Thursday, May 27, 2010
अंतिम क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
इस तरही मुशायरे में तक़रीबन ३० शायर-शाइराओं ने हिस्सा लिया। मिला-जुला सा अनुभव रहा । देश-विदेश से ३० शायर एक जगह आकर इकट्ठा हों वो भी लगभग मुफ़्त में ,बताओ और क्या चाहिए। कुछ कच्चे-पक्के शे’र, नये-पुराने शायरों ने सबके सामने रखे हैं। अनुभव और प्रयास का अनूठा संगम था ये मुशायरा और अब अंतिम क़िस्त में लीजिए पहले आदरणीय श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो और सुंदर शे’रों के साथ इस बेहद खूबसूरत शे’र को भी अपने दामन में समेटे हुए है-
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
द्विजेन्द्र द्विज
जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी
यह तेरा रनिवास रे जोगी
जप-तप का उपहास रे जोगी
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी
बीच भँवर में जैसे किश्ती
जीवन का हर श्वास रे जोगी
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
मन-मंदिर में हों जब साजन
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
साथ मिलन के क्यों रहता है
बिरहा का आभास रे जोगी
बुझ पाई है बूँदों से कब
यह मरुथल की प्यास रे जोगी
क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन
मर जाए जब आस रे जोगी
मैं अपना प्रयास भी आप सब के सामने रख रहा हूँ और डर भी रहा हूँ कि लोग कहेंगे दूसरों के शे’र तो काट देता है लेकिन अपने नहीं देखता । ये मेरा सौभाग्य है कि द्विज जी के साथ मेरी ग़ज़ल शाया हुई है। खै़र ! मुलाहिज़ा कीजिए-
सतपाल ख़याल
आए लबों पर श्वास रे जोगी
छूटा कारावास रे जोगी
दशरथ सी लाचार है नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
शाखों से रूठे हैं पत्ते
किसको किसका पास रे जोगी
रिशतों के पुल टूट चुके हैं
दूर वसो या पास रे जोगी
बस जी का जंजाल है दुनिया
अच्छा है सन्यास रे जोगी
नील , सफ़ैद और भगवा काले
सब रंग उसके दास रे जोगी
दुख-संताप, पाप के जंगल
जीवन भर बनवास रे जोगी
मुँह में राम बगल में बरछी
किसका अब विश्वास रे जोगी
राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी
दुनिया में हर चीज़ की जड़ मन में ही रहती है चाहे वो सन्यास हो या फिर दुनियादारी। मन से ही आदमी जोगी या भोगी होता और इस मन को तो संत और महापुरुष भी खोजते रहे लेकिन इसका कोई सिरा शायद ही किसी के हाथ लगा हो। योग भगवा , सफ़ेद या नीले कपड़े पहनने से नहीं मिलता योग तो मन को जीत कर ही मिलता है। इस मुशायरे का अंत मैं इस शब्द के साथ करना चाहता हूँ जो सुनने लायक है। शायरी और वाणी में यही फ़र्क़ है । वाणी गुरओं और संतो के मुख से निकलती है और संत अपनी कथनी-करनी के पक्के होते हैं लेकिन शायर तो हम जैसे ही होते हैं। सरवण करो ये शब्द-
इस मन को कोई खोजो भाई
तन छूटे मन कहाँ समाई
हिस्सा लेने वाले तमाम शायरों का और पाठकों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। कोई ग़लती हो तो मुआफ़ी चाहता हूँ। मैं सब शायरों से ये अनुरोध करता हूँ कि वो अपने अनुभव हमसे बाँटें और इस समापन पर अपनी हाज़री ज़रूर दें ।
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18 comments:
द्विज जी ने जैसे अशआरों की बारिश की है... मन भर आया.
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी... शेर बहुत पसंद आये.
सतपाल जी के शेर... राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी भी अच्छे लगे .
भाई द्विजेन्द्र द्विज जी की ग़ज़ल पर टिप्पणी करना कठिन काम है लेकिन एक पाठक के रूप में जो भी अश्आर पसंद आए वे यूं हैं
यथार्थ की तीखी अभिव्यक्ति :
जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी
क्या उलाहना है:
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
एक सच्ची सी उदासी :
काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी
और ये हैं हासिल-ए-ग़ज़ल शे'र
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी
बहुत खूब :
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
और यह शे'र हर संदर्भ में आज का सबसे बड़ा सच है:
बुझ पाई है बूँदों से कब
यह मरुथल की प्यास रे जोगी: भाई द्विज जी को खूबसूरत ग़ज़ल के लिए आभार।
भाई सतपाल जी ने भी कमाल किया है :
दशरथ सी लाचार है नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी
और यह शे'र तो जैसे जान ही खींच लेता है
रामभरोसे पलते दोनों
क्या निर्धन, क्या घास रे जोगी
मुशायरा कामयाब रहा है जिसमें हर शायर का कलाम बहुत अच्छा लगा। अनुरोध है कि नया मिसरा भी जल्द दिया जाए ताकि मश्क शुरू हो।
सतपाल जी जो चीज़ें सही है उसे मानने में कोई हर्ज़ नही है..निसंदेह आप की रचना बहुत सुंदर और वजन दार हैं..एक एक लाइन सुंदर बन पड़ी है ..हम लोगों की रचनाओं में जो थोड़ी-बहुत लचक होती ही उसे हम शायद यहाँ से भरपाई कर सकते है वैसे सच कहूँ तो यह मेरा पहला प्रयास था पर आप लोगों से बहुत कुछ सीखने को मिला..द्विज जी की ग़ज़ल भी लाज़वाब है ..मेरी लिए मुशायरा बहुत खास रहा..बहुत अच्छे अच्छे लोगों को पढ़ा आपको बहुत बहुत धन्यवाद देना चाहूँगा....
