Wednesday, October 7, 2009

तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं














इस बार का तरही मिसरा है-

"तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं"

बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन x 4
1222 x4
काफ़िया- पहचान, मान, जान आदि।
रदीफ़- लेते हैं।

ये मिसरा फ़िराक़ गोरखपुरी की मशहूर ग़ज़ल से लिया गया है।
ज़्यादा लंबी ग़ज़लें न भेजें और भेजने से पहले अच्छी तरह जाँच-परख लें। आप अपनी ग़ज़लें 20.10.2009 के बाद ही भेजें।पहली किश्त नवंबर के दूसरे हफ़्ते में प्रकाशित होगी।

Thursday, October 1, 2009

मुनव्वर जी की ताज़ा ग़ज़ल















कल रात एक शे’र ऐसा नज़र से गुज़रा कि मैं अंदर तक सिहर उठा और ये शे’र अपने आप में एक फ़लसफ़ा है, आप इस शे’र पर पूरा एक ग्रंथ लिख सकते हैं। ये शे’र हमारे कई सवालों का- कि शे’र कैसा होना चाहिए, ग़ज़ल का मिज़ाज कैसा हो, ये फ़न कैसे सीखा जाए, बात कहने का हुनर कैसा हो आदि का जवाब है। इस शे’र के ज़िक्र से पहले बशीर साहब का ये शे’र देखिए-

ये शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है

ये शे’र ग़ज़ल की नज़ाकत, अदा, खूबसूरती के बारे में कहा गया बेहतरीन शे’र है।बाकई ग़ज़ल शबनमी लहजा चाहती है और फूल का तितली की कहानी बयान करने जैसा ही है ग़ज़ल कहना।लेकिन जो शे’र कल मैनें पढ़ा वो इससे आगे की बात करता है। लीजिए शे’र हाज़िर है जो अपने आप में किसी दीवान से कम नहीं। आप चाहें तो इस पर Ph.d कर सकते हैं।

शे’र है-

ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना

और ये शे’र फ़क़ीर जैसे शायर जनाब मुनव्वर राना का है। बाक़ई शायरी का फ़न किताबों से नहीं इबादतगा़हों से सीखना पड़ता है और हीरे को फूल की पत्ती से काटने जैसा हुनर है शायरी। जो नफरत तक को मुहव्बत से काट देती है और जब आज सुबह उनसे बात हुई तो उन्होंने कहा कि" मैं तो कहता हूँ कि हर सियासी और सरकारी अफ़सर की तालीम का ये हिस्सा होना चाहिए कि वो पीरों-फ़क़ीरों की मज़ारों पर जाकर इस हुनर की तालीम लें कि कैसे हीरे जैसे सख़्त मुद्दों,.चोरी, दंगा, भूक़,ज़हालत,नफरत, फ़िरकापरस्ती आदि को फूल की पत्ती से काटना है, ख़त्म करना है।" ये बात शायरी पर भी बराबर लागू होती है कोई अच्छा शे’र कहना भी किसी हीरे को फूल की पत्ती से काटने से कम नही और इस इस फ़न के माहिर हैं-मुनव्वर राना। मुनव्वर राना उन शायरों मे शुमार होते हैं जिनकी बदौलत ग़ज़ल और अमीर हुई और मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि शायर होना आसान है लेकिन मुनव्वर राना बनना आसान नहीं और इतनी भीड़ में अपनी शायरी की चमक से वो अलग नज़र आते हैं। उनकी इजाज़त के साथ मुलाहिज़ा फ़रमाइए उनकी ये ग़ज़ल

ग़ज़ल

इतनी तवील उम्र को जल्दी से काटना
जैसे दवा की पन्नी को कैंची से काटना

छत्ते से छेड़छाड़ की आदत मुझे भी है
सीखा है उसने शहद की मक्खी से काटना

इन्सान क़त्ल करने के जैसा तो ये भी है
अच्छे भले शजर को कुल्हाड़ी से काटना

पानी का जाल बुनता है दरिया तो फिर बुने
तैराक जानता है हथेली से काटना

रहता है दिन में रात के होने का इंतज़ार
फिर रात को दवाओं की गोली से काटना

ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना


मुमकिन है मैं दिखाई पड़ूँ एक दिन तुम्हें
यादों का जाल ऊन की तीली से काटना

इक उम्र तक बज़ुर्गों के पैरों मे बैठकर
पत्थर को मैने सीखा है पानी से काटना

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12


मुझे इस बात खुशी है कि "आज की ग़ज़ल" अब उन अज़ीम शायरों तक पहुँच रही जो अपने आप में एक मिसाल हैं। मुनव्वर जी जैसे क़दावर शायर तक हमारा पहुँचना यकीनन एक दरिया को समंदर मिल जाने जैसा है। इस सब के पीछे द्विज जी का आशीर्वाद और आप मित्रों का स्नेह है।

