Monday, April 26, 2010

हसीब सोज़ की ग़ज़लें















1962 में जन्में हसीब "सोज़" बेहतरीन शायर हैं। आप उर्दू के रिसाले "लम्हा-लम्हा"का संपादन भी करते हैं |आप उर्दू में एम.ए. हैं। बदायूं (उ,प्र) के रहने वाले हैं।शायर का असली परिचय उसके शे’र होते हैं और इस शायर के बारे में मैं क्या कहूँ। ये शे’र पढ़के के आप ख़ुद कहेंगे कि बाक़ई हसीब साहब आला दर्ज़े के शायर हैं।

यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है

इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई

रगें दिमाग़ की सब पेट में उतर आईं
ग़रीब लोगों में कोई हुनर नहीं होता

इनकी दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

एक

इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई

पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई

फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई

इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई

दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया
दुनिया की राये दूसरे दिन ही बदल गई

*हाफ़ज़े-यादाश्त

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

दो

तअल्लुका़त की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ

मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ

ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ
मगर मैं बच्चों को अपने हँसता रहता हूँ

तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की
मैं दुशमनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ

ये रोज़-रोज़ की *अहबाब से मुलाक़ातें
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ

*अहबाब-दोस्त(वहु)

बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

16 comments:

नीरज गोस्वामी said...

सतपाल भाई सोज़ साहब के सिर्फ तीन शेर जो आपने पोस्ट की शुरुआत में दिए हैं पढ़ कर उनके बारे में राय कायम करना आसान हो गया है. वो बिला शक बेजोड़ शायर हैं. इतने उम्दा और सलीकेदार शेर कहना उस्तादों के बस की ही बात होती है. उनके दोनों ग़ज़लें बेमिसाल हैं...ग़ज़लों पर दिली दाद के साथ उन्हें हम तक पहुँचाने के लिए आपका भी आभार व्यक्त करते हैं...
नीरज

Dr. Amar Jyoti said...

एक बेहतरीन शायर से परिचित कराने के लिये हार्दिक आभार।

तिलक राज कपूर said...

भाव-पक्ष को देखें तो दो अच्‍छी ग़ज़लें।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है ! दोनों ग़ज़ल दिल को छुं गई ... आपको शुक्रिया की इतनी अच्छे शायर की शायरी पढ़ने का मौका दिए ...

Vilas Pandit said...

जनाब हबीब सोज़ साहेब की ग़ज़लों की तारीफ़ मतलब सूरज को दिया दिखाने वाली बात होगी, बहोत खूब शेर हैं, वाह क्या बात है....विलास पंडित "मुसाफ़िर"

Vilas Pandit said...

जनाब हबीब सोज़ साहेब की ग़ज़लों की तारीफ़ मतलब सूरज को दिया दिखाने वाली बात होगी, बहोत खूब शेर हैं, वाह क्या बात है....विलास पंडित "मुसाफ़िर"

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

हसीब सोज़ की ग़ज़लोँ मेँ है जो सोज़ो साज़
नुमायाँ उस से है क़लब-ए- हज़ीँ का सोज़ो गुदाज़

मैँ पेश करता हूँ उनको यहाँ मुबारकबाद
कलाम उनका है आईना-ए- नशेबो फ़राज़
अहमद अली बर्क़ी आज़मी

Urmi said...

बहुत बढ़िया लगा ग़ज़ल! इतने अच्छे शायर की शायरी पढ़वाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

girish pankaj said...

aanand aa gayaa haseeb bhai ko parh kar.har sher dil se kahe gaye hain,

prithvi said...

काफी लीक से हटकर और दिल को छू लेने वाली पंक्तिया हैं सोज साहेब की ...

वन्दना अवस्थी दुबे said...

ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ
मगर मैं बच्चों को अपने हँसता रहता हूँ
वाह क्या कहूं? कुछ शेर तो लाजवाब हैं. आभार.

Asha Joglekar said...

नीरज जी से एकदम सहमत । तीन शेर पढ कर ही कायल हो गये उनकी शायरी के । दोनों गजलें भी बैहतरीन । आपका बहुत धन्यवाद इतने बढिया शायर से परिचय कराने का ।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

"हसीब सोज़ की ग़ज़लें"
क्या कहूँ.
बेहतरीन शायर से परिचय हुआ...
बहुत शुक्रिया आपका.

रंजन गोरखपुरी said...

यहां मजबूत से मजबूत लोहा टूट जाता है,
कई झूठे इकठ्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है

रगें दिमाग की सब पेट में उतर आईं,
गरीब लोगों में कोई हुनर नही होता

पहले ये पीलापन तो नही था गुलाब में,
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई

फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे,
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई

हर एक अश’आर जैसे अपने अंदर कई परतें समेटे है! बेशक कुछ बातें सीधे कह देने से इतनी ज़ाहिर नही हो पाती...
सतपाल साहब को पुनः आभार जो उन्होने सोज़ साहब सरीखे उर्दू शायरी के नायाब हीरे से तार्रुफ़ कराया!

daanish said...

इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई

ऐसा खूबसूरत , नायाब और असरदार शेर
किसी पाएदार शाइर की क़लम का जादू ही हो सकता है
जनाब हसीब 'सोज़' साहब को पढना , सुनना
किसी को भी मदहोश कर सकता है...
पुख्तगी, उनकी शाइरी का ख़ास हिस्सा है

Pawan Kumar said...

सोज़ साहब की उम्दा शायरी को पढ़ाने का शुक्रिया......! हसीब साहब जितने अच्छे शाईर हैं गोया उससे भी अच्छे इंसान.....बेहद नर्म स्वाभाव वाले सोज़ साहब की ग़ज़ल ला जवाब है....