Tuesday, May 4, 2010

अनवारे इस्लाम-परिचय और ग़ज़लें















1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी चार ग़ज़लें हाज़िर हैं-

एक

ख़ैरीयत इस तरह बताता है
हाल पूछो तो मुस्कुराता है

कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है

ज़िक्र करता है हर जगह मेरा
सामने आके भूल जाता है

कल तलक सर छुपाके रखता था
आज वो जिस्म भी छुपाता है

किससे क़ौलो-क़रार कीजेगा
कोई वादा कहाँ निभाता है

तन के चलता है भाई के आगे
सर दरे-ग़ैर पर झुकाता है

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

दो

असल में मुस्कुराना चाहता है
जो बच्चा रूठ जाना चाहता है

हमारी प्यास की गहराइयों में
समंदर डूब जाना चाहता है

वो आना चाहता है पास लेकिन
मुनासिब सा बहाना चाहता है

नहीं मालूम क्या चाहत है उसकी
मगर उसको ज़माना चाहता है

कहीं मिल जाए थोड़ी छांव उसको
वो बंजारा ठिकाना चाहता है

नई तहज़ीब का बेटा हमारा
हमें अब भूल जाना चाहता है

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122

तीन

दुनिया की निगाहों में ख़यालों में रहेंगे
जो लोग तेरे चाहने वालों में रहेंगे

हम लोग बसायेंगे कोई दूसरी दुनिया
मस्जिद में रहेंगे, न शिवालों में रहेंगे

ऐ वक़्त तेरे ज़ुल्मो-सितम सहके भी खुश हैं
हम लोग हमेशा ही मिसालों में रहेंगे

शैरों में मेरे आज धड़कता है मेरा वक़्त
अशआर मेरे कल भी हवालों में रहेंगे

गुलशन के मुक़द्दर में जो आए नहीं अब तक
वो नक़्श मेरे पाँव के छालों में रहेंगे

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन
22 1 1 22 11 221 122

चार

ये धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है

तुमको ज़िद्द ही अगर पर कतरने की है
शौक़ हमको भी ऊँची उड़ानों का है

जानता हूँ हवा है मु्ख़ालिफ़ मेरे
पर भरोसा मुझे बादबानों का है

बाँधकर हम परों में सफ़र उड़ चले
इम्तिहान आज फिर आसमानों का है

बहरे-मुतदारिक सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212


इ-मेल
sukhanwar12@gmail.com

17 comments:

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

यह धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है

हम लोग बसाएँगे कोई दूसरी दुनिया
मस्जिद में रहेंगे न शिवालों में रहेंगे

अनवरे-इस्लाम साहब को पढ़वाने के लिए शुक्रिया

Navneet Sharma said...

नई तहज़ीब का बेटा हमारा
अब हमें भूल जाना चाहता है....

यही नहीं, और भी कई अश्‍आर हैं जो दिल में हलचल मचा गए हैं। अनवारे इस्‍लाम साहब का स्‍वागत कि वह आज की ग़ज़ल में आए और इसके लिए शुक्रिया आज की गजल का भी।
ऐसे सच्‍ची सुच्‍ची शायरी जिन्‍हें आती हैं वे लोग आम नहीं होते।

शुक्रिया।

daanish said...

कैसे, बच्चों को खेलते देखूं
दिन तो दफ्तर में डूब जाता है

बिलकुल....आम बात चीत में इस्तेमाल की गयी
ज़बान और लहजे को किस खूबसूरती से
एक खूबसूरत शेर में ढाल दिया गया है
वाह

वो आना चाहता है पास, लेकिन
मुनासिब-सा बहाना चाहता है
नई तहज़ीब का बेटा हमारा
हमें अब भूल जाना चाहता है

एक नफीस-से इशारे को लफ़्ज़ों का लिबास
पहना कर हम सब के लिए बुना गया प्यारा शेर
और उसके बाद
आज के हालात को बयान करने की कामयाब कोशिश

शेरों में मेरे आज धड़कता है मेरा वक़्त
अश`आर मेरे कल भी हवालों में रहेंगे

इस में कोई शक नहीं कि
जनाबे अनवारे इस्लाम साहब के अश`आर
हवालों में बने रहेंगे
अनवार साहब एक अदब-शनास शख्सियत हैं
रिसाला "सुखनवर" का कोई कोई शुमारा
पढने को मिल जाता है .... शुक्रिया

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

तन के चलता है भाई के आगे
सर दरे-ग़ैर पर झुकाता है

...सभी अशआर हकीकत आँखों के सामने दृश्य दिखाते हैं.

