Wednesday, June 30, 2010

देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' की ग़ज़लें

1 अप्रैल 1934 में आगरा जनपद में जन्मे देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' मूलत: गीतकार हैं जिनके गीतों पर सैंकड़ों छात्रों ने शोध किया है। आपने प्रशासनिक सेवा की जगह अध्यापन को तरजीह देते हुए दिल्ली विश्व्व-विद्यालय में अध्यापन किया। इनके गीत-संग्रहों की एक लम्बी सूची है। हाल ही में इनके दो ग़ज़ल संग्रह`धुएँ के पुल` तथा "भूला नहीं हूँ मैं" प्रकाशित हुए हैं।
प्रयोग और रिवायत का अनूठा संगम हैं इनकी शायरी। देखिए ये मतला जिसमें काफ़िए और रदीफ़ को अनूठे ढंग से पेश किया । "में तुम " और "में हम" दोहरी रदीफ़ और "सफ़र" , "घर" आदि काफ़िए का भी दोहराव एक ही मिसरे में।

डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू , सफ़र में तुम, सफ़र में हम

और एक बेमिसाल शे’र देखिए-

दिखतीं लहू-लुहान क्यों तितली की उँगलियां
काँटों में एक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल


और लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी ये तीन ग़ज़लें -

ग़ज़ल

मुसलसल रंजो-ग़म सहने का ख़ूगर जो हुआ यारो
ख़ुशी दो लम्हों की देकर उसे बेमौत मत मारो

मेरी राहों मे आकर क्यों मेरे पाँवो में चुभते हो
मुहाफ़िज़ बनके फूलों के चमन में तुम खिलो यारो

नहीं इस जुर्म की कोई ज़मानत होते देखी है
असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ और मुहब्बत के गिरफ़तारो

न अब वो मैक़दे साक़ी-ओ-पैमाना उधर होंगे
जहाँ तुम शाम होते ही चले जाते थे मैख़्वारो

रखा क्या है अज़ीयत के सिवा इस गोशा-ए-दिल में
कहाँ तुम आ गए हो ऐशो-इश्रत के तलबगारो

*ख़ूगर -आदी

हज़ज की सालिम शक्ल
मुफ़ाईलुन x 4

ग़ज़ल

अपने में लाजवाब है कहते जिसे ग़ज़ल
सहरा में इक सराब है कहते जिसे ग़ज़ल

अब मकतबों या मयक़दों में फ़र्क़ क्या करें
लफ़्ज़ों में इक शराब है कहते जिसे ग़ज़ल

जो भी इसे है देखता शैदाई वो हुआ
कमसिन का इक शबाब है कहते जिसे ग़ज़ल

वो पूछते हैं हमसे करें हम भी क्या बयाँ
गूंगे का एक ख्वाब है कहते जिसे ग़ज़ल

दिखतीं लहू-लुहान क्यूँ तितली की उँगलियां
काँटों में इक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल

पढना इसे तो थाम के दिल को पढ़ो जनाब
अश्कों की इक किताब है कहते जिसे ग़ज़ल

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

ग़ज़ल

डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू सफ़र में तुम, सफ़र में हम

अलग-अलग हैं बस्तियाँ , जुदा-जुदा भी हैं पते
हमारे ख़त मिले तुम्हें, शहर में तुम, शहर में हम

मुक़ाम है वो कौन सा जहाँ पे वो नहीं रहा
वो देखता सभी को है , नज़र में तुम, नज़र में हम

तुम्हारे पास रूप है हमारे पास रंग है
जो फूल तुम तो बर्ग मैं , शजर में तुम, शजर में हम

ख़ुदा-ओ-नाख़ुदा सभी बचाने तुमको आ गए
हमारी कश्ती डूबती , भँवर में तुम , भँवर में हम

तुम एक इश्तिहार हो, मैं ज़िक़्रे-नागवार हूँ
ज़ुबां पे तुम ज़हन में हम, खबर में तुम, खबर में हम

हज़ज मसम्मन मक़बूज़-
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 X4

9 comments:

Udan Tashtari said...

इन्द्र जी की तीनों गज़ले बहुत शानदार लगीं..आभार प्रस्तुत करने का.

निर्मला कपिला said...

लाजवाब प्रस्तुति देवेन्द्र जी को पढवाने के लिये धन्यवाद्

निर्मला कपिला said...

लाजवाब प्रस्तुति देवेन्द्र जी को पढवाने के लिये धन्यवाद्

kavi kulwant said...

sundar...

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

कमाल की शायरी है गीतकार देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' जी की.

आज मिल कर, पढ़ कर बहुत से नए अहसासों से भर गया मैं. बहुत शुक्रिया इस प्रस्तुति के लिए

वीरेन्द्र जैन said...

अब मकतबों या मयक़दों में फ़र्क़ क्या करें
लफ़्ज़ों में इक शराब है कहते जिसे ग़ज़ल

बेहतरीन शेर, बधाई शायर को भी और आपको भी

विनोद कुमार पांडेय said...

सतपाल जी बहुत सुंदर प्रस्तुति देवेन्द्र जी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा देवेन्द्र जी की ग़ज़ल दिल छू गई एक एक बढ़ कर एक सुंदर लाइन..बढ़िया प्रस्तुति के लिए धन्यवाद

Dr.Ajmal Khan said...

गज़ले बहुत शानदार है ,मुबारकबादी क़ुबूल हो इन्द्र जी को, और गज़ल को पेश करने वाले को भी.

jogeshwar garg said...

देवेश शर्मा "इन्द्र" को पढ़ना सचमुच एक अनूठा अनुभव था. बहुत ही शानदार प्रयोगों से भरी हुई ग़ज़लें.
आनंददायक !
अतुलनीय !
धन्यवाद भाटियाजी !