Saturday, March 1, 2025

मीर तक़ी मीर- बड़े शायर का बड़ा शे'र -दूसरी क़िस्त


पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

मीर तक़ी मीर (1723 - 1810)

ओशो ने एक बार कहीं कहा था कि कवि और संत में एक बड़ा अंतर ये है कि संत हर वक़्त संत होता है और कवि सिर्फ़ उस वक़्त संत होता है  जब कविता की आमद हो रही होती है क्योंकि कविता भी एक पारलौकिक घटना है जो किसी शाख़ पर नन्हीं कोंपल की तरह अपने आप फूटती है | ये बात और कि कवि उसे छंद से ,बहर से और उपमाओं से सजाता है | मीर शायद एक ऐसे शायर थे जो हर वक़्त फ़क़ीर भी रहे होंगे | सूफ़ीवाद या भक्ति काल जो 14वीं सदी से 17 वीं सदी तक रहा उस का  असर 1723 में आगरा में  जन्में मीर की शायरी में भी साफ़ झलकता है , हालांकि वो उर्दू के शायर रहे लेकिन उन का कलाम सूफ़ियों जैसा ही है ,एक दीवान उनका फ़ारसी में भी है  ,छ: दीवान उर्दू में हैं  | ग़ालिब भी मीर की तारीफ़ करते हुए कहते हैं - 


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रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था

मीर की सरलता ही उस की ख़ूबी है और ये आसानी  ही  मुश्किल काम है | वो कुछ ही साधारण अल्फाज़ में बड़ी बात कह देते हैं | आप एक बात आज़मा के देख लेना कोई फ़क़ीर हो या कोई महान वैज्ञानिक ही क्यों न हो वो हमेशा सरल और सहज ही होगा ,ये सरलता ख़ुदा की देन होती है | हम  पढ़-पढ़ कर जटिल हो जाते हैं जबकि सरल होना बेहतर होना है |

Unlearning is way to simplicity, wisdom and this is essence of sufiism also.

और ये है सरलता -

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या

मीर तक़ी मीर 

ग़ालिब की शायरी के उलट मीर बहुत सरल और सहज है , मानो छोटी सी शीतल नदी जो ऊबड़-खाबड़ रास्तों से बड़ी आसानी से गुज़र जाती है | वो दौर जब मीर ये अशआर कह रहे थे कोई बहुत शांत नहीं था उस वक़्त अब्दाली दिल्ली पर धावा बोल रहा था  लेकिन मीर किसी फ़क़ीर की तरह प्रेम की लौ लगाए शे'र कहते रहे हालांकि एक बार वो दिल्ली से निकल कर लखनऊ भी आते हैं |

एक बात और मीर ने हिन्दी मीटर का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया जो उर्दू शायरी में कम देखने को मिलता है जैसे यही शे'र देख लीजिए 

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

और ये भी -

उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है

इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया

फिर बाद में कई शायरों ने इस मीटर में ग़ज़लें कहीं | ये थे 'ख़ुदा-ए-सुख़न' मीर तक़ी मीर जिन का असर नासिर काज़मी और जौन एलिया जैसे शायरों पर भी नज़र आता है |



लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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Friday, February 28, 2025

जौन एलिया -बड़े शायर का बड़ा शे'र पहली क़िस्त





जन्म - 14 Dec 1931 -अमरोहा, उत्तर प्रदेश
निधन - 08 Nov 2002 - कराची, सिंध

हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में


जौन एलिया , ग़ालिब के बाद शायद इकलौते शायर हुए जो अन्दर से दार्शनिक भी थे और आप उन्हें वली या औलिया भी कह सकते हैं | ऐसा शायर जो अपनी शायरी जैसा दिखता भी था , अमूमन शायर ,अपनी शायरी से जुदा से ही  दिखते हैं | यूं तो उन के कई शे'र मशहूर हुए लेकिन ये शे'र ख़ासा सराहा गया | इस में वो ख़ुदा पर तंज़ करते हुए कहते हैं कि ख़ुदा ने कहा और झट से ,जल्दी से दुनिया पैदा हो गई और यही वज़ह है कि ऐसी बुरी दुनिया वजूद में आई ,अगर ख़ुदा  जल्दबाजी न करता तो बेहतर दुनिया बन सकती थी | ये सिर्फ़ तंज़ है और ये तंज़ सिर्फ़ शायर ही कर सकता है | 

