ग़ज़ल
ये कौन पूछता है भला आसमान से
पंछी कहाँ गए जो न लौटे उड़ान से
‘सद्भाव’ फिर कटेगा किसी पेड़ की तरह
लेंगे ये काम भी वो मगर संविधान से
दंगाइयों की भीड़ थी पैग़ाम मौत का
बच कर निकल सका न वो जलते मकान से
घायल हुए वहाँ जो वो अपने ही थे तेरे
छूटा था बन के तीर तू किसकी कमान से
पागल उन्हें इसी पे ज़माने ने कह दिया
आँखों को जो दिखा वही बोले ज़बान से
`धृतराष्ट्र’ को पसंद के `संजय’ भी मिल गए
आँखों से देख कर भी जो मुकरे ज़बान से
बोले जो हम सभा में तो वो सकपका गया
`द्विज’ की नज़र में हम थे सदा बे—ज़बान—से
10 comments:
badhiya
badhiya
वाह ...बहुत खूब।
द्विज जी की एक और बेहद खूबसूरत गज़ल. मतले से लेकर मकते तक लाजवाब शेर...
वाह!
आनंद आ गया इस खूबसूरत ग़ज़ल को पढ़कर।
‘सद्भाव’ फिर कटेगा किसी पेड़ की तरह
लेंगे ये काम भी वो मगर संविधान से
दंगाइयों की भीड़ थी पैग़ाम मौत का
बच कर निकल सका न वो जलते मकान से
घायल हुए वहाँ जो वो अपने ही थे तेरे
छूटा था बन के तीर तू किसकी कमान से
लाजवाब ग़ज़ल कही है द्विज साहब ने! हर एक शेर मानो तजुर्बे की स्याही में घुला हुआ दर्शन है.... मेरा नमन प्रेषित करें उन्हें!
nice.................
show always dis type of comments........
Adbhut.....घायल हुए वहाँ जो वो अपने ही थे तेरे
छूटा था बन के तीर तू किसकी कमान से
Kya khoob kaha hai sir...really nice.
Anees
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