Sunday, March 29, 2009
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में-भाग एक
नहीं करते उन्हें कुछ देर लगती है न हाँ करते
कभी इन्का़र चुटकी मे कभी इक़रार चुटकी मे
लिया था इस ज़मीं मे इम्तिहाने-तबअ यारों ने
किये मौजूं ये हमने ए नसीम अशआर चुटकी में.
इन तरही ग़ज़लों का पहला भाग पेश कर रहे हैं दूसरा जल्द ही प्रकाशित करेंगे.पेश है 10 तरही ग़ज़लें :
मिसरा -ए-तरह : "कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में"
सबसे पहले पेश है ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर(सऊदी अरब)की ग़ज़ल :
किए हैं आज मौज़ूँ मैंने कुछ अशआर चुटकी में
दिली जज़बात का होने लगा इज़हार चुटकी में
कभी बरसों गुज़र जाता है देखे प्यार का मौसम
कभी आ जाती है फ़स्ले-बहारे-प्यार चुटकी में
मसीहा बन के तुम आ जाओ जो ख़्वाबों की दुनिया में
*शफ़ा पा जाएगा मेरा दिले-बीमार चुटकी में
वह शोख़ी याद है जाने तमन्ना तुमसे मिलने की
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
किया है *किश्ते दिल की *आबयारी अश्क से बरसों
नहीं होता है कोई भी चमन गुलज़ार चुटकी में
नहीं है साथ कोई मुफलिसी में पर यकीं जानो
जो माल आया तो बन जाएँगे कितने यार चुटकी में
तुम्हारी बेरुख़ी पर हो गया बेचैन पल भर में
मगर फिर गुफ़्तगू से हो गया *सरशार चुटकी में
कहीं टूटे न यह दिल आइना है यह मोहब्बत का
सो उसकी बात का नय्यर किया इक़रार चुटकी में
*शफ़ा पा जाएगा-अच्छा हो जाएगा,*किश्ते दिल-दिल की खेती,आबयारी-सिंचाई,सरशार-खुश
अब पेश है पुर्णिमा वर्मन की ये ग़ज़ल:
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
कभी सर्दी ,कभी गर्मी, कभी बौछार चुटकी में
ख़ुदाया कौन-से बाटों से मुझको तौलता है तू
कभी तोला, कभी माशा, कभी संसार चुटकी में
कभी ऊपर ,कभी नीचे ,कभी गोते लगाता सा
अजब बाज़ार के हालात हैं लाचार चुटकी में
ख़बर इतनी न थी संगींन अपने होश उड़ जाते
लगाई आग ठंडा हो गया अख़बार चुटकी में
न चूड़ी है, न कंगन है, न पायल है ,न हैं घुँघरू
मगर बजती रही फिर भी कोई झनकार चुटकी में
मेरे प्रिय मित्र नवनीत शर्मा की ये ग़ज़ल:
बदल दी चोट खाए बाज़ुओं ने धार चुटकी में
छिना था मेरे हाथों से जहाँ पतवार चुटकी में
उन्हें तुमने कहा था एक दिन बेकार चुटकी में
चढ़े आते हैं टी.वी. पे जो अब फ़नकार चुटकी में
जगाई याद की तूने अजब झंकार चुटकी में
लो मेरे दिल के फिर से बढ़ गए आज़ार चुटकी में
मोहब्बत, चैन या एतमाद की मंजिल नहीं मुश्किल
मेरे कदमों को तू बख़्शे अगर रफ़्तार् चुटकी में
न माथे पर शिकन कोई, न दिल में हूक, हैरत है
यही हैं लोग क्या, जिनका छिना घर-बार चुटकी में
यह दुनिया हाट हो जैसे, है बिकवाली ज़रूरत की
कि सर पर से हथेली ले गई दस्तार चुटकी में
अजब उलझन का ये मौसम कि जानम भी सियासी है
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
सुनो, जागो, उठो, देखो कि बरसों बाद मौका है
अभी तुमको गिराने हैं कई सरदार चुटकी में
'नहीं' कहना हुनर ऐसा जिसे हम सीख न पाए
जो हमसे खाल भी माँगी, कहा, 'सरकार! चुटकी में'
अकेले जूझना है जीस्त नदिया, मौत सागर से
यहाँ कोई नहीं ले जाए जो उस पार चुटकी में
है बहरो-वज़्न कैसा ये तो द्विज उस्ताद ही जाने
कहा सतपाल ने तो कह दिए अश्आर चुटकी में
चंद्रभान भारद्वाज की ये ग़ज़ल :
सुलझ जाते हैं उलझे प्रश्न कितनी बार चुटकी में;
सफलता पर नहीं मिलती किसी को यार चुटकी में।
कभी होता नहीं तो ज़िन्दगी भर तक नहीं होता,
कभी होता किसी की बात का एतबार चुटकी में।
कई मझधार में डूबे, कई डूबे किनारे पर,
हमारी नाव पर उसने लगाई पार चुटकी में।
उठी टेढ़ी नज़र तो छा गई माहौल में चुप्पी,
मधुर मुसकान से महफिल हुई गुलज़ार चुटकी में।
पड़ा इक इस किनारे पर, पड़ा इक उस किनारे पर,
अचानक जोड़ जाता वक्त टूटे तार चुटकी में।
करें भी तो करें कैसे भरोसा दोमुहों पर हम,
कभी तो प्यार चुटकी में, कभी तकरार चुटकी में।
हुआ है प्यार 'भारद्वाज' अब इक खेल गुड़ियों का,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी की ग़ज़ल
बदलता रहता है हर दम मिज़ाजे-यार चुटकी में ,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
कहीं ऐसा न हो हो जाए वह बेज़ार चुटकी में
तुम उस से कर रहे हो दिल्लगी बेकार चुटकी में
दिले नादां ठहर, अच्छी नहीं यह तेरी बेताबी
नहीं होती है राह-ए-वस्ल यूँ हमवार चुटकी में
अगर चशमे -इनायत हो गई उसकी तो दम भर में
वह रख देगा बदल कर तेरा हाल-ए-ज़ार चुटकी में
अगर मर्ज़ी नहीं उसकी तो तुम कुछ कर नहीं सकते
अगर चाहे तो हो जाएगा बेड़ा पार चुटकी में
बज़ाहिर नर्म दिल है ,वो कभी ऐसा भी होता है
वो हो जाता है अकसर बर-सरे पैकार चुटकी में
कभी भूले से भी करना न तुम उसकी दिल आज़ारी
बदल जाती है उसकी शोख़ी -ए -गुफ़्तार चुटकी में
सँभल कर सब्र का तुम लेना उसके इम्तिहाँ वरना
पलट कर वो कहीं कर दे न तुम पर वार चुटकी में
हमेशा याद रखना वो बहुत हस्सास है 'बर्क़ी'
अगर ख़ुश है तो हो जाएगा वो तैयार चुटकी में
मेरे प्रिय मित्र विजय धीमान(हमीरपुर से):
ग़ज़ल
जो आँखें बंद कर लो तो मिटे संसार चुटकी में
जो आँखे खोल कर देखो तो सब साकार चुटकी में
कभी है प्यार चुटकी में , कभी इनकार चुटकी में
हमारी जीत चुटकी में, हमारी हार चुटकी में
हमारा दिल निकलता है , हमारी जान जाती है
कभी इन्कार चुटकी में ,कभी इकरार चुटकी में
चली जब पेट पर छुरियाँ हुआ मालूम तब हमको
कि साज़िश थी बड़ी ग़हरी घटी जो यार चुटकी में
तुम्हारी जिन अदाओं पर हमारी ज़िंदगी कुरबां
मरे है उन अदाओं पर सकल संसार चुटकी में
जो मीठे बोल हों साथी तो रस घुलता है आलम में
अखरते बोल पर भैया तने तलवार चुटकी में
कभी हँसना, कभी रोना ,कभी पाना, कभी खोना
ये जीवन एक उलझन है न सुलझे यार चुटकी में
जोगेश्वर गर्ग(राजस्थान से)
ग़ज़ल
बदलता है भला ऐसे कभी व्यवहार चुटकी में
लड़ो भी एक पल में और कर लो प्यार चुटकी में
दिलों का मेल होना और वह भी ज़िंदगी भर का
नहीं होता कभी इतना बड़ा व्यापार चुटकी में
सुना मैंने तुम्हारे शह्र की ऐसी रिवायत है
कभी इन्कार चुटकी में , कभी इकरार चुटकी में
बदलने का अगर है शौक़ तो बदलो ज़रा मुझको
बदलते हो वतन मे जिस तरह सरकार चुटकी में
कहो नाराज़ क्यों हो पूछता है आज "जोगेश्वर"
उसे भी तो किसी दिन तुम करो स्वीकार चुटकी में
दिगम्बर नासवा की ग़ज़ल
चले अब छोड़ कर तेरा ये हम संसार चुटकी में
कि जोगी बन गए हम छोड़ कर घर बार चुटकी में
समझ पाया नहीं मैं अब तलक तेरे इरादों को
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
तुम्हारे प्यार के जादू ने कैसा खेल खेला है
अभी आया था मंगल, आ गया इतवार चुटकी में
वो जिसके हाथ में इन्साफ़ के मंदिर की चाबी है
वही कातिल है बैठा है जो बन अवतार चुटकी में
ये घर का राज़ है तुम दफ़्न सीने मे करो इसको
नहीं तो टूट जायेंगे दरो-दीवार चुटकी में
किसी बादल के टुकड़े पर लगे हैं पंख खुशियों के
कहीं बरसेगा बन के गीत की झंकार चुटकी में
ग़ज़ल : मोहम्मद वलीउल्लाह वली
सितम कैसा यह करते हो मेरे सरकार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी
हुई जिस दम किसी से मेरी आँखें चार चुटकी में
ख़िज़ाँ दीदह मेरा दिल हो गया गुलज़ार चुटकी में
न जाने क्या अजब अंदाज़ है उशवा तराज़ों का
कभी तो वाद-ए-उलफ़त कभी तकरार चुटकी में
तुम्हारे इश्क़ ने मुझको बना डाला है सौदाई
तुम्हीं करते हो यूँ मुझको ज़लीलो- ख़्वार चुटकी में
मेरे हाथों में है बस इक इसी उम्मीद का दामन
बदल देती है क़िस्मत इक निगाह-ए-यार चुटकी में
जनाबे- हज़रते -वाइज़ हक़ीक़त से हैं नावाक़िफ
मैं दीवाना हूँ मैं जाउँगा सूए-दार चुटकी में
*शेफाअत जिस को हो उनको मुयस्सर रोज़-ए-महशर में
वली बन जाएगा जन्नत का वह हक़दार चुटकी में
उशवा तराज़ों- नाज़ नख़रा करने वाले,शेफाअत-सिफारिश,पैरवी
ग़ज़ल :मुनीर अरमान नसीमी(उडीसा)
पिलाया उसने जब से शर्बत-ए- दीदार चुटकी में
नुमायाँ है तभी से इश्क़ के आसार चुटकी में
*ख़िज़ाँ- दीदह था इस से पहले मेरा गुलशने हस्ती
मेरा बाग़-ए-तमन्ना हो गया गुलज़ार चुटकी में
किया अर्ज़े तमन्ना मैंने जब वह हँस के यह बोला
नहीं करते किसी से इश्क़ का इज़हार चुटकी में
तुम्हारी इक निगाहे नाज़ के सदक़े मैं ऐ जानाँ !
