Tuesday, August 14, 2012

दुष्यंत कुमार



ग़ज़ल

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं


तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

6 comments:

सदा said...

वाह ... बेहतरीन प्रस्‍तुति।

Navneet Sharma said...

इस कालजयी ग़ज़ल को पढ़वाने के लिए सतपाल भाई साहब का मन से शुक्रिया। दुष्‍यंत जी बहुत याद आए...।

Navneet Sharma said...

इस कालजयी ग़ज़ल को पढ़वाने के लिए सतपाल भाई साहब का मन से शुक्रिया। दुष्‍यंत जी बहुत याद आए...।

तिलक राज कपूर said...

स्‍वतंत्रता दिवस के लिये स्‍वर्गीय दुष्‍यन्‍त कुमार की इस बेबाक ग़ज़ल से अच्‍छी प्रस्‍तुति क्‍या हो सकती है।

Yashwant R. B. Mathur said...

बेहतरीन गजल

सादर

Anamikaghatak said...

bahut hi sundar post....pankti pankti ati sundar