“मैं
कहां और ये वबाल कहां”
हिज्र मिलता है बस विसाल कहां
झूठ सच का रहा सवाल कहां
बस्तियां जल के ख़ाक हो जायें
हुक्मरां को कोई मलाल कहां
मज़हबी वो फ़साद करते हैं
रहबरों से मगर सवाल कहां
दौर "मासूम" ये हुआ कैसा
खो चुका आदमी जमाल कहां
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“मैं
कहां और ये वबाल कहां”
हिज्र मिलता है बस विसाल कहां
झूठ सच का रहा सवाल कहां
बस्तियां जल के ख़ाक हो जायें
हुक्मरां को कोई मलाल कहां
मज़हबी वो फ़साद करते हैं
रहबरों से मगर सवाल कहां
दौर "मासूम" ये हुआ कैसा
खो चुका आदमी जमाल कहां
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9 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 15 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा 16.09.2021 को चर्चा मंच पर होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
वाह!वाह!गज़ब कहा सर।
सादर
जी, बहुत आभार आपका।
जी, बहुत शुक्रिया आपका। कृप्या चर्चा का समय बताएं।
बेहद शुक्रिया आपका, मोहतरमा।
उम्दा ग़ज़ल!
बहुत शुक्रिया आपका।
वाह वाह। बहुत अच्छा लगा। खो चुका आदमी, सो गए नेता, सो गया ईमान। और सोए ईमान को जगाने के लिए आप जैसे सशक्त कलमधारकों को एक ज़लज़ला लाना पड़ेगा। और शब्दों का इंतजार रहेगा।
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