हुए हैं *ख़म न जाने कितने ही सरदार चुटकी में
गया वह दौर जब फ़रहाद चट्टानों से लड़ ता था
मगर अब चाहते हैं सब यह पा लें प्यार चुटकी में
हमारे रहनुमाओं के अजब *अतवार हैं अरमाँ
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
अतवार-तौर-तरीके ,ख़िज़ाँ दीदह-मुर्झाए हुए, ख़म-झुकना
Saturday, March 21, 2009
जगदीश रावतानी की एक ग़ज़ल
1956 मे जन्मे जगदीश रावतानी प्रसिद्व कवि हैं और इन्होंने छोटे पर्दे पर कई धारावाहिकों मे अभिनय भी किया है.कई प्रतिभाओं के मालिक हैं जगदीश जी. आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए उनकी एक ग़ज़ल पेश है:
ग़ज़ल
गो मैं तेरे जहाँ मैं ख़ुशी खोजता रहा
लेकिन ग़मों-अलम से सदा आशना रहा
हर कोई आरजू में कि छू ले वो आसमां
इक दूसरे के पंख मगर नोचता रहा
यादों मैं तेरे अक्स का पैकर तराश कर
आईना रख के सामने मैं जागता रहा
कैसे किसी के दिल में खिलाता वो कोई गुल
जो नफरतों के बीज सदा बीजता रहा
आती नज़र भी क्यूं मुझे मंजिल की रौशनी
छोडे हुए मैं नक्शे कदम देखता रहा
सच है कि मैं किसी से मुहव्बत न कर सका
ता उम्र प्रेम ग्रंथ मगर बांचता रहा
बहरे-मज़ारिअ
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
शायर का पता
BS-19 Shiva Enclave, A/4 Pashchim Vihar, New Delhi -110063
Ph. 011-25252635,98111-50638
jagdishrawtani@rediffmail.com
Sunday, March 15, 2009
तरही ग़ज़लें
कभी इन्कार चुटकी में , कभी इक़रार चुटकी में.
काफ़िया : इनकार
रदीफ़ : चुटकी में
और बहर : हज़ज
मुफ़ाईलुन X 4
1222 1222 1222 1222
आप अपनी ग़ज़लें २० दिन के अंदर हमें भेजें लेकिन आप अपनी सहमती ज़रूर भेज दें कि आप भाग ले रहे हैं या नहीं.हर कोई ग़ज़ल भेज सकता है बशर्ते कि बहर-वज़्न सही हो. हर तरह से सही ग़ज़लें ही प्रकाशित की जायेंगी.
सादर
ख्याल
satpalg.bhatia@gmail.com
Tuesday, March 10, 2009
होली विशेष
दिल की टहनी पे पत्तियों जैसी
शायरी बहती नद्दियों जैसी
(द्विज)
द्विज जी के इस शे’र के साथ इस होली विशेष अंक का आगा़ज़ करते हैं.आज की ग़ज़ल के सभी पाठकों को हमारी तरफ़ से होली मुबारक और सभी शायरों का धन्यवाद जिन्होंने अपना कलाम हमे भेजा.आज हम बर्क़ी साहेब के पिता स्व:श्री रहमत इलाही बर्क़ आज़मी के कलाम से शुरूआत करेंगे.लेकिन पहले देखते हैं होली के बारे मे मीर ने क्या कहा है:
आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई
अब देखिए नज़ीर क्या कहते हैं:
गुलजार खिले हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग की छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
तब देख नजारे होली के।
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी
पहन के आया है फूलों का हार होली में
वह रशक-ए गुल है मुजस्सम बहार होली में
कली कली पे है दूना निखार होली में
चमन चमन है बना लालहज़ार होली मे
बसा है बास से फूलों की गुलशन-ए- आलम
नसीम फिरती है मसतानहवार होली में
तमाम अहल-ए-चमन के दिलों को मोह लिया
उरूस-ए-सब्ज़ह ने कर के सिंगार होली में
महक रहा है रयाज़-ए- जहाँ का हर गोशा
फज़ा-ए- दह्र है सब मुशकबार होली में
ज़मान-ए-भर में मुसर्रत की लह्र दौड गई
रहा न कोई कहीँ सोगवार होली में
ग़मो अलम का निशाँ तक न रह गया बाक़ी
ख़ुशी से सबने किया सब को प्यार होली में
यह धूम धाम है क्यों आ तुझे बताऊँ मै
कि तू हो जिसके सबब होशियार होली में
जले न भक्त प्रहलाद जल गई होलिका
खुदा रसीदह से पाया न पार होली में
वह अपने भक्तों की करता है इस तरह रक्षा
अयाँ है क़ुदरत-ए- परवरदिगार होली में
भरा था नशश्ए नख़वत से जो हिरणकश्यप
हुआ बहुत ही ज़लील और ख़्वार होली में
हमारे पेशे नज़र ह वही समां अब तक
मना रहे हैँ वही यादगार होली में
ख़शी बजा है मगर ऐ मेरे अज़ीज़ न खा
फरेबे हस्तिए नापायदार होली में
पछाड हिर्स को मर्दानगी है गर तुझमें
ग़ुरूर-ए-नफ्स को तू अपने मार होली में
बुराइयों को मिटाने का अहद कर इस दिन
सुधर ख़ुद और जहां को सुधार होली में
सुना उन्हेँ जो हैं फिसको फुजूर के आदी
कलाम-ए- बर्क़-ए हक़ीक़तनेगार होली में
देवी नांगरानी जी ने भी गुलाल भेजा है.
ग़ज़ल
झूमकर नाचकर गीत गाओ
सात रंगों से जीवन सजाओ
पर्व पावन है होली का आया
भाईचारे से इसको मनाओ
हर तरफ़ शबनमी नूर छलके
आसमाँ को ज़मीं पर ले आओ
लाल, पीले, हरे, नीले चहरे
प्यार का रंग उनमें मिलाओ
देवी चहरे हैं रौशन सभी के
दीप विश्वास के सब जलाओ
देव मणि पांडेय जी :
दूर दूर तक खिली हुई है ख़ुशियों की रंगोली ,
आप सभी को बहुत मुबारक बहुत मुबारक होली
प्राण शर्मा जी भी परदेस से आए हैं:
इक-दूजे को क्यों न लुभाएँ प्यारी-प्यारी होली में
सब नाचें ,झूमें मुस्काएं प्यारी- प्यारी होली में
अपना- अपना मन बहलायें प्यारी-प्यारी होली में
बच्चे- बूढे हँसे --हंसाएं प्यारी -प्यारी होली में
ऐसा शोख नज़ारा या रब ज़न्नत में भी कहाँ होगा
रंगों के घन उड़ते जाएँ प्यारी- प्यारी होली में
प्यारी-प्यारी होली है तो प्यारी- प्यारी रहने दो
लोगों के मन खिल-खिल जाएँ प्यारी-प्यारी होली में
लाल ,गुलाबी,नीले,पीले चेहरों के क्या कहने हैं
सब के सब ही "प्राण" सुहाएँ प्यारी- प्यारी होली में
चंद्रभान भारद्वाज जी की ग़ज़लें .