सस्नेह
विनोद पांडेय
dwij ji ki Gazal ke kya kahame...
satpal ji aap ek vahut great kaam kar rahe hai...
God vless you...
with love...
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी!
waah! bahut khoob!
रामभरोसे पलते दोनों
क्या निर्धन, क्या घास रे जोगी!
bahut khoob!
-Dheeraj Ameta "Dheer"
" तरही-मुशायरे में सभी शायर
अपने-अपने अन्दाज़ में जोगी
से मुख़ातिब हुए ! जैसे द्विज जी
‘जोगी’ को ‘भोगी’ के रूप में देखते
हुए कहते हैं :
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
उन के सारे शे’र ‘जोगी’ को इसी रूप में
देखते हैं ! पहले तीन शे’र सीधा तंज़ हैं !
अगले कुछ शे’र सन्यास की सही अन्दरूनी
तस्वीर पेश करते हुए उस झूठे जोगी को समझा
रहे हैं :
काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी
रूहों से...
नामों पर...
उन का ‘जोगी’ से मुख़ातिब होने का यह अन्दाज़ ख़त्म
होता है इस शे’र के साथ :
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
अगले चार शे’र उनके जोग न लेने के बावजूद अपने जोगी
होने का उस ‘जोगी’ को एहसास दिलाते हैं :
क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन
मर जाए जब आस रे जोगी
ग़ज़ल बहुत बढ़िया है ! हर शे’र उम्दा है !
इसी तरह सतपाल ‘ख़्याल’ जी भी अपने एक ख़ास अलग
अन्दाज़ में ‘जोगी’ से मुख़ातिब होते हैं:
बस जी का जन्जाल है दुनिया
अच्छा है सन्यास रे जोगी
उन की ग़ज़ल में सन्यास पर कोई तंज़ नहीं है ! वो ‘जोगी’
के सच्चे या झूठे होने की भी बात नहीं करते ! उन के पहले
चारों शे’र आदमी क्यूं सन्यासी बनता है--इस बात को ज़ाहिर
करते हैं :
शाख़ों से...
रिश्तों के...
उन के अगले शे’रों में उन के सन्यास को अच्छा समझने के
बावजूद सन्यास न लेने या न ले सकने के दर्द को बयाँ करता है :
राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी
बहुत अच्छी ग़ज़ल ! बढ़िया शे’र !
दोनों ग़ज़लों में ‘जोगी’ से लगातार एक अलग लेकिन ख़ास अन्दाज़ में
बात होती है--और वो अन्दाज़ बरक़रार रहता है , और रहना भी चाहिए !
ग़ज़ल का हर शे’र अपने आप में मुकम्मल हो कर भी एक ही ज़मीने-ख़्याल
या ख़ास ज़हनियत से बावस्ता हो तो ग़ज़ल खिल उठती है !
On the topic `Details of the content' of Ghazal ,Wikipedia writes
thus :
"Although every sher may be an independent poem in itself, the shers may share the same theme or even display continuity of thought. This is called a musalsal ghazal, or "continuous ghazal". The ghazal "chupke chupke raat din aasUU bahaanaa yaad hai" is a famous example of a musalsal ghazal."
सिर्फ़ क़ाफ़िए से निस्बत रखना ही अच्छी ग़ज़ल की पहचान नहीं हो सकती ! ऐसे में कई
बार अच्छा शे’र भी पूरा असर नहीं छोड़ पाता !
द्विज जी की राय इस बारे में यक़ीनन बेहतर रौशनी डाल सकेगी ! "MB sharma Madhur
आदरणीय ‘मधुर’ साहब
मेरा सौभाग्य कि आपको मेरी ग़ज़ल पसन्द आई है.
