Monday, August 6, 2012

अंसार क़म्बरी की एक ग़ज़ल



ग़ज़ल

धूप का जंगल, नंगे पावों इक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या

बादल-बादल आग लगी थी, छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या

सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या

तुमने चाहे चाँद-सितारे, हमको मोती लाने थे,
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका, फिर बंटवारा करता क्या

टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बींच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा करता क्या

Wednesday, July 25, 2012

ग़ज़ल- दिनेश ठाकुर




दिनेश जी के ग़ज़ल संग्रह 'परछाइयों के शहर में' से-  एक ग़ज़ल-

दिल ग़म से आज़ाद नहीं है
ऐसा क्यों है, याद नहीं है

ख़्वाबों के ख़ंजर पलकों पर
होठों पर फ़रियाद नहीं है

जंगल तो सब हरे-भरे हैं
गुलशन क्यों आबाद नहीं है

दिल धड़का न आँसू आए
यह तो तेरी याद नहीं है

आबादी है शहरे-वफ़ा की
कौन यहाँ बर्बाद नहीं है

सच-सच कहना हँसने वाले
क्या तू भी नाशाद नहीं है..?

कितने चेहरे थे चेहरों पर
कोई चेहरा याद नहीं है

जो कुछ है इस जीवन में है
कुछ भी इस के बाद नहीं है

Thursday, April 19, 2012

श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल


सका है अज़्मे-सफ़र और निखरने वाला
सख़्त मौसम से मुसाफ़िर नहीं डरने वाला

चारागर तुझसे नहीं मुझको तवक़्क़ो कोई
दर्द होता है दवा हद से गुज़रने वाला

नाख़ुदा ! तुझको मुबारक हो ख़ुदाई तेरी
साथ तेरे मैं नहीं पार उतरने वाला

उसपे एहसान ये करना न उठाना उसको
अपने पैरों पे खड़ा होगा वो गिरने वाला

पार करने थे उसे कितने सवालों के भँवर
अटकलें छोड़ गया डूब के मरने वाला

मैं उड़ानों का तरफ़दार उसे कैसे कहूँ
बालो-पर है जो परिन्दों के कतरने वाला

क्यूँ भला मेरे लिए इतने परेशान हो तुम
  एक पत्ता ही तो हूँ सूख के झरने वाला

    अपनी नज़रों से गिरा है जो किसी का भी नहीं
      साथ क्या देगा तेरा ख़ुद से मुकरने वाला

  ग़र्द हालात की अब ऐसी जमी है, तुझ पर
  आईने ! अक्स नहीं कोई उभरने वाला

ये ज़मीं वो तो नहीं जिसका था वादा तेरा
कोई मंज़र तो हो आँखों में ठहरने वाला

Friday, April 6, 2012

राहत इंदौरी
















राहत इंदौरी साहब ने शायरी को इबादत बना लिया है और इबादत भी किसी पहुँचे हुए फ़क़ीर जैसी।

सब अपनी-अपनी ज़ुबां में अपने रसूल का ज़िक्र कर रहे हैं
फ़लक पे तारे चमक रहे हैं, शजर पे पत्ते खड़क रहे हैं

ऐसे शे’र कहते वक़्त शायर रुहानीयत के शिखर पर पहुँच जाता है और फिर उसके अल्फ़ाज़ सचमुच जी उठते हैं।

मुलाहिज़ा कीजिए -

मेरे पैयंबर का नाम है जो , मेरी ज़बां पर चमक रहा है
गले से किरनें निकल रही हैं,लबों से ज़म-ज़म टपक रहा है

मैं रात के आख़री पहर में, जब आपकी नात लिख रहा था
लगा के अल्फ़ाज़ जी उठे हैं , लगा के कागज़ धधक रहा है

सब अपनी-अपनी ज़ुबां में अपने रसूल का ज़िक्र कर रहे हैं
फ़लक पे तारे चमक रहे हैं, शजर पे पत्ता खड़क रहा है

मेरे नबी की दुआएँ हैं ये , मेरे ख़ुदा की अताएँ हैं ये
कि खुश्क मिट्टी का ठीकरा भी , हयात बनकर खनक रहा है

Monday, March 26, 2012

आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक-द्विजेन्द्र द्विज




















टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक


 












ग़ज़ल : द्विजेन्द्र द्विज
इने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक

टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक
रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक

अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना
हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक

फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ महज़ब का
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक

उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक

देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक

रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक


इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक

पुरसुकून आपका चेहरा ये चमकती आँखें
आप भी शह्र में लगता है नये हैं अब तक

ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई
यूँ तो हमने भी कई शे’र कहे हैं अब तक

दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल
और ‘द्विज’! आप तो दो कोस चले हैं अब तक