1.
आओ तो आना होली पर;
देते सब ताना होली पर।
तन की आग विरह की पीड़ा,
क्या होती जाना होली पर।
मन का भेद मर्म आंखों का,
हमने पहचाना होली पर।
पढ़ पढ़ पाती मन बहलाया,
मुश्किल बहलाना होली पर।
झूठे निकले अब तक वादे,
अब मत झुठलाना होली पर।
लिक्खा है भविष्य फल में भी,
प्रिय का सुख पाना होली पर।
तुम होगे तो हो जायेगा ,
आंगन बरसाना होली पर।
(2)
आई सुघड़ सहेली होली,
बनकर एक पहेली होली।
रंग गुलाल इत्र के बदले,
माँगे आज हथेली होली।
छप्पन भोगों को तज आई,
खाने गुड़ की ढेली होली।
हम तो छप्पर के कच्चे घर,
शेखावटी हवेली होली।
खुद गहरे रंगों में डूबी,
मुझ को देख अकेली होली।
पूरी उम्र लड़े यादों से,
कर दो दिन अठखॅली होली।
तन बरसाना मन वृन्दावन,
भीगी नारि नवॅली होली।
जगदीश रावतानी
भीगे तन -मन और चोली
हिंदू मुस्लिम सब की होली.
छोड़ भाषा मज़हबी ये
बोलें हम रंगों की बोली.
चल पड़ें हम साथ मिलकर
जैसे दीवानों की टोली.
तू क्यों होती लाल पीली
ये है होली ये है होली
तू भी रंग जा ऐसे जैसे
मीरा थी कान्हा की हो ली
पुर्णिमा बर्मन जी ने भी गुलाल भेजा है:
हवा-हवा केसर उड़ा टेसू बरसा देह
बातों मे किलकारियाँ मन मे मीठा नेह
शहर रंग से भर गया चेहरों पर उल्लास
गली-गली मे टोलियाँ बांटें हास-उलास
योगेन्द्र मौदगिल जी की झूमती ग़ज़ल
झूम रहा संसार, फाग की मस्ती में.
रंगों की बौछार, फाग की मस्ती में.
सारे लंबरदार, फाग की मस्ती में.
बूढ़े-बच्चे-नार, फाग की मस्ती में.
गले मिले जुम्मन चाचा, हरिया काका,
भूले मन की खार फाग की मस्ती में.
जाने कैसी भांग पिला दी साली ने,
बीवी दिखती चार, फाग की मस्ती में.
आंगन में उट्ठी जो बातों-बातों में,
तोड़ें वो दीवार, फाग की मस्ती में.
चाचा चरतु चिलम चढ़ा कर चांद चढ़े,
चाची भी तैयार, फाग की मस्ती में.
इतनी चमचम, इतनी गुझिया खा डाली,
हुए पेट बेकार फाग की मस्ती में.
काली करतूतों को बक्से में धर कर,
गली में आजा यार फाग की मस्ती में.
ननदों ने भी पकड़, भाभी के भैय्या को,
दी पिचकारी मार, फाग की मस्ती में.
कईं तिलंगे खड़े चौंक में भांप रहे,
पायल की झंकार, फाग की मस्ती में.
गुब्बारे दर गुब्बारे दर गुब्बारे.......
हाय हाय सित्कार, फाग की मस्ती में.
होली है अनुबंधों की, प्रतिबंध नहीं,
सब का बेड़ा पार, फाग की मस्ती में.
चिड़िया ने भी चिड़े को फ्लाइंग-किस मारी,
दोनों पंख पसार फाग की मस्ती में.
कीचड़ रक्खें दूर 'मौदगिल' रंगों से,
भली करे करतार, फाग की मस्ती में.
नवनीत जी :
लाल, भगवा, या हरा, नीला कहो, सबके सब कबके सियासी हो गए
जो बचें हैं रंग अब बाजार में आओ उनके साथ होली खेल लें।
चाँद शुक्ला जी की ग़ज़ल
ग़ज़ल
रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके
बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके
आँख का कजरा बह जाता है रोते-रोते
खाली नैनों संग करे क्या गोरी जी के
फूलों से दिल को जितने भी घाव मिले हैं
रफ़ू किया है काँटों की सुई से सी के
सब कुछ होते हुए तक़ल्लुफ़ मत करना तुम
हम तो अपने घर ही से आए हैं पी के
तेरी माँग के ''चाँद'' सितारे रहें सलामत
जलते रहें चिराग़ तुम्हारे घर में घी के
डा अहमद अली बर्क़ी
आई होली ख़ुशी का ले के पयाम
आप सब दोस्तों को मेरा सलाम
सब हैँ सरशार कैफो मस्ती मेँ
आज की है बहुत हसीँ यह शाम
सब रहें ख़ुश यूँ ही दुआ है मेरी
हर कोई दूसरोँ के आए काम
भाईचारे की हो फ़जा़ ऐसी
बादा-ए इश्क़ का पिएँ सब जाम
हो न तफरीक़ कोई मज़हब की
जश्न की यह फ़ज़ा हो हर सू आम
अम्न और शान्ती का हो माहोल
जंग का कोई भी न ले अब नाम
रंग मे अब पडे न कोई भंग
सब करें एक दूसरे को सलाम
रहें मिल जुल के लोग आपस में
मेरा अहमद अली यही है पयाम
द्विजेन्द्र द्विज
पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
मन-पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार
पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार
मेरी एक ग़ज़ल आप सब के लिए:
बात छोटी सी है पर हम आज तक समझे नही
दिल के कहने पर कभी भी फ़ैसले करते नहीं
सुर्ख़ रुख़्सारों पे हमने जब लगाया था गुलाल
दौड़कर छत्त पे चले जाना तेरा भूले नहीं
हार कुंडल , लाल बिंदिया , लाल जोड़े मे थे वो
मेरे चेहरे की सफ़ेदी वो मगर समझे नहीं
हमने क्या-क्या ख़्वाब देखे थे इसी दिन के लिए
आज जब होली है तो वो घर से ही निकले नहीं
अब के है बारूद की बू चार -सू फैली हुई
खौफ़ फैला हर जगह आसार कुछ अच्छे नहीं.
उफ़ ! लड़कपन की वो रंगीनी न तुम पूछो `ख़याल'
तितलियों के रंग अब तक हाथ से छूटे नहीं
***उरूस-ए-सब्ज़ह-सब्ज़ की दुल्हन,रयाज़-ए- जहाँ -बाग़-ए जहाँ , फज़ा-ए- दह्र -ज़माने की फ़ज़ा ,
खुदा रसीदह - जिसकी खुदा तक पहुँच हो ,नशश्ए नख़वत - ग़ुरूर का नशा ,हक़ीक़तनेगार -हक़ीकत बयान करने वाला
Monday, March 2, 2009
योगेन्द्र मौदगिल की ग़ज़लें व परिचय
योगेन्द्र मौदगिल जी अच्छे हास्य-व्यंग्य कवि एवं गज़लकार हैं। अनेक सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों व क्लबों से सम्मानित हैं आप को 2001 में गढ़गंगा शिखर सम्मान , 2002 में कलमवीर सम्मान , 2004 में करील सम्मान , 2006 में युगीन सम्मान, 2007 में उदयभानु हंस कविता सम्मान व 2007 में ही पानीपत रत्न से सम्मानित.
हरियाणा की एकमात्र काव्यपत्रिका कलमदंश का 6 वर्षों से निरन्तर प्रकाशन व संपादन। दैनिक भास्कर में 2000 में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ तरकश का लेखन। इनकी कविताओं की 6 मौलिक एवं 10 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हैं। हाल ही मे इनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है और आप इसे प्राप्त कर सकते हैं.आज हम तीन ग़ज़ले आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं.
