Saturday, March 19, 2011

प्रफुल्ल कुमार परवेज़







ग़ज़ल

वो बेहिसाब है तन्हा तमाम लोगों में
जो आदमी है सरापा तमाम लोगों में

तू झूठ, सच की तरह बोलने में माहिर है
अज़ीम है तेरा रुतबा तमाम लोगों में

ख़ुदी की बात लबों पर ज़रा-सी क्या आई
मैं घिर गया हूँ अकेला तमाम लोगों में

मिलो तपाक से नीयत करे करे न करे
कमाल है ये सलीका तमाम लोगों में

ये क्या मुकामे-जहाँ है कि अब गरज़ के सिवा
बचा नहीं कोई रिश्ता तमाम लोगों में

इक आरज़ू थी जो शायद कभी न हो पूरी
हबीब-सा कोई मिलता तमाम लोगों में

म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
बहरे-मजतस


{ थाईलैड से यह ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ , दूर हूँ , लेकिन हिंदी लिखकर ऐसा लगा मानो घर पर बैठा हूँ }

8 comments:

मनोज कुमार said...

बेहतरीन ग़ज़ल।
हैप्पी होली!

तिलक राज कपूर said...

खूबसूरत ग़ज़ल।

अनामिका की सदायें ...... said...

umda gazal.

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

वाह! क्या कहने! और आपका ये ब्लाग भी। शुक्रिया।

शारदा अरोरा said...

मिलो तपाक से नीयत करे करे न करे
कमाल है ये सलीका तमाम लोगों में
badhiya ...

निर्झर'नीर said...

मिलो तपाक से नीयत करे करे न करे
कमाल है ये सलीका तमाम लोगों में

बेहतरीन

Pratik Maheshwari said...

ये क्या मुकामे-जहाँ है कि अब गरज़ के सिवा
बचा नहीं कोई रिश्ता तमाम लोगों में..

यह पंक्तियाँ तो बहुत ही सजीव लगती है आज के ज़माने में.. बहुत ही संगतपूर्ण ग़ज़ल..

पढ़े-लिखे अशिक्षित पर आपके विचार का इंतज़ार है..
आभार

Devi Nangrani said...

Behad Umda ghazals padwane ke is manch ke liye meri shubhkamnayein v badhayi