Sunday, September 27, 2009

कृष्ण बिहारी 'नूर' की दो ग़ज़लें














इनका जन्म जन्म: 8 नवंबर 1925 लखनऊ में हुआ। इन्होंने शायरी में अपने सूफ़ियाना रंग से एक अलग पहचान बनाई। उर्दू और हिंदी दोनों से एक सा प्रेम करने वाले "नूर" 30 मई 2003 को इस संसार को अलविदा कह गए। इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं-

एक

आते-जाते साँस हर दुख को नमन करते रहे
ऊँगलियां जलती रहीं और हम हवन करते रहे

कार्य दूभर था मगर ज्वाला शमन करते रहे
किस ह्रदय से क्या कहें इच्छा दमन करते रहे

साधना कह लीजिए चाहे तपस्या अंत तक
एक उजाला पा गए जिसको गहन करते रहे

दिन को आँखें खोलकर संध्या को आँखे मूँधकर
तेरे हर इक रूप की पूजा नयन करते रहे

हम जब आशंकाओं के परबत शिखर तक आ गए
आस्था के गंगाजल से आचमन करते रहे

खै़र हम तो अपने ही दुख-सुख से कुछ लज्जित हुए
लोग तो आराधना में भी ग़बन करते रहे

चलना आवश्यक था जीवन के लिए चलना पड़ा
’नूर’ ग़ज़लें कह के दूर अपनी थकन करते रहे

दो

बस एक वक्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है

मैं क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है

मैं देवता की तरह क़ैद अपने मन्दिर में
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है

मैं जिसके हाथ में एक फूल देके आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है

मैं साज़िशों में घिरा इक यतीम शहज़ादा
यहीं कहीं कोई ख़ंजर मेरी तलाश में है

Sunday, September 20, 2009

अब्दुल हमीद" अदम" की ग़ज़लें














अब्दुल हमीद "अदम" अपनी ख़ास शैली और भाषा के लिए जाने जाते थे। उनका जन्म 1909में तलवंडी मूसा खाँ(पाकिस्तान में) हुआ था।उन्होंने बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की और पाकिस्तान सरकार के ऑडिट एण्ड अकाउंट्स विभाग में ऊँचे ओहदे पर रहे। शराब के शौकीन इस शायर की ये पंक्तियां पढ़ें-

शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
ये मुस्कराती हुई चीज़ मुस्करा के पिला
सरूर चीज़ की मिक़दार पर नहीं मौकू़फ़
शराब कम है तो साकी नज़र मिला के पिला


आज वो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वो अंदाज़ आज भी ज़िंदा है।भले ही आज ग़ज़ल एक अलग पहचान बना रही है लेकिन कभी हुस्नो-इश्क़ भी इसके ज़ेवर रहे हैं और इनका भी अपना ही स्थान है शायरी में , इन्हें पढ़ने-सुनने में कोई बुराई नहीं है , आप भी इस शायर की ग़ज़लों का आनंद लें।