ग़ज़ल
भँवर से बच के निकलें जो उन्हें साहिल डुबोते हैं
अजूबे तेरी दुनिया में कभी ऐसे भी होते हैं
ये परदे की कलाकारी भला व्यवहार थोड़े है
जो रिश्तों को बनाते हैं वही रिश्तों को खोते हैं
वो फूलों से भी सुंदर हैं वो कलियों से भी कोमल हैं
मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं
किसी को पेट भरने तक मयस्सर भी नहीं रोटी
बहुत से लोग खा-खा कर यहां बीमार होते हैं
जिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते
बिछा कर धूप का टुकड़ा ऒढ़ अखब़ार सोते हैं
हमीं ने आसमानों को सितारों से सजाया है
हमीं धरती के सीने में बसंती बीज बोते हैं
मुहब्बत से भरी नज़रें तो मिलती हैं मुकद्दर से
बहुत से लोग नज़रों के मगर नश्तर चुभोते हैं
बहरे-हजज़ सालिम
ग़ज़ल
रफ्ता-रफ्ता जो बेकसी देखी
अपनी आंखों से खुदकुशी देखी
आप सब पर यक़ीन करते हैं
आपने खाक़ ज़िन्दगी देखी
आग लगती रही मक़ानों में
लो मसानों ने रौशनी देखी
एक अब्बू ने मूंद ली आंखें
चार बच्चों ने तीरगी देखी
उतनी ज्यादा बिगड़ गयी छोरी
जितनी अम्मां ने चौकसी देखी
बाद अर्से के छत पे आया हूं
बाद अरसे के चांदनी देखी
बहरे-खफ़ीफ़
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
ग़ज़ल
कट गये पीपल ठिकाना पंछियों का खो गया
पहले जैसा आना जाना पंछियों का खो गया
कौन जाने कब शहर में गोलियां पत्थर चलें
मौज में उड़ना उड़ाना पंछियों का खो गया
दिन में होती हैं कथाएं रात में भी रतजगे
शोरोगुल में चहचहाना पंछियों का खो गया
शह्र में बढ़ता प्रदूषण खेत घटते देख कर
प्यार की चोंचें लड़ाना पंछियों का खो गया
कौन है जो दाद देगा अब मेरी परवाज़ को
सोच कर ये छत पे आना पंछियों का खो गया
इतनी महंगाई के दाना दाना है अब कीमती
बैठ मुण्डेरों पे खाना पंछियों का खो गया
अब कहां अमुवा की डाली अब ना गूलर ढाक हैं
मस्त हों पींगे चढ़ाना पंछियों का खो गया
बहरे-रमल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
मौदगिल जी की किताब "अंधी आँखे गीले सपने" के खूबसूरत अशआर :
* बिन बरसे कैसे जायेंगे शब्दों के घन छाए तो
आँसु भी विद्रोह करेंगे हमने गीत सुनाए तो.
* माना कि सूरज की तरह हर शाम ढलना है हमे
हर हाल मे लेकिन अभी भी और चलना है हमे.
*लहू के छींटे दरवाजे पर राम भजो
सहमे-सहमे दीवारो-दर राम भजो.
*वो भी मुझ जैसा लगता है
शीशे मे उतरा लगता है.
*बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे
जाने कितनी उम्रें पीछे ले जाता है ध्यान मुझे.
* यादें जंगल जैसी क्यों हैं
उल्झा-उलझा सोच रहा हूँ.
*घर मे चिंता खड़ी होगयीं
बच्चियां अब बड़ी हो गयीं.
*तन-मन जुटा कमाई मे
अनबन भाई-भाई में.
*फ़ैशनों की झड़ी हो गई
मेंढकी जलपरी हो गई.
Wednesday, February 25, 2009
स्वर्गीय जनाब ’साग़र’ पालमपुरी : परिचय और ग़ज़लें
नाम : मनोहर शर्मा
जन्म :25 जनवरी, 1929
निधन : 30 अप्रैल,1996
उपनाम : ’साग़र’ पालमपुरी
जन्मस्थान : गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान मे)
साग़र साहेब बहुत अच्छे शायर थे और शायरी मे उन्होने खासा नाम भी कमाया.इनके सपुत्र श्री द्विजेन्द्र द्विज और नवनीत जी ने भी विरासत को आगे बढ़ाया .द्विज जी से तो आप सब परिचित हैं ही. आज साग़र साहेब की तीन ग़ज़लें पेश कर रहा हूँ और कुछ चुनिंदा अशआर भी आप सब कि नज़’र हैं :
ग़ज़ल १
दिल के आँगन में कोई फूल खिला है शायद
आज फिर उसने मुझे याद किया है शायद
मेरे आने का गुमाँ उसको हुआ है शायद
वो मेरी राह कहीं देख रहा है शायद
एक वो शख़्स कभी जिससे मुलाक़ात न थी
मेरे हर ख़्वाब की ताबीर बना है शायद
उसको हर चंद अँधेरों ने निगलना चाहा
बुझ न पाया वो महब्बत का दिया है शायद
जो कभी अहद—ए—जवानी में हुआ था सर ज़द
ग़म उसी जुर्म—ए—महब्बत की सज़ा है शायद
ज़ीस्त वो शब है कि काटे नहीं कटती ‘साग़र’!
है सहर दूर अभी एक बजा है शायद.
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़'लान(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112या2122 1122 1122 22
ग़जल २
इरादे थे क्या और क्या कर चले
कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले
अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले
क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले
ये अहल—ए—सियासत का फ़र्मान है
न कोई यहाँ सर उठा कर चले
उजाले से मानूस थे इस क़दर
दीए आँधियों में जला कर चले
करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले
जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था
सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले
किसी की निगाहों के इक जाम से
इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ कर चले
ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले
बहरे-मुतका़रिब मुज़हिफ़ शक्ल:
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
ग़ज़ल ३
हो सके तुझ से तो ऐ दोस्त! दुआ दे मुझको
तेरे काम आऊँ ये तौफ़ीक़ ख़ुदा दे मुझको
तेरी आवाज़ को सुनते ही पलट आऊँगा
हमनवा ! प्यार से इक बार सदा दे मुझको
तू ख़ता करने की फ़ितरत तो अता कर पहले
फिर जो आए तेरे जी में वो सज़ा दे मुझको
मैं हूँ सुकरात ज़ह्र दे के अक़ीदों का मुझे
ये ज़माना मेरे साक़ी से मिला दे मुझको
राख बेशक हूँ मगर मुझ में हरारत है अभी
जिसको जलने की तमन्ना हो हवा दे मुझको
रहबरी अहल—ए—ख़िरद की मुझे मंज़ूर नहीं
कोई मजनूँ हो तो मंज़िल का पता दे मुझको
तेरी आगोश में काटी है ज़िन्दगी मैंने
अब कहाँ जाऊँ? ऐ तन्हाई! बता दे मुझको
मैं अज़ल से हूँ ख़तावार—ए—महब्बत ‘साग़र’ !
ये ज़माना नया अन्दाज़—ए—ख़ता दे मुझको.
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़'लान(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112
साग़र साहेब के कुछ चुनिंदा अशआर भी आप सब की नज़’र हैं:
खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह
सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें
दिल में यादों का धुआँ है यारो !
आग की ज़द में मकाँ है यारो !
ख़ुलूस बिकता है ईमान—ओ—सिदक़ बिकते हैं
बड़ी अजीब है दुनिया की ये दुकाँ यारो !
फ़ुर्क़त के अँधेरों से निकलने के लिये दिल का
हर गोशा हो अश्कों से मुनव्वर तो ग़ज़ल कहिये
मेरे दिल की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
झलकता है अभी तो राम का बनवास आँखों में
**तौफ़ीक़=सामर्थ्य; अक़ीदा=विश्वास, धर्म, मत, श्रद्धा; अहल—ए—खिरद=बुद्धिमान लोग ,इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ -कमज़ोर के ग़म का इलाज़
Thursday, February 19, 2009
राजेन्द्र नाथ "रहबर" - परिचय और ग़ज़लें
राजेन्द्र नाथ 'रहबर`अदब की दुनिया का एक जाना पहचाना नाम है.इन्होंने ने हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ए., ख़ालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए. (अर्थ शास्त्र) और पंजाब यूनिवर्सिटी चण्डीगढ़ से एल. एल.बी. की .इन्होने शायरी का फ़न पंजाब के उस्ताद शायर पं.'रतन` पंडोरवी से सीखा जो प्रसिद्ध शायर अमीर मीनाई के चहेते शार्गिद थे। इनकी एक नज्म़ ''तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त`` को विश्व व्यापी शोहरत नसीब हुई है। ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह इस नज्म़ को 1980 ई. से अपनी मख़्मली आवाज़ में गा रहे हैं .
प्रकाशित पुस्तकें :याद आऊंगा ,तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त,जेबे सुख़न, ..और शाम ढल गई, मल्हार , कलस ,आगो़शे-गुल ,
आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए आज हम इनकी दो ग़ज़लें पेश कर रहे हैं.
ग़ज़ल
क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही
लेकिन वो आंख थी कि बराबर झुकी रही
मेले में ये निगाह तुझे ढूँढ़ती रही
हर महजबीं से तेरा पता पूछती रही
जाते हैं नामुराद तेरे आस्तां से हम
ऐ दोस्त फिर मिलेंगे अगर ज़िंदगी रही
आंखों में तेरे हुस्न के जल्वे बसे रहे
दिल में तेरे ख़याल की बस्ती बसी रही
इक हश्र था कि दिल में मुसलसल बरपा रहा
इक आग थी कि दिल में बराबर लगी रही
मैं था, किसी की याद थी, जामे-शराब था
ये वो निशस्त थी जो सहर तक जमी रही
शामे-विदा-ए-दोस्त का आलम न पूछिये
दिल रो रहा था लब पे हंसी खेलती रही
खुल कर मिला, न जाम ही उस ने कोई लिया
'रहबर` मेरे ख़ुलूस में शायद कमी रही
बहरे-मज़ारे
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
ग़ज़ल
जिस्मो-जां घायल, परे-परवाज़ हैं टूटे हुये
हम हैं यारों एक पंछी डार से बिछुड़े हुये
आप अगर चाहें तो कुछ कांटे भी इस में डाल दें
मेरे दामन में पड़े हैं फूल मुरझाये हुये
आज उस को देख कर आंखें मुनव्वर हो गयीं
हो गई थी इक सदी जिस शख्स़ को देखे हुये
फिर नज़र आती है नालां मुझ से मेरी हर ख़ुशी
सामने से फिर कोई गुज़रा है मुंह फेरे हुये
तुम अगर छू लो तबस्सुम-रेज़ होंटों से इसे
देर ही लगती है क्या कांटे को गुल होते हुये
वस्ल की शब क्या गिरी माला तुम्हारी टूट कर
जिस क़दर मोती थे वो सब अर्श के तारे हुये
क्या जचे 'रहबर` ग़ज़ल-गोई किसी की अब हमें
हम ने उन आंखों को देखा है ग़ज़ल कहते हुये
बहरे-रमल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
पता:
राजेन्द्र नाथ 'रहबर`
1085, सराए मुहल्ला,
पठानकोट-145001
पंजाब
Saturday, February 14, 2009
विशेष पेशकश
आज सोचा कि थोड़ा रोमांटिक हो जाएँ और फिर बरबस अहमद फ़राज़ साहब कि याद आ गई और उनकी एक बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है जो आप सब से सांझा करना चाहता हूँ और फिर साइड बार मे एक ग़ज़ल मेहदी हसन साहेब की मखमली आवाज मे आप सब के लिए पेश की है उम्मीद करता हूँ कि आप को ये पेशकश पसंद आएगी.
