Monday, October 11, 2021

छोटी बह्र कि ग़ज़ल -बशीर बद्र

 

ग़ज़ल 


कोई हाथ नहीं ख़ाली है
बाबा ये नगरी कैसी है

कोई किसी का दर्द न जाने
सबको अपनी अपनी पड़ी है

उसका भी कुछ हक़ है आख़िर
उसने मुझसे नफ़रत की है

जैसे सदियाँ बीत चुकी हों
फिर भी आधी रात अभी है

कैसे कटेगी तन्हा तन्हा
इतनी सारी उम्र पड़ी है

हम दोनों की खूब निभेगी
मैं भी दुखी हूँ वो भी दुखी है

अब ग़म से क्या नाता तोड़ें
ज़ालिम बचपन का साथी है

No comments: