इस बहर में शे’र कहना सचमुच पाँव में पत्थर बाँध कर पहाड़ पर चढ़ने जैसा है। क्योंकि इसमें तुकबंदी की तो बहुत गुंज़ाइश थी लेकिन शे’र कहना बहुत कठिन। इसी वज़ह से तीन-चार शायरों को हम इसमें शामिल नहीं कर सके । दानिश भारती जी(मुफ़लिस) ने कुछ ग़ल्तियों की तरफ़ इशारा किया था, उनको हमने सुधारने की कोशिश की है और आप सबसे गुज़ारिश है कि कहीं कुछ ग़ल्ति नज़र आए तो ज़रूर बताएँ। हमारा मक़सद यह भी रहता है कि नये प्रयासों को भी आपके सामने लेकर आएँ और अनुभवी शायरों को भी। भावनाएँ तो हर शायर की एक जैसी होती हैं लेकिन उनको व्यक्त करने की शैली जुदा होती है। और यही अंदाज़े-बयां एक शायर को दूसरे से जुदा करता है और यही महत्वपूर्ण है।
द्विज जी का ये शे’र
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-
द्विजेंद्र द्विज
चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो
अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो
आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो
सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो
जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो
15 comments:
सतपाल भाई पिछले कुछ दिनों से चीन गया हुआ था इस वजह से आपकी पिछली पोस्ट नहीं पढ़ पाया...उम्मीद है नाराज़ नहीं होंगे.
आज तो आपने मेरे सबसे पसंदीदा ग़ज़ल गो द्विज जी की गज़ल पढवा कर कमाल ही कर दिया है. द्विज जी की येही खासियत है वो हमेशा ही कुछ ऐसे शेर आसानी से कह जाते हैं जिन्हें पढ़ने के बाद दांतों तले ऊँगली दबानी पड़ती है...उनका ये हुनर उन्हें बाकि शायरों से बिलकुल अलग रंग देता है...
अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो
इस ज़ज्बे को बहुत से शायरों ने अपनी शायरी में अलग अलग अंदाज़ से बांधा है लेकिन छोटी बहर में इसे जिस ख़ूबसूरती से द्विज जी ने बांधा है उस पर वाह वाह करते जबान नहीं थकती...
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
सुभान अल्लाह...ये द्विज जी की सोच का कमाल है, भूख बच्चा और लोरी पर बहुत से शेर पढ़े हैं लेकिन ऐसा एक नहीं पढ़ा...वाह वाह...
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
पानी से भरा गिलास आधा खाली है या आधा भरा ये हमारे सोचने पर निर्भर करता है और इसे शायरी में इस तरह ढालना...उफ्फ्फ्फ़...क्या कहूँ...
द्विज जी की शायरी पढ़ने वालों को उनका मुरीद बना लेती है...वो जहाँ रहे यूँ ही शायरी करते रहें और मुस्कुराते रहें येही दुआ करता हूँ...आमीन
नीरज
भाई नीरज गोस्वामी जी ने जो कहा, मैं संभवत: वही कहना चाह रहा था। अग्रज द्विज जी को बधाई।
Neeraj ji,
welcome back to india and back to blog..thanx
नीरज जी की बात के बाद
कुछ भी कह पाना मुमकिन नहीं लग रहा
उनकी एक-एक बात का अनुमोदन करता हूँ
आदरणीय द्विज जी , निसंदेह,
शाईरी के आकाश में
उज्जवल चाँद की तरह चमक रहे हैं...
और अपने आस-पास के
सितारों को रौशन bhi कर रहे हैं
उनके ये अश`आर बहुत प्रभावित कर गए....
"अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो"
"सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो"
"जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो"
उन्हें बहुत बहुत मुबारकबाद .
बढ़िया शेरों से सजी ग़ज़ल
द्विजjजी की गज़ल पर मै कुछ कहूँ तो सूरज को दीप दिखलाने वाली बात होगी। आज भी जब उनकी पुस्तक जन गन मन हाथ मे लेती हूँ तो उनकी गज़लें पढ कर हैरान होती हूँ इतने गहन भाव कहीं कोई दोहराव नही। उस्तादों की गज़लों से सिर्फ सीखा जाता है इसलिये कमेन्ट देने आयी हूँ कि उनकी लाजवाब शायरी से मैने बहुत कुछ सीखा।
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो"
ये दोनो शेर सिर्फ कोट लरने के लिये ही हैं वर्ना पूरी गजल बहुत अच्छी लगी। द्विज जी को बधाई और आपका धन्यवाद इस गज़ल को पढवाने के लिये।
wah wha bahut khoob bahut khoob...
Sundar hi nahi balki Ati sundar hai, apki rachna
लाजवाब ! लाजवाब !!
नीरज जी की टिप्पणी के बाद कहने को कुछ नहीं बचता। मुबारक ।
प्रिय बंधुवर सतपाल जी
नमस्कार !
आप दुरुस्त फ़रमाते हैं कि - "भावनाएँ तो हर शायर की एक जैसी होती हैं लेकिन उनको व्यक्त करने की शैली जुदा होती है।"
…और द्विज जी का अंदाज़ ! क्या कहने !!
पूरी ग़ज़ल ने लुभा लिया है , एक शे'र कोट किए बिना मन नहीं मान रहा -
लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो
वैसे बहुत समय से द्विज जी कहीं मिल नहीं पा रहे … मेरा सलाम उन तक पहुंचे …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
यह बात सही है कि ग़ज़ल में कहन न हो तो वह मात्र तुकबंदी लगती है।
'चोट नई..' में छुपा कटाक्ष, और 'अपनी छाप..' में छाप तिलक सब धर दीन्हीं का दर्शन कराती हुई ' जाओ, इक भूखे बच्चे..'से होती हुई ग़ज़ल जब 'सन्नाटे की ...' की बस्ती तक पहुँचती है तो लगता है कि काश सफ़़र कुछ और लंबा होता लेकिन हर सफ़र कहीं तो रुकता है, गूंगों बहरों की बस्ती में ही सही।
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
कमाल है.........
वाह.
द्विज जी की किसी भी गज़ल तो सुनने पढ़ने के बाद, मुंह से यही निकलता है..वाह.
अब किस शेर को कोट करें. "लोरी से बहला कर देखो..", "हाथ मिला कर देखो"..बहुत खूब.
मकता भी बहुत अच्छा है.
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