ग़ज़ल
बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा
अबरू खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा
अल्फ़ाज़ थे के जुग्नू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा
ख़्वाबों में ख़्वाब उस के यादों में याद उस की
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा
पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा
अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ दीं
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा
कुछ ये के मुद्दतों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा
फिर यूँ हुआ के सावन आँखों में आ बसे थे
फिर यूँ हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा
अब सच कहें तो यारो हम को ख़बर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़िआ ज़रा सा
तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आश्ना सा
हम दश्त थे के दरिया हम ज़हर थे के अमृत
नाहक़ था ज़ोंउम हम को जब वो नहीं था प्यासा
हम ने भी उस को देखा कल शाम इत्तेफ़ाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो "फ़राज़" का सा
Thursday, February 5, 2009
आर.पी. शर्मा "महरिष" की तीन ग़ज़लें
श्री आर.पी. शर्मा "महरिष" का जन्म 7 मार्च 1922 ई को गोंडा में (उ.प्र.) में हुआ। अपने जीवन-सफर के 85 वर्ष पूर्ण कर चुके श्री शर्मा जी की साहित्यिक रुचि आज भी निरंतर बनी हुई है। ग़ज़ल संसार में वे "पिंगलाचार्य" की उपाधि से सम्मानित हुए हैं।
प्रकाशित पुस्तकें : हिंदी गज़ल संरचना-एक परिचय , ग़ज़ल-निर्देशिका,गज़ल-विधा ,गज़ल-लेखन कला ,व्यहवारिक छंद-शास्त्र ,नागफनियों ने सजाईं महफिलें (ग़ज़ल-संग्रह),गज़ल और गज़ल की तकनीक। पेश हैं उनकी तीन ग़ज़लें.
ग़ज़ल
नाम दुनिया में कमाना चाहिये
कारनामा कर दिखाना चाहिये
चुटकियों में कोई फ़न आता नहीं
सीखने को इक ज़माना चाहिये
जोड़कर तिनके परिदों की तरह
आशियां अपना बनाना चाहिये
तालियाँ भी बज उठेंगी ख़ुद-ब-ख़ुद
शेर कहना भी तो आना चाहिये
लफ्ज़ ‘महरिष’, हो पुराना, तो भी क्या?
इक नये मानी में लाना चाहिये.
बहरे-रमल
ग़ज़ल
सोचते ही ये अहले-सुख़न रह गये
गुनगुना कर वो भंवरे भी क्या कह गये
इस तरह भी इशारों में बातें हुई
लफ़्ज़ सारे धरे के धरे रह गये
नाख़ुदाई का दावा था जिनको बहुत
रौ में ख़ुदा अपने जज़्बात की बह गये
लब, कि ढूँढा किये क़ाफ़िये ही मगर
अश्क आये तो पूरी ग़ज़ल कह गये
'महरिष' उन कोकिलाओं के बौराए स्वर
अनकहे, अनछुए-से कथन कह गये.
चार फ़ाइलुन
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
ग़ज़ल
नाकर्दा गुनाहों की मिली यूँ भी सज़ा है
साकी नज़र अंदाज़ हमें करके चला है
क्या होती है ये आग भी क्या जाने समंदर
कब तिश्नालबी का उसे एहसास हुआ है
उस शख़्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूट के मिलता था, तक़ल्लुफ़ से मिला है
पूछा जो मिज़ाज उसने कभी राह में रस्मन
रस्मन ही कहा मैंने कि सब उसकी दुआ है
महफ़िल में कभी जो मिरी शिरकत से ख़फ़ा था
महफ़िल में वो अब मेरे न आने से ख़फा है
क्यों उसपे जफाएँ भी न तूफान उठाएँ
जिस राह पे निकला हूँ मैं वो राहे-वफा है
पीते थे न 'महरिष, तो सभी कहते थे ज़ाहिद
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है .
बहरे-हजज़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन
22 11 22 11 22 11 22
एक बहुत महत्वपूर्ण लिंक है: यहाँ आप ग़ज़ल की बारीकियाँ सीख सकते हैं ये धारावाहिक लेख आर.पी शर्मा जी ने ही लिखा है क्लिक करें....ग़ज़ल लेखन..द्वारा आर.पी शर्मा "अभिव्यक्ति" पर .
Friday, January 30, 2009
दोस्त मोहम्मद खान की ग़ज़लें
जनाब दोस्त मोहम्मद खान राज्य सभा मे डिपटी डायरेक्टर की हैसीयत से काम कर रहे हैं और उर्दू में एम.फ़िल. किया है.शायरी के शौक़ीन हैं और कालेज के ज़माने से लिख रहे हैं. आज हम उनकी दो ग़ज़लें यहाँ पेश कर रहे हैं.
ग़ज़ल
हम को जीने का हुनर आया बहुत देर के बाद
ज़िन्दगी, हमने तुझे पाया बहुत देर के बाद
यूँ तो मिलने को मिले लोग हज़ारों लेकिन
जिसको मिलना था, वही आया बहुत देर के बाद
दिल की बात उस से कहें, कैसे कहें, या न कहें
मसअला हमने ये सुलझाया बहुत देर के बाद
दिल तो क्या चीज़ है, हम जान भी हाज़िर करते
मेहरबाँ आप ने फरमाया बहुत देर के बाद
बात अशआर के परदे में भी हो सकती है
भेद यह 'दोस्त' ने अब पाया बहुत देर के बाद
ग़ज़ल
दिल के ज़ख्म को धो लेते हैं
तन्हाई में रो लेते हैं
दर्द की फसलें काट रहे हैं
फिर भी सपने बो लेते हैं
जो भी लगता है अपना सा
साथ उसी के हो लेते हैं
दीवानों -सा हाल हुआ है
हँस देते हैं, रो लेते हैं
'दोस्त' अभी कुछ दर्द भी कम है
आओ थोड़ा सो लेते हैं.
Tuesday, January 20, 2009
अमित रंजन गोरखपुरी की दो ग़ज़लें
उपनाम- रंजन गोरखपुरी
वस्तविक नाम- अमित रंजन चित्रांशी
लखनवी उर्दू अदब से मुताल्लिक़ शायर हैं और पिछले 10 वर्षों से कलम की इबादतकर रहे हैं. जल्द ही अपनी ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित करेंगे.उनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं आप सब के लिए.
ग़ज़ल
मुझे अब रौशनी दिखने लगी है,
धुएं के बीच आखिर लौ जली है
यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है
सम्भल जाओ ज़रा अब हुक्मरानों,
यहां आवाम की ताकत बडी है
हिला पाओगे क्या जज़्बे को इसके,
ये मेरी जान मेरी मुम्बई है
घिरा फिर मुल्क जंगी बादलों से,
कि "रंजन" घर में कुछ राशन नही है
ग़ज़ल
हो तल्ख जाम तो शीरीन बना लेता हूं,
गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं
हरेक शाम किसी झूमते मैखाने में,
मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ
कहीं फरेब न हो जाए उनकी आँखों से,
मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ
गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ
इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ
सुलगती आग के धुएँ में बैठके अक्सर,
मैं अपने अश्क पे एहसान जता लेता हूँ
चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसुओं को कई बार बहा लेता हूँ
तमाम फिक्र-ए-मसाइल हैं मुझसे वाबस्ता,
कलम से रोज़ नए दोस्त बना लेता हूँ
मेरे नसीब में शायद यही इबादत है,
वज़ू के बाद काफ़िरों से दुआ लेता हूं
तमाम ज़ख्म मिल चुके हैं इन बहारों से,
मैं अब खिज़ान तले काम चला लेता हूँ
जला रहे वो चिरागों को, चलो अच्छा है,
उन्ही को सोच के सिगरेट जला लेता हूँ
खुदा का शुक्र है नशे में आज भी "रंजन",
मैं पूछने पे अपना नाम बता लेता हूँ
Wednesday, January 14, 2009
बिरजीस राशिद आरफ़ी की ग़ज़लें
जुलाई, १९४३ को क़स्बा चाँद्पुर (देहरादून) में जन्मे जनाबे-बिरजीस राशिद आरफ़ी साहब को भारत के लगभग तमाम नामी-गिरामी शायरों की मौजूदगी में अपने फ़न का जादू जगा चुके हैं. "राशिद आरफ़ी साहब की ग़ज़लों का एक-एक शेर उनके चिन्तन की गहराई और विधा पर उनकी मज़बूत पकड़ का जादू सुनने-पढ़ने वालों के सर चढ़कर बोलने की क़ाबिलियत रखता है, यह मैंने उनका शेरी मजमूआ (काव्य-संग्रह) "जैसा भी है" पढ़कर महसूस किया है." -द्विजेन्द्र 'द्विज'
आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी ये तीन ग़ज़लें:
ग़ज़ल
धूम ऐसी मचा गया कोहरा
जैसे सूरज को खा गया कोहरा
बन के अफ़वाह छा गया कोहरा
बंद कमरों मे आ गया कोहरा
तेरे पन्नों पे आज ऐ अख़बार
कितनी लाशें बिछा गया कोहरा
साँस के साथ दिल की रग-रग में
बर्फ़ की तह जमा गया कोहरा
अपने बच्चों से क्या कहे मज़दूर
घर का चूल्हा बुझा गया कोहरा
धूप कितनी अज़ीम नेमत है
चार दिन में बता गया कोहरा
उनके चेहरे पे सुरमई आँचल
चाँद पे जैसे छा गया कोहरा.
