनास सुखनवरों की बदौलत ही
इल्मो-फ़न के चराग़ जगमगा रहे हैं ....
और सत पाल जी ...
आप मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं ....
ज़िंदाबाद....... !!
आदरणीय भाई चन्द्रभान भारद्वाज जी
मैं यह बात बाख़ूबी समझ रहा हूँ कि आप
शेर के अहसास को भली भाँति समझते हैं,फिर `होने' या `लगने' का अंतर मिट जाना चाहिए, यह तो राहत साहब भी बाख़ूबी जानते ही होंगे.अगर शायर को लग रहा है कि `नगरी विधवा हो गई' है तो इसमें पढने-सुनने वाले को कोई आपत्ति क्यों हो?यह तो अहसास की शिद्दत है कि नगरी विधवा न हो कर भी विधवा है.`हो गई'का प्रयोग शेर के अहसास को और भी पुख़्ता कर रहा है , ऐसा मुझे लग रहा है . आपकी समीक्षा और सुझावों का सभी सादर स्वागत है, इससे शेर और शेरियत को और भी विस्तार से जानने में मदद मिलती है.
Achchha laga, Rahat saahab ki prastuti aur yahan vigyjanok ki samiksha.
bahut kuch seekhane ko mil rahaa hai| मगर आज कल समय नही निकाल पा रही सत्पाल जी मेरे न आ पाने को अन्यथा न लें क्यों कि आजकल मै अमेरिका मे हूँ बेटी के बेटी हुयी है इस लिये व्यस्त हूँ समय मिलती ही रोज अपके ब्लाग पर आऊँगी धन्यवाद्
हमारे दिल में राहत साहब के लिए बहुत सम्मान है और हम खुशनसीब हैं कि ऐसे शायर को हमने देखा-सुना है। शायरी में बहुत बड़ा क़द रखते हैं। उनके किसी मिसरे पर तनक़ीद करूँ मेरी तौबा !!
ऐसे शायर सदियों में पैदा होते हैं। मैं इस बहस को उनके इस शे’र पर ख़त्म करता हूँ और मैं तो ये मान के चलता हूँ कि जैसे हम कबीर , फ़रीद और गीता की बातों को मान के चलते हैं कि ऐसा अगर लिखा है तो सही होगा ही। इनका quote करना (इक्तेबास करना) ही काफ़ी है। इसके लिए बहस की गुंज़ाइश ही नहीं और किसी शब्दकोश की ज़रूरत नहीं-
कौन छाने लुगात का दरिया
आपका एक इक्तेबास बहुत
"Aaj ki Ghazal" such me ek bahut hi badiya Web Blog he ... aadrniye Satpal ji aapka bahut-bahut shukriya , itna acha Blog bnane ke iye...
अहद-ए- नव मेँ राहत इन्दौरी हैँ फख़र-ए- रोज़गार
शायरी है जिनकी बर्क़ी फिक्रो फन का शाहकार
उनकी ग़ज़लेँ और नज़मेँ हैँ हदीस-ए-दिलबरी
गुलशन-ए-उर्दू मेँ उनकी ज़ात है मिसल-ए-बहार
शायरी है उनकी असरी आगही की तर्जुमान
बेशतर गज़लेँ हैँ उनकी मिसल-ए-दुर्रे शाहवार
रौनक़-ए- बज़म-ए-सुख़न होते हैँ वह जाऐँ जहाँ
लोग सुनने के लिए रहते हैँ उनको बेक़रार
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
ज़ाकिर नगर,नई दिल्ली
Rahat Indori ji ka to mai kaayal hun.. mere one of the favourite shayar hain..
Ati sunder.kahene ko shabd nahi.
Rahat saheb ko padna ek anubhav hai..apne anubhav ke aadhar par har lekhak apne vichar ko ek aakar dekar apne dhang se, apne nazariye se prastut karta hai. Uski manosthithi ko apni manodasha ke saath jodne ka prayas safal ho ye zaroori nahin..
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