Friday, July 16, 2010

निश्तर ख़ानक़ाही की दो गज़लें














1930 में बिजनौर(उ.प्र) में जन्में निश्तर ख़ानक़ाही साहब के अब तक पाँच गज़ल संग्रह छ्प चुके हैं और कई साहित्यक सम्मान भी ये हासिल कर चुके हैं।संजीदगी और दुख-दर्द का अनूठा बयाँ हैं उनकी गज़लें। कुछ शे’र मुलाहिज़ा कीजिए और शायर के क़द का अंदाज़ अपने आप हो जाएगा-

मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे

अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए


हवाएँ गर्द की सूरत उड़ा रहीं हैं मुझे
न अब ज़मीं ही मेरी है ,न आसमान मेरा

धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया
हम डूबने चले थे कि दरिया उतर गया

लीजिए इनकी दो गज़लें हाज़िर हैं-

एक

सौ बार लौहे-दिल* से मिटाया गया मुझे
मैं था वो हर्फ़े-हक़ कि भुलाया गया मुझे

लिक्खे हुए कफ़न से मेरा तन ढका गया
बे-कतबा* मक़बरों में दबाया गया मुझे

महरूम करके साँवली मिट्टी के लम्स से
खुश रंग पत्थरों मे उगाया गया मुझे

पिन्हाँ थी मेरे जिस्म में कई सूरजों की आँच
लाखों समुंदरों में बुझाया गया मुझे

किस-किसके घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे

मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे

लौहे-दिल-ह्रदय-पट्ल, बे-कतबा-बिना शिलालेख वाले

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

दो

तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए

अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों मे फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए

अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए

अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकरां* है और मैं
मुदद्तें गुज़री हैं अपने आप को देखे हुए

किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है उन्हें
ये खिज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के वन महके हुए

काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए

*बहरे-बेकरां -अथाह सागर

बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212

9 comments:

तिलक राज कपूर said...

बेहतरीन ग़ज़लें।
दूसरी ग़ज़ल के मत्‍ले में
तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते रहे
की जगह
तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
है। टंकण त्रुटि रह गयी है।

सतपाल ख़याल said...

kapoor ji,
टंकण त्रुटि..is corrected
thanks..

Dr.Ajmal Khan said...

खानकाही साह्ब की दोनो गज़ले बेहतरीन है, शुक़्रिया.......

विनोद कुमार पांडेय said...

मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे..

लाज़वाब ग़ज़ल..खानकाही जी को बधाई...सतपाल जी बढ़िया ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए आपको बहुत बहुत आभार!!

अर्चना तिवारी said...

बहुत सुंदर ग़ज़लें

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

सलाम है उस्तादाना कलाम को !

निश्तर ख़ानक़ाही साहब की ग़ज़लें पढ़ने का अवसर देने के लिए आज की ग़ज़ल की पूरी टीम सहित भाई सतपाल जी भाटिया का हृदय से आभार !
एक दो शे'र नहीं , तमाम अश्आर क़ाबिल-ए-ता'रीफ़ हैं ।
आज की ग़ज़ल पर आना सार्थक हुआ ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

… और यह सार्थकता हमेशा महसूस हुई है!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

VIVEK VK JAIN said...

very nice...
heart touching....

jogeshwar garg said...

निश्तर खानकाही साहब की दोनों ग़ज़लें बहुत ही बेहतरीन हैं.
"मैं भी तो एक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे"

"काट में बिजली से तीखी बाल से बारीकतर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए"

वाह ! क्या बात है !