अनवारे इस्लाम जी की अभी हाल ही में सुखनवर पढ़ा. आज की ग़ज़ल में देख ख़ुशी हुई.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

वो आना चाहता है पास, लेकिन
मुनासिब-सा बहाना चाहता है
... सीधी बात कोमल शे'र हैं.

सुखनवर पढने के लिए यहाँ जाएँ....
http://www.archive.org/stream/SukhanwarMarchApril/march#page/n0/mode/2up

Shekhar Kumawat said...

bahut khub


sari gazle bahtrin or shandar

वीनस केसरी said...

अनवारे साहब को जानने का मौक़ा मिला और उनकी गजल पढ़ने का लुत्फ़ उठाया

सुखनवर पत्रिका के दो अंक पढ़ चुका हूँ

अनवारे साहब ने कुशल संपादन किया है

पोस्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

गजल के लिए केवल एक शब्द हैं मेरे पास -

लाजवाब

तिलक राज कपूर said...

अनवारे इस्लाम ग़ज़लें तस्‍दीक करती हैं कि अच्‍छी ग़ज़ल कहने के लिये जटिल शब्‍दों की जरूरत नहीं होती है; तस्‍दीक करती हैं ग़ज़ल में उर्दू अल्‍फ़ाज़ का अपना ही महत्‍व है लेकिन हर जगह जरूरी नहीं। कोई भी हिन्‍दी भाषी ये ग़ज़लें आद्योपान्‍त सरलता से पढ़ जायेगा बिना महसूस कि ये कि इसमें कहीं उर्दू है। बस यही खुसूसियत होती है अच्‍छे शायर की, भाषा का संयत उपयोग।
दिली मुबारकबाद अन्‍वारे इस्‍लाम साहब को।

नीरज गोस्वामी said...

कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है
****
वो आना चाहता है पास लेकिन
मुनासिब सा बहाना चाहता है
****
हम लोग बसायेंगे कोई दूसरी दुनिया
मस्जिद में रहेंगे, न शिवालों में रहेंगे
****
ये धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है

सतपाल जी ऐसे कमाल के अशार पढवाने के लिए आपकी जितनी तारीफ़ की जाये कम है...अनवारे इस्लाम साहब की चारों ग़ज़लें बेहतरीन हैं और कम लफ़्ज़ों में सारी बात कहने का हुनर जानती हैं...हर ग़ज़ल अपने आप में मुकम्मल है और ढेर सारी दाद की हकदार है...
नीरज

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है

वो आना चाहता है पास लेकिन
मुनासिब सा बहाना चाहता है

ये धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है

बहुत सुन्दर गज़लें. आभार.

सुभाष नीरव said...

जनाब अनवारे इस्लाम की ग़ज़लें बहुत खूब लगीं। कई शे'र तो दिल पर सीधे उतर गए। ऐसी खूबसूरत ग़ज़लें पढ़वाने के लिए शुक्रिया आपका।

dheer said...

khairiyat is tarah bataataa hai,
haal poochho to muskuraataa hai!

ये धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है

bahut khoobsoorat!

Unknown said...

कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है

ज़िक्र करता है हर जगह मेरा
सामने आके भूल जाता है

dono hi sher lazbaab hein ,

Shukriya !!

kumar zahid said...

एक
कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है

दो
हमारी प्यास की गहराइयों में
समंदर डूब जाना चाहता है

वो आना चाहता है पास लेकिन
मुनासिब सा बहाना चाहता है

तीन
हम लोग बसायेंगे कोई दूसरी दुनिया
मस्जिद में रहेंगे, न शिवालों में रहेंगे

चार
तुमको ज़िद्द ही अगर पर कतरने की है
शौक़ हमको भी ऊँची उड़ानों का है

जानता हूँ हवा है मु्ख़ालिफ़ मेरे
पर भरोसा मुझे बादबानों का है

ये अशआर ही सब बोलते हैं
हम फयूं बे-वजह मुंह खोलते हैं
आदाब जनाब!!

kavi kulwant said...

अनवारे इस्‍लाम ji को पढ़ने का मौक़ा मिला
बहुत बहुत धन्यवाद

Devi Nangrani said...

Kaise Bachon ko khelte dekhon
Din to daftar mein doob jaata hai

Haqueeqat ke samne aina vo bhi saaf shafaaq..har gazal mein sabhi sher ek sandesh prakat de rahe hain..Anware Saheb ko pagna ek sukhad anubhav raha hai hamesha ki tarah

Urmi said...

बहुत बढ़िया गजलें! एक से बढ़कर एक शेर हैं! उम्दा पोस्ट!