ग़ज़ल
रात भर ढूँढता फिरा जुगनू
सुब्ह को ख़ुद ही खो गया जुगनू
रोशनी सब की खा गया सूरज
चाँद ,तारे, शमा, दिया, जुगनू
तीरगी से यह जंग जारी रख
हौसला तेरा मरहवा जुगनू
क्यों न ख़ुश हो ग़रीब की बिटिया
उसकी मुठ्ठी में आ गया जुगनू
नूर तो हर जगह पहुँचता है
कूड़ियों में पला-बढ़ा जुगनू
धुँधले-धुँधले- से हो गए तारे
मिस्ले कन्दील जब उड़ा जुगनू
चेहरे बच्चों के बुझ गए 'राशिद'
माँ के आँचल में मर गया जुगनू.
ग़ज़ल
भूल पाए न थे ट्रेन का हादसा
आज फिर हो गया एक नया हादसा
जाने क्या हो गया आजकल दोस्तो
रोज़ होता है कल से बड़ा हादसा
बाप का साया और काँच की चूड़ियाँ
एक ही पल में सब ले गय हादसा
ऐ ख़ुदा, ईश्चर,गाड, वाहे गुरु
तेरे घर में भी होने लगा हादसा
मैं हूँ शायर, हक़ीक़त करूँगा बयाँ
साज़िशों को कहूँ, क्यों भला हादसा?
किसको फ़ुर्सत है,ये कौन सोचे यहाँ
हो गया किस गुनाह की सज़ा हादसा
तेरे घर के सभी लोग महफ़ूज़ हैं
भूल जा 'आरफ़ी' जो हुआ हादसा.
संपर्क: बिरजीस राशिद 'आरफ़ी',
ग्राम:हरिपुर ,ज़िला: देहरादून- 248142
पोस्ट:हरबर्टपुर,ज़िला: देहरादून(उत्तराखण्ड)
दूरभाष 01360-258728
09897448028
Saturday, January 10, 2009
धीरज आमेटा 'धीर' की दो ग़ज़लें
धीरज आमेटा 'धीर' राजस्थान के उदयपुर के रहने वाले हैं. महज़ 26 साल की उम्र मे उम्दा ग़ज़लें कहते हैं .गुड़ग़ाव में एक हार्डवेयर कम्पनी में काम कर रहे हैं. जनाब सरवर आलम राज़ 'सरवर' के शागिर्द हैं .पेश हैं उनकी दो ग़ज़लें.
ग़ज़ल
उमीदें जब भी दुनिया से लगाता है,
दिल ए नादाँ फ़क़त धोखे ही खाता है!
ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,
ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!
जो पैराहन तले नश्तर छिपाता है,
लहू इक दिन वो अपना ही बहाता है!
जो बचपन में तुझे उंगली थमाता था,
उसे तू आज बैसाखी थमाता है ?
जुदा है क़ाफ़िले से रहगुज़र जिस की,
वो ही इक दिन नया रस्ता दिखाता है!
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
हजज़
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ग़ज़ल
कोई गुंचा टूट के गिर गया, कोई शाख गुल की लचक गयी,
कहीं हिज्र आया नसीब में, कहीं ज़ुल्फ़ ए वस्ल महक गयी!
जो अज़ीयतों की शराब थी, वो ही कागज़ों पे छलक गयी,
मेरे शेर ओ नग्में मचल उठे, मेरी शायरी ही बहक गयी!
कभी शम्स है तो क़मर कभी, कभी याद मर्ज़, कभी दवा,
कभी फूल बन के महक गयी, कभी आग बन के दहक गयी!
भले तीर दिल में चुभे रहें, मगर होँठ फिर भी सिले रहे,
न सही गयी तो क़लम के रस्ते,ख़लिश जिगर की झलक गयी!
तुझे कोई रन्ज-ओ-मलाल था, कि तेरी नज़र में सवाल था,
तेरे होँठ जिस को न कह सके,तेरी आँख फिर भी छलक गयी!
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!
सर-ए-शाम घर को ये वापसी मेरे हम-नफ़स की ही देन है,
मुझे आते देखा तो राह तकती निगाह कैसी चमक गयी!
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मुतफ़ाइलुन x4
comments:
seema gupta said...
ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!" सुंदर प्रस्तुती, दिले नादाँ की बात ही अजब है , कभी जरा सी बात पे दरिया बहता है और कभी हजारों गम चुपचाप सह जाता है....गज़ल अच्छी लगी"regards
January 12, 2009 3:02 AM
रंजन गोरखपुरी said...
बेहद उम्दा!! इन मुश्किल बहरों पे इतनी सहजता से सजी दोनों ग़ज़ल आपके फन को साफ़ दर्शाती है! धीर साहब की लाजवाब शायरी से पहले भी रूबरू हुए हैं और उनके ये शेर तो आज भी ज़हन में बिलकुल ताजा है:
नमी बाकी रहे आँखों में दामन तर नहीं करना,
रहे गौहर समंदर में उस बेघर नहीं करना
रसोई में रखे बर्तन तो ज़ाहिर है की खनकेंगे,
ज़रा सी बात पे हाल-ए-वतन बद्तर नहीं करना
(बिना इजाज़त पेश करने की गुस्ताखी के लिए मुआफी चाहता हूँ पर अपने आप को रोक नहीं पाया :) )बेशक धीर साहब आने वाले दौर के अनमोल गौहर हैं!! खुदा आपकी अर्शिया कलम को और बरक़त अता करे!!
January 12, 2009 3:18 AM
"अर्श" said...
पहली दफा ही इस ब्लॉग पे आया हूँ और धीर भाई की बेहतरीन ग़ज़लों को पढ़ने का मौका मिला ,उम्दा लेखा है बहोत खूब लिखा है इन्होने ढेरो बधाई कुबूल करें...अर्श
January 12, 2009 5:44 AM
श्रद्धा जैन said...
Dheer ki gazlen hamesha hi padi haishayad hi koi gazal ho jo padi nahi homagar inke gazlen bolne ka andaaz gazal ko chaar chand laga deta haiguzarish hai ki inki hi aawaz main inke pasand ke kuch sher sunaye jaaye dono hi gazal bhaut shaandaar rahi khaskar ye sherतुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
January 12, 2009 6:24 AM
Abhishek Krishnan said...
Indeed its very nice "Ghazal". I don't know much urdu but I always appreciate/understand when he explained his "Ghazals" to me. Keep writing..
January 12, 2009 7:17 AM
नीरज गोस्वामी said...
सुभान अल्लाह....इस उम्र में ये तेवर...खुदा नजरे बद से बचाए...कमाल की शायरी...नीरज
January 12, 2009 8:49 AM
Manish Kumar said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!bahut khoob likha hai dheer ne
January 12, 2009 8:50 AM
गौतम राजरिशी said...
पढ़ कर बस उफ़-उफ़ किये जा रहा हूं...पहली बार पढ़ रहा हूं धीर जी कोदूसरी गज़ल तो खास कर-एक-एक शेर कहर ढ़ाता हुआ है...और पढ़वायें इनको सतपाल जीदुसरी गज़ल के बहर पर कुछ जानना चाहता था.क्या यही "रज़ज" भी है २२१२ वाली?
January 12, 2009 9:40 AM
Udan Tashtari said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!--वाह!! बहुत बेहतरीन!
January 12, 2009 4:14 PM
NirjharNeer said...
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
bahot khoob dheer bhaini:sandeh khoobsurat bayangii kabil-e-daad
January 12, 2009 9:05 PM
सतपाल said...
गौतम जी,ये बहरे-कामिल है..एक मशहूर ग़ज़ल आपने सुनी होगी..वो जो हममे तुम मे करार था, तुझे याद हो कि न याद हो..इसी बहर मे है.बहुत खूबसूरत बहर है.
January 12, 2009 9:26 PM
सतपाल said...
