
खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले
मनु के इस खूबसूरत शे’र के साथ हाज़िर हैं अगली तीन तरही ग़ज़लें
डी.के. मुफ़लिस
जो सच से ही नज़रें बचा कर चले
समझ लो वो अपना बुरा कर चले
चले जब भी हम मुस्कुरा कर चले
हर इक राह में गुल खिला कर चले
हम अपनी यूँ हस्ती मिटा कर चले
मुहव्बत को रूतबा अता कर चले
लबे-बाम हैं वो मगर हुक़्म है
चले जो यहाँ सर झुका कर चले
इसे उम्र भर ही शिकायत रही
बहुत ज़िन्दगी को मना कर चले
वो बादल ज़मीं पर तो बरसे नहीं
समंदर पे सब कुछ लुटा कर चले
हमें तो खुशी है कि हम आपको
नज़र में सभी की खु़दा कर चले
चकाचौंध के इस छलावे में हम
खुद अपना ही विरसा भुला कर चले
किताबों में चर्चा उन्हीं की रही
ज़माने में जो कुछ नया कर चले
खुदा तो सभी का मददगार है
बशर्ते बशर इल्तिजा कर चले
कब इस का मैं 'मुफ़लिस' भरम तोड़ दूँ
मुझे ज़िन्दगी आज़मा कर चले
मनु बे-तख़ल्लुस
ये साकी से मिल हम भी क्या कर चले
कि प्यास और अपनी बढा कर चले
खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले
चुने जिनकी राहों से कांटे वही
हमें रास्ते से हटा कर चले
तेरे रहम पर है ये शम्मे-उमीद
बुझाकर चले या जला कर चले
रहे-इश्क में साथ थे वो मगर
हमें सौ दफा आजमा कर चले
खफा 'बे-तखल्लुस' है उन से तो फिर
जमाने से क्यों मुँह बना कर चले
आशीष राजहंस
तेरे इश्क का आसरा कर चले
युँ तै उम्र का फ़ासला कर चले
थे आंखों में बरसों सँभाले हुए
तेरे नाम मोती लुटा कर चले
सदा की तरह बात हमने कही
सदा की तरह वो मना कर चले
खुदा ही है वो, हम ये कैसे कहें-
नज़र में सभी की खु़दा कर चले
है रोज़े-कयामत का अब इन्तज़ार
खयाले-विसाल अब मिटा कर चले
कभी भी मिले तो गिला न कहा
हर इक बार खुद से गिला कर चले