Friday, September 4, 2009

नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले -दूसरी किश्त











न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले

बर्क़ी जी के इस खूबसूरत शे’र के साथ हाज़िर हैं अगली तीन ग़ज़लें-

डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी

जो था अर्ज़ वह मुद्दआ कर चले
जफाओं के बदले वफा कर चले

कोई उसका इनआम दे या न दे
जो था फ़र्ज़ अपना अदा कर चले

है वादा ख़िलाफ़ी तुम्हारा शआर
किया था जो वादा निभा कर चले

खटकता है तुमको हमारा वजूद
हमीं थे जो सब कुछ फ़िदा कर चले

नहीं है कोई अपना पुरसान-ए-हाल
जो कहना था हमको सुना कर चले

सुनूँ मैं भी तुम यह बताओ कहां
मेरा ख़ून-ए-नाहक़ बहा कर चले

सितम सह के भी हमने उफ तक न की
हम उसके लिए यह दुआ कर चले

न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले

तुम ऐसे सनम हो जिसे हम सदा
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

नज़र अब चुराते हैं वह गुल अज़ार
जिन्हें सुर्ख़रू बारहा कर चले

यक़ीं तुमको मेरी बला से न आए
जो थी बदगुमानी मिटा कर चले

तबीयत है बर्क़ी की जिद्दत पसंद
किसी ने नहीं जो किया कर चले

प्रेमचंद सहजवाला

वो नज़रे-करम मुझ पे क्या कर चले
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

जो अपने थे वो सब दगा कर चले
परायों का अब आसरा कर चले

यहीं से वो गुज़रा किये आजकल
यही सोच कर गुल बिछा कर चले

किये नज़्र तुमने जो अरमान कल
वही आज लोरी सुना कर चले

सज़ा-ए-कज़ा उन मसीहाओं को
जो सच से हैं पर्दा हटा कर चले

मेरी हक़-बयानी का ये है सिला
वो मेरा घरौंदा जला कर चले

ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर

रहे-इश्क़ में हम यह क्या कर चले
कसक दिल की किसको सुना कर चले

ग़मो- दर्द जिसने न समझे कभी
उसे ज़ख़्मे-दिल क्यों दिखा कर चले

कहीं हसरतें आह भरती रहीं
कही जामे-उलफ़त लुढ़ा कर चले

वह जाज़िब नज़र हो गया पैरहन
जिसे आप तन पर सजा कर चले

जो रस्म-ए-वफ़ा तर्क करते रहे
वही बा वफ़ा से गिला कर चले

भला इश्क़ क्यूँ हुस्न-ए-मग़रूर से
बता आजज़ी इल्तेजा कर चले

वो सुन कर मेरी दास्तान-ए-अलम
बडे नाज़ से मुस्कुरा कर चले

चली ज़ुलमत-ए-शब की आंधी बहुत
दीया हम भी सर पर जला कर चले

न था जिस सनम का कोई उसको हम
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

8 comments:

Mithilesh dubey said...

सभी एक से बढकर एक लाजवाब........

Anonymous said...

कोई उसका इनआम दे या न दे
जो था फ़र्ज़ अपना अदा कर चले
wah wa!!

gagan said...

bahut khoobsurat ghazalen.

जो अपने थे वो सब दगा कर चले
परायों का अब आसरा कर चले

bahut umda she'r

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

अपने अपने रंग मेँ है हर ग़ज़ल
दिलकशो पुरकैफ और सहर आफरीँ

सब का है रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल मुनफरिद
हैँ सभी अशआर वेहद दिल नशीँ
अहमद अली बर्क़ी आज़मी

भूपेन्द्र कुमार said...

दूसरी किश्त की तीनों ग़ज़लें भी लाजवाब हैं। बर्क़ी आज़मी साहब के ये शेर बहुत अच्छे लगे-

कोई उसका इनआम दे या न दे
जो था फ़र्ज़ अपना अदा कर चले

न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले

तबीयत है बर्क़ी की जिद्दत पसंद
किसी ने नहीं जो किया कर चले

जनाब प्रेमचंद सहजवाला के ये शेर बहुत ख़ूबसूरत लगे-

यहीं से वो गुज़रा किये आजकल
यही सोच कर गुल बिछा कर चले

सज़ा-ए-कज़ा उन मसीहाओं को
जो सच से हैं पर्दा हटा कर चले

मेरी हक़-बयानी का ये है सिला
वो मेरा घरौंदा जला कर चले

जनाब ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर के ये शेर बहुत पसंद आए-

ग़मो- दर्द जिसने न समझे कभी
उसे ज़ख़्मे-दिल क्यों दिखा कर चले

जो रस्म-ए-वफ़ा तर्क करते रहे
वही बा वफ़ा से गिला कर चले

चली ज़ुलमत-ए-शब की आंधी बहुत
दीया हम भी सर पर जला कर चले

निर्मला कपिला said...

एक से एक बढ कर गज़लें हैं बर्की जी प्रेमचन्द जी व नैयर जी को बहुत बहुत बधाई

सतपाल ख़याल said...

सभी पाठकों का धन्यवाद !

गौतम राजऋषि said...

ये आपने अच्छा किया सतपाल जी की इस बार हर किश्त में तीन-तीन ग़ज़ल ही लगा रहे हैं, हमें ज्यादा डूब कर पढ़ने का वक्त मिल रहा है।

बर्क़ी साब के तमाम शेरों के अलावा मक्ता खूब पसंद आया!

प्रेमचंद साब का वो लोरी वाला शेर अपने-आप में अनूठा है।


और नय्यर साब के लगभग हर शेरों के अलावा गिरह ने दिल लूट लिया। जय हो!