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आलोक श्रीवास्तव जी ने ये दो ग़ज़लें द्विज जी को भेजी थीं। ये ग़ज़लें आप सब के लिए हाज़िर हैं। आलोक श्रीवास्तव शायरी में अपना एक अलग मुकाम रखते हैं, जिससे हम सब वाकिफ़ हैं और ये नाम किसी परिचय का मुहताज़ नहीं है। पहली ग़ज़ल अमीर खु़सरो की ज़मीन में है। ये ग़ज़ल बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल में है( फ़ऊल फ़ालुन x 4, 12122 x4)।
मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-
आलोक श्रीवास्तवसखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां....अमीर ख़ुसरो
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां
दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ, मैं करना चाहूं नज़र से बतियां
ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है
सुलगती सांसे, तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां
उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुशबू
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा, किसी दरस में पिरोलूं अंखियां
मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां
दूसरी ग़ज़ल बहरे-हज़ज में है और कबीर जी की ज़मीन में कही गई है। ये ग़ज़ल पढ़िये-
आलोक श्रीवास्तवहमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ...कबीर
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या
चचा ग़ालिब की जूती हैं, उन्हीं के क़र्ज़दारी हैं
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या, उधारी क्या
धुएं की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या
उतर जाए है छाती में, जिगरवा काट डाले हैं
मुई महंगाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या
तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू, लहू के साथ बहती है
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या

सो ये थी कबीर और अमीर ख़ुसरो को ख़िराजे-अक़ीदत आलोक जी की तरफ़ से । कबीर के लिखे को हम शायरी नहीं कह सकते, बल्कि ये बानी है जिसे मंदिरों मे गाया जाता है। लेकिन शायरी महफिलों में गाई जाती हैं, मंदिरों में नहीं। शायद ग़ज़ल के इस स्वभाव को कबीर भाँप गए होंगे और इसी वज़ह से इस विधा से उन्होंने किनारा कर लिया। यही एक ग़ज़ल शायद उनकी मिलती है जिसे उन्होंने प्रयोगवश कहा होगा
संत कबीर :
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

निदा साहब ने भी कबीर की ज़मीन में ये ग़ज़ल कही है । निदा जी ने अमीर खुसरो की ज़मीन में भी एक-आध ग़ज़ल कही है, जिसे फिर कभी पेश करूँगा। अभी मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-
निदा फ़ाज़ली:
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.
ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.
उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.
हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या
सोच रहा हूँ कि एक तरही मुशायरा भी करवा दिया जाए। मिसरे का ज़िक्र अगली पोस्ट में करूँगा...धन्यवाद ।