आपकी टिप्पणी के माध्यम से अच्छी ग़ज़ल को और विस्तार से समझने में नये लोगों को और भी अधिक मदद मिल सकती है। आपकी राय बहुत सटीक है। मुझे अपना एक शे’र याद आ रहा है,
"ग़ज़ल में शेर ही कहना है ‘द्विज’ हुनरमंदी
नया तो कुछ भी नहीं क़ाफ़िए उठाने में"
प्रिय सतपाल जी से एक अनुरोध यह भी मुझे करना है कि तरही मुशायर ज़रूर करवाते रहें लेकिन सारी ग़ज़लें एक ही बार में पाठकों के लिए प्रकाशित कर दें। इससे उन्हें सारी क़िस्तों के लिए लम्बा इन्तज़ार नहीं करना पड़ेगा।
मैं सभी शायरों का भी धन्यवाद करना चाहता हूँ जिन्होंने इस आयोजन में भाग लिया।
सतपाल जी आपकी ख़ूबसूरत ग़ज़ल का मतला :
"आए लबों पर श्वास रे जोगी
छूटा कारावा
स रे जोगी"
तो और भी ख़ूबसूरत लगा । मुझे अपने पिता जी का शेर याद आ गया:
"साग़र" हिसारे-ज़ात से छूटा यूँ लगा
इक उम्र क़ैद काट के घर आ गया हूँ मैं.
जनाब-ए-"द्विज" साहब की कोई भी ग़ज़ल
पढ़ लेना / सुन लेना
हर बार , बार-बार एक अलग-सा नया-नया
तज्र्बा हासिल कर लेने के बराबर होता है
उनकी ग़ज़ल में तकरीबन हर शेर
कुछ न कुछ पैगाम देता हुआ जान पड़ता है
"हर suvidha tujh पास re jogi
dhatt teraa sanyaas re jogi"
इस शेर में 'tujh पास' और 'dhatt तेरा' का इस्तेमाल
अपने आप में अनूठा है... और शेर में निखार भी आ गया है
"जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी "
ये फलसफा हर जगह है ,,हर वक्त है ,,,
लेकिन इसे महसूस कर अपनी लेखनी की नोक पर लाना
और ऐसे खूबसूरत शेर में बाँधना
बस 'द्विज' जी के बस की ही बात है ...
इस के इलावा
"बुझ पाई है कब बूंदों से
ये मरुथल कि प्यास रे जोगी"
"मन मंदिर में हों जब साजन
सब ऋतुएं मधुमास रे जोगी"
ये तमाम अश`आर भी अपनी मिसाल आप हैं .
'शाखों से रूठे हैं पत्ते
किसको किसका पास रे जोगी'
संकेत और प्रतीक का प्रयोग किस सुन्दरता से
किया जा सकता है
उसका विशेष उदाहरण सतपाल जी का ये शेर है
जीवन के aas-पास से ही जीवन की बात ...
मुहावरों के प्रयोग की एक और प्रस्तुति....
'मुहं में राम, बगल में बरछी
अब किसका विश्वास रे जोगी' ... वाह
ख़याल साहब आपकी ग़ज़ल बहुत पसंद आई
मुबारक बाद .
dono ghazal..
aur comments padh chukne ke baad...
kaafi soch-samjh kar donon naayaab ghazlon ko khud mein utaarnaa jyaadaa jaroori lag rahaa hai...
bajaay kaafiye ki jaroorat /naa jaroorat ko sochne ke...
सभी रचनाकारों के प्रयास सराहनीय हैं। मगर जिस अंदाज़ से द्विज जी ने जोगी की ख़बर ली है वह मुझे बहुत अच्छा लगा-
जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
देवमणि पाण्डेय
Ahaaa sab krituyen madhumaas re jogi .....
kya baat kah di
aur ye sher bhi bahut pasand aaya ....
bhujh paayi hai bundon se kab.....
Kya baat kah di satpal ji .....
raam bhrose palte ..... ik nirdhan ik ghaas waah ......
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी..
आप लोगों ने सच में रंग जमा दिया, शब्दों का रंग.
बहुत खूब. शुभकामनाएं.
आदरणीय द्विज जी की ग़ज़ल पर कोई टिप्पणी करना छोटे मुंह बड़ी बात हो जायेगी.
दशरथ सी लाचार ये नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
वाह भाटिया जी !
सफल आयोजन के लिए बधाई ! मेरी हाजरी देर से लगी इसके लिए माफी चाहता हूँ.
बीच भंवर में जैसे कश्ती
जीवन का हर श्वास रे जोगी
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
क्या जीवन क्या जीवन दर्शन
मर जाय जब आस रे जोगी
****
रिशतों के पुल टूट चुके हैं
दूर वसो या पास रे जोगी
राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी
अहा हा...भाई सतपाल जी कैसे आपका शुक्रिया अदा करूँ...अरसे बाद मेरे प्रिय शायर द्विज जी के अशआर आपके माध्यम से पढने को मिले हैं...क्या शेर कहें हैं उन्होंने...सुभान अल्लाह...बेजोड़...हैरत कर देने वाली सरलता से जीवन के गूढ़ रहस्यों से पर्दा हटाया उन्होंने...कमाल है साहब कमाल है...मेरी दिली दाद उन तक जरूर पहुंचाएं...मैं उनके अशआर का बरसों से मुरीद हूँ और रहूँगा...
आपने भी भाई दिल जीत लिया है अपने अशआर से...बेहद कलात्मक शेर कहें हैं...दाद कबूल अक्रें...और लिखते रहें.
नीर
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