एक

गिरह हालात में क्या पड़ गई है
नज़र इक महज़बीं से लड़ गई है

निकालें दिल से कैसे उस नज़र को
जो दिल में तीर बनकर गड़ गई है

मुहव्बत की चुभन है क़्ल्बो-जाँ* में
कहाँ तक इस मरज़ की जड़ गई है

ज़रा आवाज़ दो दारो-रसन* को
जवानी अपनी ज़िद्द पे अड़ गई है

हमें क्या इल्म था ये हाल होगा
"अदम" साहब मुसीबत पड़ गई है

क़्ल्बो-जाँ-दिल और जान,दारो-रसन-फाँसी
दो

डाल कर कुछ तही* प्यालों में
रंग भर दो मेरे ख़यालों में

ख्वाहिशें मर गईं ख़यालों में
पेच आया न उनके बालों में

उसने कोई जवाब ही न दिया
लोग उलझे रहे सवालों में

दैरो-काबे की बात मत पूछॊ
वाकि़यत* गुम है इन मिसालों में

आज तक दिल में रौशनी है "अदम"
घिर गए थे परी जमालों में

वाकि़यत-असलियत,तही-खाली
तीन

सर्दियों की तवील* राते हैं
और सौदाईयों सी बातें हैं

कितनी पुर नूर थी क़दीम* शबें
कितनी रौशन जदीद रातें हैं

हुस्न के बेहिसाब मज़हब हैं
इश्क़ की बेशुमार रातें हैं

तुमको फुर्सत अगर हो तो सुनो
करने वाली हज़ार बातें हैं

ज़ीस्त के मुख़्तसर से वक़्फ़े* में
कितनी भरपूर वारदातें हैं

तवील-लंबी,क़दीम-पुरानी,जदीद -नई,वक़्फ़े-अवधि

Tuesday, September 15, 2009

ज्ञान प्रकाश विवेक की ग़ज़लें और परिचय









30 जनवरी 1949 को हरियाणा मे जन्में ज्ञान प्रकाश विवेक चर्चित ग़ज़लकार हैं । इनके प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह हैं "प्यास की ख़ुश्बू","धूप के हस्ताक्षर" और "दीवार से झाँकती रोशनी", "गुफ़्तगू आवाम से" और "आँखों मे आसमान"। ये ग़ज़लें जो आपके लिए हाज़िर कर रहे हैं ये उन्होंने द्विज जी को भेजीं थीं ।

एक

उदासी, दर्द, हैरानी इधर भी है उधर भी है
अभी तक बाढ़ का पानी इधर भी है उधर भी है

वहाँ हैं त्याग की बातें, इधर हैं मोक्ष के चर्चे
ये दुनिया धन की दीवानी इधर भी है उधर भी है

क़बीले भी कहाँ ख़ामोश रहते थे जो अब होंगे
लड़ाई एक बेमानी इधर भी है उधर भी है

समय है अलविदा का और दोनों हो गए गुमसुम
ज़रा-सा आँख में पानी इधर भी है उधर भी है

हुईं आबाद गलियाँ, हट गया कर्फ़्यू, मिली राहत
मगर कुछ-कुछ पशेमानी इधर भी है उधर भी है

हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग-सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है

(बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम)
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222x4

दो

तुम्हें ज़मीन मिली और आसमान मिला
हमें मिला भी तो विरसे में ख़ाकदान मिला

ज़रूर है किसी पत्थर के देवता का असर
कि जो मिला मुझे बस्ती में बेज़ुबान मिला

वो मेरे वास्ते पत्थर उबाल लाया है-
तू आके देख मुझे कैसा मेज़बान मिला

तू मुझसे पूछ कि बेघर को क्या हुआ हासिल
मिला मकान तो हिलता हुआ मकान मिला

सुना है जेब में बारूद भर के रखता था
जो शख़्स आज धमाकों के दरमियान मिला

तू उससे पूछ दरख़्तों की अहमियत क्या है
कि तेज़ धूप में जिसको न सायबान मिला

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

तीन

लोग ऊँची उड़ान रखते हैं
हाथ पर आसमान रखते हैं

शहर वालों की सादगी देखो-
अपने दिल में मचान रखते हैं

ऐसे जासूस हो गए मौसम-
सबकी बातों पे कान रखते हैं

मेरे इस अहद में ठहाके भी-
आसुओं की दुकान रखते हैं

हम सफ़ीने हैं मोम के लेकिन-
आग के बादबान रखते हैं

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112

चार

तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीये क्यूँ बुझा के रखता था

बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लकें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था

वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था

न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था

हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था

मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

पाँच

मुझे मालूम है भीगी हुई आँखों से मुस्काना
कि मैंने ज़िन्दगी के ढंग सीखे हैं कबीराना

यहाँ के लोग तो पानी की तरह सीधे-सादे हैं
कि जिस बर्तन में डालो बस उसी बर्तन-सा ढल जाना

बयाबाँ के अँधेरे रास्ते में जो मिला मुझको
उसे जुगनू कहूँ या फिर अँधेरी शब का नज़राना

वो जिस अंदाज़ से आती है चिड़िया मेरे आँगन में
अगर आना मेरे घर में तो उस अन्दाज़ से आना

न कुर्सी थी, न मेज़ें थीं, न उसके घर तक़ल्लुफ़ था
कि उसके घर का आलम था फ़कीराना-फ़कीराना

(बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम)
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन