Monday, March 10, 2014

जतिन्दर परवाज़

                                                           






 




ग़ज़ल 

सहमा सहमा हर इक चेहरा मंज़र मंज़र खून में तर
शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर


तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर

बेमौसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमौसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर

आ भी जा अब आने वाले कुछ इन को भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत आँगन दीवार-ओ-दर

जिस की बातें अम्मा अब्बू अक्सर करते रहते हैं
सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर

6 comments:

wordy said...

kya baat hai!

Parul kanani said...

सुभानल्लाह !

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही लाजवाब गज़लों का सिलसिला ...

Manjari Shukla said...

too good

dr.mahendrag said...

भई वाह। खूबसूरत प्रस्तुति

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

वाह...सुन्दर ग़ज़ल...
आप को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@हास्यकविता/ जोरू का गुलाम