Gautam ji,aapne jo savaal poocha hai us ka samadhaan bahut zaroori hai, ki kya rajaz(2212) or behre-kaamil(11212)ke arkaan alag hai lekin agar hum kahen ke 2 laghu ki jagah ek guru ka istemaal ho sakta hai to phir kya 2212 or (11)212 barabar nahiN haiN.ye ghalat paRaya jata hai ki do laghu ki jagah ek guru lete haiN, ye shoot kissi -kissi bahar me hai, koii niyam nahi. agar ye nizam hota to bahre-kaamil ki kya zaroorat thee. Pran ji ne sahity shilpi par samjhane ke liye faailaatun ko 21211 likh dia tha maine vahaN savaal bhi uthaya tha.mai phir kahta hooN ki do laghu ki jagah guru ki छoot har behr me nahi hai. jiska udahran aapke saamne hai. ab aap khud dekheN..ye misra paRiye..vo jo ham me tum me karaar tha tujhe yaad ho ki na yaad ho( kaamil)...iske baad ise paRen..ye dil ye paagal dil mera kyon bujh gya aawargee..( rajaz)dono ki lay me farq se sab zaahir ho jata hai.
January 13, 2009 1:28 AM
Wednesday, January 7, 2009
राज कुमार कै़स की ग़ज़लें
पंजाब मे जन्मे राज कुमार कै़स बहुत अच्छे शायर हैं. इनका एक ग़ज़ल संग्रह "सहरा-सहरा" प्रकाशित हो चुका है. इनकी ग़ज़लों मे खास बात ये है कि ग़जलों मे एक दिलकश रवानगी है.इनका यही अंदाज़ इन्हें औरों से जुदा करता है. पेश है उनकी दो ग़ज़लें.
ग़ज़ल:
देख तेरे दीवाने की अब जान पे क्या बन आई है
चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है.
बस्ती-बस्ती, जंगल-जंगल, सहरा-सहरा घूमे हैं
हमने तेरी खोज मे अब तक कितनी खाक उड़ाई है.
दिल अपना सुनसान नगर है, फिर भी कितनी रौनक है
सपनो की बारात सजी है, यादों की शहनाई है.
यूँ तो सब कुछ हार चुके हैं, फिर भी माला-माल है हम
बातें करने को सन्नाटा, सोहबत को तनहाई है.
मेरे दिल का चौंक सा जाना, इक मामूली जज़्बा है
वो तो तेरी शोख नज़र थी, जिसने बात बढ़ाई है.
यूँ तो तेरे मयखाने मे, रंगा-रंग शराबे हैं
आज वही ऊंड़ेल जो तेरी, आँखों ने छलकाई है.
आज तो मय का इक-इक कतरा, झूम रहा है मस्ती मे
शायद मेरे ज़ाम से कोई, खास नज़र टकराई है.
आज समंदर की लहरें, ऊँची भी हैं जोशीली भी
या पानी की बेचैनी है , या तेरी अंगड़ाई है.
पहलू-पहलू दर्द उठा है, करवट-करवट रोये हैं
तुझ को क्या मालूम कि हमने ,कैसे रात बिताई है.
मोड़ -मोड़ पर बिजली लपकी, मंज़िल-मंज़िल तीर गिरे
मर-मर कर इस राह मे हमने, अपनी जान बचाई है.
देखने वाले ध्यान से देखें ,हुस्न नही है जादू है
या तो इसका मंत्र ढूँढें ,या फिर शामत आई है.
कहने को तो वस्ल की दावत ,लेके कोई आया है
हो न हो मेरी तनहाई ,भेस बदल कर आई है.
सारी सखियाँ पूछ रहीं हैं ,आज हमारी राधा से
तेरे मन के बरिंदावन मे ,किसने रास रचाई है.
(8,7 गुरु)
ग़ज़ल:
करम देखे ,वफ़ा देखी, सितम देखे , जफ़ा देखी
अजब अंदाज़ थे तेरे अजब तेरी अदा देखी.
न जाने कब तुझे पाया न जाने कब तुझे खोया
न हमने इब्तिदा देखी न हमने इंतिहा देखी.
तुम्हारी बज़्म मे जब हम न थे तो क्या कहें तुम से
अजब सूना समां देखा अजब सू्नी फ़ज़ा देखी.
इधर हम सर-ब-सिजदा थे तुम्हारी राह मे जानां
उधर गै़रों की आँखों मे हवस देखी हवा देखी.
अजब बुत है कि हर जानिब हज़ारों चाँद रौशन हैं
ख़ुदा शाहिद है हम ने आज तनवीरे-ख़दा देखी
फ़ना का वक्त था फिर भी बका़ के गीत गाता था
तुम्हारे कै़स कि कल शब अनोखी ही अदा देखी.
(हज़ज)
******
COMMENTS:
Parul said...
bahut khuub..sahi hai..ravangi hai..aabhaar padhvaaney ka
January 7, 2009 1:27 AM
नीरज गोस्वामी said...
बहुत खूब...इनकी ग़ज़लों में गुज़रे ज़माने की बहुत रसीली पेशकश है...आज कल ऐसी ग़ज़लें अमूनन नहीं लिखी पढ़ी जाती...आप का शुक्रिया.नीरज
January 7, 2009 1:45 AM
दिगम्बर नासवा said...
दोनों ही गज़लों में गज़ब की रवानगी है, ग़ज़ल गा कर और भी सुंदर लगेगी, हर शेर लाजवाब है, मुझे खासकर ये बहोत पसंद आया यूँ तो तेरे मयखाने मे, रंगा-रंग शराबे हैंआज वही ऊंड़ेल जो तेरी, आँखों ने छलकाई है.
January 8, 2009 4:33 AM
गौतम राजरिशी said...
बड़े दिनों बाद ये नाजुकी गज़ल की दिखी है...पहले गज़ल का मतला "देख तेरे दीवाने की अब जान पे क्या बन आई है / चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है"....कहर ढ़ाता हैपूरी गज़ल में एक स्वाभाविक सी गेयता और वो रूमानियत कि हाय~~~~~...सतपाल जी आप का तहे दिल से शुक्रिया.यदि संभव हो तो शायरों का संपर्क-सुत्र भी दें
January 8, 2009 7:56 AM
सतपाल said...
Dear gautamclick this link to read more about poet and his poetryhttp://www.tanhaa.net/anmol/qais/thanks
सतपाल said...
इन ग़ज़लों के बारे मे कल द्विज जी से बात हुई तो मैने उनसे ये सवाल किया था कि रिवायती, क्लासिकल और समकालीन शायरी परकुछ कहें .तो उन्होंने बताया कि रिवायती या traditional से ही ज्यादातर शुरुआत होती है लेकिन शायर धीरे-धीरे अपना रंग या अंदाज़ बना लेता है.जो आने वाले कल के लिये रिवायत बन जाता है और क्लासिकल औए रिवायती मे बहुत एक thin line का फ़र्क है.
dwij said...
'चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है'
वाह-वाह!क्लासिकल रचाव की ऐसी शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती गेयता ही तो है.
चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है
ऐसी दुविधा को 'शुज़ा'ख़ावर साहब न्रे अपने एक शेर में कुछ यूँ बयान किया है:
"कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अन्दर से 'शुज़ा'
और कुछ बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा"
यहाँ आकर अस्तित्व की दुविधा भी सामने आती है लेकिन ज़रा और भी व्यापक अर्थों में.बस शेर का संदर्भ ग़मे-जाना से ग़मे-दौराँ की तरफ हो गया.Subjective से objective हो गया.शायद यहीं से रिवायती और जदीद शायरी की विभाजक रेखा भी साफ-साफ दिखाई देना शुरू हो जानी चाहिए.
January 8, 2009 11:23 PM
Dr. Ahmad Ali Barqi Azmi said...
क़ैस के अशआर मेँ है फिकरो फन की ताज़गी
उनके अंदाज़े बयाँ मेँ है नेहायत दिलकशी
अहदे हाज़िर मेँ ग़ज़ल है इम्तेज़ाजे फिकरो फन
इस कसौटी पर खरी है उनकी बर्क़ी शसायरी
डा. अहमद अली बर्की आज़मी
January 8, 2009 11:32 PM
Anonymous said...
Sabase pahale main yah batana chahta hoon ki blog par apni tippadi dene ke vajaya yahan par apne vichar vyakta kar raha hoon kyonki wahan main devnagari lipi man nahin likh paunga. main chahata hoon ki ye vichar wahan devnagari men hi dikhen, atah yadi aap chahen to mera sandharbh dekar in vicharon ko wahan de sakate hain.
Pahale riwayati,classical aur samkaalin shayari ke bare men apne vichar likh raha hoon,
(1)Riwayati yani paramparavadi (Traitional) wah ghazalen hain jo purane bimbon pratikon aur paramparaon ki prashthabhoomi par likhi hon jaise purane husna aur isk par adharit ghazalen.
(2)Shastriya(Classical) wah ghazalen jo uchcha stariya sahityik prashtha bhoomi par likhi hon.
(3)Samsamayik ya samkaalin ghazalen ve ghazalen hain jo aaj ke samay ke sandharbhon vishayon aur sarokaron ki prashthabhoomi par likhi gayeen hon.
Ab Shri Rajkumar 'Kais' ki ghazalon ke bare men, Maine abhi unki pahali ghazal hi dhyan se padi hai. ismen koi shak nahin ki inki ghazal ko pad kar ek khas prakar ki ravanagi mahsoos hoti hai. Bahut sunder ghazal hai. Meri aur se unhen aur aapko hardik badhai. Is ghazal ke kuchh misare padane men atakate hain, jaise (i) yoon to tere mayakhane men rangarang sharaben hain, iska doosara misara padane men atakta hai ise hona chahiye tha-"aaj undel use jo teri aankhon ne chhalkai hai" (ii)isi tarah "dekhanewale dhyan se dekhen husna nahin yah jadu hai" iska doosara misara bhi padane men atakta hai,doosare misare men "mantra" ki jagah par "mantar' aata to thik rahata.(iii)"kahane ko to vasla ki dawat leke koi aaya hai", iska bhi doosara misara atakta hai, ismen "ho na ho"ki jagah agar "lagata hai" hota to rawani bani rahati.(iv)makte men bhi doosara misara doshpurna hai kyonki "shabd birandaavan"likha hai jabki yah "vrandaavan" hona tha, fir "Raas" pulling hai atah "kisne raas rachaaya hai" aayega naki "kisna raas rachai hai.Maine yah sab bina kisi durbhavana ke likh diya hai ise swastha drashti se dekhen.Dhanyawad.
Chandrabhan Bhardwaj
Anonymous said...
Qais SaHeb kee shaa'iree kaa aik alag hee andaaz aur rang hai. in ghazloN pe meree hazaar_haa daad. dheer
January 9, 2009 6:57 AM
श्रद्धा जैन said...
wah gazal ke pahile hi sher ne shayar ki kalam ka loha mahnva diyabahut kamaal kahte hainSatpaal ji inse milwane ke liye bahut bahut shukriya
Thursday, January 1, 2009
नये साल की आमद पर- विशेष
.
गज़ल:
छेड़ ऐसी ग़ज़ल इस नए साल में
झूमे मन का कँवल इस नए साल में
कोई ग़मगीन माहौल क्यों हो भला
हर तरफ़ हो चहल इस नए साल में
गिर न पाये कभी है यही आरजू
हसरतों का महल इस नए साल में
याद आए सदा कारनामा तेरा
मुश्किलें कर सहल इस नए साल में
नेकियों की तेरी यूँ कमी तो नहीं
हर बदी से निकल इस नए साल में
पहले ख़ुद को बदल कर दिखा हमसफ़र
फिर तू जग को बदल इस नये साल में
रोज़ इतना ही काफी है तेरे लिए
मुस्करा पल दो पल इस नए साल में
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
(फ़ाइलुन x4)
देवी नागरानी की एक ग़ज़ल:
गज़ल:
मुबारक नया साल फिर आ रहा है
जिसे देखिये झूमकर गा रहा है
हूआ ख़त्म आंसू बहाने का मौसम
ख़ुशी देके हमको वो हर्षा रहा है
नए साल ने भर दिए है ख़ज़ाने
जिसे देखिये वो ही इतरा रहा है
है मस्ती दिलों में नशा है निराला
कोई जाम पर जाम छलका रहा है
भरो अपना दामन बड़ों की दुआ से
नया साल हमको ये समझा रहा है
यह पुरकैफ़ माहौल देवी है भाया
जिसे देखिये खुश नज़र आ रहा है
फ़ऊलुन x4
बहरे-मुतकारिब मसम्मन सालिम
डा. अहमद अली वर्की आज़मी की एक ग़ज़ल:
गज़ल:
नया साल है और नई यह ग़ज़ल
सभी का हो उज्जवल यह आज और कल
ग़ज़ल का है इस दौर मेँ यह मेज़ाज
है हालात पर तबसेरा बर महल
बहुत तल्ख़ है गर्दिशे रोज़गार
न फिर जाए उम्मीद पर मेरी जल
मेरी दोस्ती का जो भरते हैँ दम
छुपाए हैँ ख़ंजर वह ज़ेरे बग़ल
न हो ग़म तो क्या फिर ख़ुशी का मज़ा
मुसीबत से इंसाँ को मिलता है बल
वह आएगा उसका हूँ मैं मुंतज़िर
न जाए खुशी से मेरा दम निकल
है बेकैफ हर चीज़ उसके बग़ैर
नहीँ चैन मिलता मुझे एक पल
न समझेँ अगर ग़म को ग़म हम सभी
तो हो जाएँगी मुशकिले सारी हल
सभी को है मेरी यह शुभकामना
नया साल सबके लिए हो सफल
ख़ुदा से है बर्की मेरी यह दुआ
ज़माने से हो दूर जंगो जदल
मुतकारिब की मुजाहिफ़ शक्ल
122 122 122 12
चन्द्रभान भारद्वाज की एक ग़ज़ल:
गज़ल:
पड़ी मांग सूनी कटी है कलाई;
नये साल की बंधु कैसी बधाई।
खड़ा है खुले आम दुश्मन हमारा,
कुटिल उसका मन आंख में बॆहयाई।
बनाकर गये धूल चंदन वतन की,
हमें गर्व है उन शहीदों पे भाई।
सधे थे कदम हाथ लाखों जुड़े थे,
बहे आँसुओं ने शमा जब जलाई।
वो बलिदान है आरती इस वतन की,
जलाई जो लौ हर तरफ जगमगाई ।
ये इतिहास भूगोल बदले तुम्हारा,
'भारद्वाज'सरहद अगर फिर जगाई।
फ़ऊलुन x4
बहरे-मुतकारिब मसम्मन सालिम
द्विजेन्द्र द्विज की एक ग़ज़ल:
गज़ल:
ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में
सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में
ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में
है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में
बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में
राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में
वक़्त ! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में
ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में
हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में
अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में
काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में
देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में
कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
(फ़ाइलुन x4)** शादमानी - प्रसन्नता ; जाफ़रानी-केसर जैसी सुगन्ध जैसी ; पासबानी-सुरक्षा ; हुक्मरानी-सत्ता,शासन ;
हक़-बयानी : सच कहने की आदत ; कामरानी-सफलता; मरहले-पड़ाव
देवमणि पांडेय की एक ग़ज़ल:
गज़ल:
नया साल हमसे दग़ा न करे
गए साल जैसी ख़ता न करे
अभी तक है छलनी हमारा शहर
नया ज़ख़्म खाए ख़ुदा न करे
नए साल में रब से मांग दुआ
किसी को किसी से जुदा न करे
सभी के लिए ज़िंदगी है मेरी
भले कोई मुझसे वफ़ा न करे
फरिश्ता तुझे मान लेगा जहां
अगर तू किसी का बुरा न करे
मोहब्बत से कह दो परे वो रहे
मेरी ज़िंदगी बेमज़ा न करे
झमेले बहुत ज़िंदगानी के हैं
तुझे भूल जाऊं ख़ुदा न करे
न टूटे कोई ख़्वाब इसके सबब
कुछ ऐसा ये बादे-सबा न करे
तो ख़्वाबों की ताबीर मुमकिन नहीं
अगर ज़िंदगानी वफ़ा न करे
अमीरों के दर से न पाएगा कुछ
भिखारी से कह दो दुआ न करे
बहरे-मुतकारिब मुजाहिफ़ शक्ल
गौतम राजऋषि की एक ग़ज़ल:
गज़ल:
दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्ह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को
पेड़ों की फुनगी पर आकर बैठ गयी जो धूप जरा
आँगन में ठिठकी सर्दी को भी आये तो गरमाने को
टेढ़ी भौंहों से तो कोई बात नहीं बनने वाली
मुट्ठी कब तक भींचेंगे हम,हाथ मिले याराने को
हुस्नो-इश्क पुरानी बातें,कैसे इनसे शेर सजे
आज गज़ल तो तेवर लायी सोती रूह जगाने को
साहिल पर यूं सहमे-सहमे वक्त गंवाना क्या यारों
लहरों से टकराना होगा पार समन्दर जाने को
प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को
साल गुजरता सिखलाता है,भूल पुरानी बातें अब
साज नया हो,गीत नया हो,छेड़ नये अफ़साने को
अपने हाथों की रेखायें कर ले तू अपने वश में
’गौतम’ तेरी रूठी किस्मत आये कौन मनाने को
(22x7+2)
सतपाल ख्याल की एक ग़ज़ल:
गज़ल:
जश्न है हर सू , साल नया है
हम भी देखें क्या बदला है.
गै़र के घर की रौनक है वो
अब वो मेरा क्या लगता है.
दुनिया पीछे दिलबर आगे
मन दुविधा मे सोच रहा है.
तख्ती पे 'क' 'ख' लिखता वो-
बचपन पीछे छूट गया है.
नाती-पोतों ने जिद की तो
अम्मा का संदूक खुला है.
याद ख्याल आई फिर उसकी
आँख से फिर आँसू टपका है.
दहशत के लम्हात समेटे
आठ गया अब नौ आता है.
(22x4)
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आज हम ग़ज़ल की बहरों को लेकर चर्चा आरम्भ कर रहे हैं | आपके प्रश्नों का स्वागत है | आठ बेसिक अरकान: फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2) मु-त-फ़ा-इ-लुन(...