Monday, August 22, 2011
डा. एम.बी. शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़ल
1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.
लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं
वो कुछ तो बूढ़े अरमाँ हैं कुछ शोख़ -से सपने निकले हैं
ऐ रहबर ! अपनी आँख उठा, कुछ देख ज़रा, पहचान ज़रा
ग़ैरों-से जो तुझको लगते हैं वो तेरे अपने निकले हैं
बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं
बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं
जिस हद में हमारे कदमों को कुछ ज़ंजीरों से जकड़ा है
बिन तोड़े उन ज़ंजीरों को उस हद से गुज़रने निकले हैं
हम आज भगत सिंह के जज़्बों को ले कर अपने सीनों में
जो राह दिखाई गांधी ने वो राह परखने निकले हैं
(8 felun)
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9 comments:
एक एक शेर सीधी दिल में जाता है...
वाह वाह वाह...
सादर बधाई...
आज के हालात की नब्ज़ पर हाथ धरती इस बेजोड़ ग़ज़ल के लिए मधुर जी को बहुत बहुत बधाई...हर शेर काबिले दाद है...उनकी किताब छपने की जानकारी मुझे जरूर दीजियेगा...काश आप उनकी आवाज़ में भी एक आध ग़ज़ल सुनवा देते...:-)
नीरज
aaj ke haalaat par ek sateek gazal..
bahut hi khoobsurat aur pukhtaa soch ko darshaati huee
bahut steek gazal
w a a h !!
सलाम आपके इस जज़्बे को। साहित्य का योगदान हर क्रॉंति में रहेगा। यह कैसे अछूती रह सकती है।
पूरी ग़ज़ल बेहतरीन, तिस पर ये शेर तो माशा अल्लाह......!!!!
बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं
हालत को भांपते हुए बहुत मौजू ग़ज़ल है ..... बहुत बहुत शुभकामनायें !!!
bahut hi achchhi gazal prastuti kiya hai apne. dhanyvaad.
बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं
लग चुकी है आग अब तो मुल्क में साहिब!
धुआं भी उठेगा और ज्वालाएं भी
♥
भाई सतपाल ख़याल जी
नमस्कार !
आप द्वारा लगातार अच्छे ग़ज़लकारों को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य प्रशंसनीय है ।
डॉ.मधुभूषणजी शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़ल के लिए आभार और बधाई !
अच्छे अश्'आर हैं -
बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं
ख़ूब कहा है-
बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं
काश ! तंज़ीम जल्द से जल्द बदली जा सकती …
♥ हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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