ये जहाँ 'जौन' इक जहन्नुम है
याँ ख़ुदा भी नहीं है आने का
जौन एलिया 

 दुनिया से हर शायर जैसा मेरा मानना है ,फ़रार चाहता है जैसे ग़ालिब भी कहते हैं -

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
मिर्ज़ा ग़ालिब

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और फिर बुद्ध भी इस संसार को दुःख कहते हैं | जिस ने थोड़ी सोच विचार की वो इसी नतीजे पर पहुंचा |

विलियम शेक्सपीयर

 भी कहते हैं
-

"When we are born, we cry that we are come
To this great stage of fools."
(King Lear)

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् 
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः 

गीता भी यही कहती है कि संसार दुखों का घर है और जो ईश्वर की तरफ़ यात्रा आरंभ करता है वो मुक्त हो सकता है 
जौन एलिया  भी इसी उहा-पोह में रहे होंगे जब ये शे'र  कहा होगा और फिर इसी दुनिया में वो कुछ ऐसी कैफ़ियत से भी गुज़रते हैं -

इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
जौन एलिया



लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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Friday, February 21, 2025

नासिर काज़मी- -ग़ज़ल


ग़ज़ल 

 दुख की लहर ने छेड़ा होगा
याद ने कंकर फेंका होगा

आज तो मेरा दिल कहता है
तू इस वक़्त अकेला होगा

मेरे चूमे हुए हाथों से
औरों को ख़त लिखता होगा

भीग चलीं अब रात की पलकें
तू अब थक कर सोया होगा

रेल की गहरी सीटी सुन कर
रात का जंगल गूँजा होगा

शहर के ख़ाली स्टेशन पर
कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

आँगन में फिर चिड़ियाँ बोलीं
तू अब सो कर उट्ठा होगा

यादों की जलती शबनम से
फूल सा मुखड़ा धोया होगा

मोती जैसी शक्ल बना कर
आईने को तकता होगा

शाम हुई अब तू भी शायद
अपने घर को लौटा होगा

नीली धुंदली ख़ामोशी में
तारों की धुन सुनता होगा

मेरा साथी शाम का तारा
तुझ से आँख मिलाता होगा

शाम के चलते हाथ ने तुझ को
मेरा सलाम तो भेजा होगा

प्यासी कुर्लाती कूंजों ने
मेरा दुख तो सुनाया होगा

मैं तो आज बहुत रोया हूँ
तू भी शायद रोया होगा

'नासिर' तेरा मीत पुराना
तुझ को याद तो आता होगा

इस में एक शब्द है "कुर्लाना" ये पंजाबी में बहुत इस्तेमाल होता है लेकिन उर्दू शायरी में पहली बार देखा है | Rekhta इसे हिन्दी ओरिजिन का बताता है | कई बार शायर ऐसे शब्द उठा भी लेता है जो दूसरी भाषा या उसकी रीजनल लैंग्वेज के हों |

ये अशआर क्या तस्वीर खींचते है ..वाह !!

रेल की गहरी सीटी सुन कर
रात का जंगल गूँजा होगा

शहर के ख़ाली स्टेशन पर
कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

Saturday, February 15, 2025

ताज़ा ग़ज़ल - सतपाल ख़याल


आख़िर  उन का  जवाब आ ही गया 
दिल के बदले गुलाब आ ही गया 

रोज़ बदला है  चाँद सा चहरा 
रफ़्ता -रफ़्ता शबाब आ ही गया 

बस इशारा सा इक किया उस ने 
लेके साक़ी शराब आ ही गया 

साथ लाया उदासियाँ अपने   
इश्क़ ले  कर अज़ाब आ ही गया 

उस ने देखा पलट-पलट के "ख़याल"
कोशिशों का जवाब आ ही गया 


Friday, February 14, 2025

झील में सोने का सिक्का -नवनीत शर्मा

 ईश्वर का प्रमुख गुण है कि वो रचता है ,हर पल ,सतत सृजन करता है ईश्वर और फिर यही गुण कवि का भी है | फ़र्क केवल इतना है कि ईश्वर सहजता से ,स्वभाव से रचयिता है लेकिन कवि साधता है ,पहले विधा को ,भाषा को ,छन्द को , बह्र को ,भाव को और फिर छन्द को धागा बनाकर उसमें भाषा को ,भाव को ,अलंकार को पिरोता है और पाठक के सामने प्रस्तुत करता है | पाठक तक कविता या ग़ज़ल भाव रूप में पहुंचती है और भाव को कवि ने बह्र आदि से सजाया होता है तो पाठक उदास शेर पढ़कर भी विभोर हो जाता और बरबस वाह !! वाह !! कह उठता है | बात जब ग़ज़ल की हो तो बहुत फूँक –फूँक के क़दम रखना पढ़ता है , यानी जब आप किसी औरत से मुख़ातिब होते हैं तो आपके लहज़े में नरमी बहुत ज़रूरी है ,शायद इसीलिए ग़ज़ल को कभी माशूक सी की गई गुफ़्तगू कहा गया है | बात भले आप सियासत के ख़िलाफ़ करें ,भले शायर आक्रोश में हो लेकिन वो नरमी ग़ज़ल की असली पहचान है जैसे ये शेर, मैं नवनीत जी के ग़ज़ल संग्रह “झील में सोने का सिक्का” से रख रहा हूँ-

जिसका किरदार है अयां हर सम्त
उसको हम बेलिबास क्या करते
मैं जो कुछ कह रहा हूँ वो समीक्षा नहीं है बल्कि एक कोशिश है किसी शायर को कागज़ पर उकेरने की | नवनीत जी का ग़ज़ल संग्रह ज्ञान पीठ से छप कर आया है | आजकल नवनीत जी दैनिक जागरण के राज्य संपादक पद पर हैं | उनके ग़ज़ल संग्रह से कुछ मोती चुने हैं मैनें –
पहली ही ग़ज़ल का तीसरा शे’र –
फ़र्क़ यही है जीवन और थियेटर में
चलते नाटक में पर्दा गिर जाता है
और फिर ये देखिए आज के हालात को समझाता ये शे’र –
धुंध को भी धूप ही कहने लगी दुनिया
जादुई चश्में की है ये मेहरबानी सब




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हम निपट लेते जो कश्ती ही भंवर में आती
अब कहाँ जाएँ कि कश्ती में भंवर आया है
और देखिए अपनी ही तरह की नई कहन का लिबास ओढ़कर ,कितना मा'नी-ख़ेज़ शेर कहा है –
किताबों की तरह थे अनपढ़ों में
किसी को भेद क्या मिलता हमारा
मुझे शिव कुमार बटालवी का कहा याद आ गया कि बौद्धिक आदमी दरअसल ता उम्र घुटन महसूस करेगा ,क्योंकि दुनिया की जो तस्वीर शायर ने अपने अन्दर बना रखी होती है वो बाहर देखने को नहीं मिलती और इस घुटन और उदासी का शिकार शायरी हमेशा से रही है | ग़ालिब भी कहता है कि –
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
बाबा बुल्ले शाह कहते है –
चल बुल्लिया चल ओथे चलिए जित्थे सारे अन्ने
कोई न साडी ज़ात पछाने ,कोई न सानुं मन्ने
इसी संग्रह से और शेर -
तुम एक पूरी सदी हो मगर उदास लगती हो
मैं एक लम्हा सही खुशगवार लगता हूँ
और एक बात, मैंने ये देखा है जो आपके आस –पास जो अभी घट रहा है वो बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में घट रहा होता है , जिसे नवनीत जी का ये शेर कैसे उजागर करता है ,देखिए -
जो घर से निकले तो गलियाँ उदास करती हैं
रहें जो घर में तो फिर घर उदास करता है
इसी ग़ज़ल का एक और शेर-
हवा में तैरती चिड़िया पे नाज़ है मुझको
ज़मी पे टूटा हुआ पर उदास करता है
है न सूफीयों वाला बयान | शायरी वास्तव में सूफ़ियों का ही बयान है ,सूफ़ी जो अपने आस-पास देखता है उसके प्रति संवेदनशील होता है ,वो चिड़िया के टूटे पर देखकर रोता है और नन्हीं से चिड़िया को उड़ते देखकर खुश होता है | एक बात मैं और कहना चाहता हूँ कि भले बहर , कहन, भाषा,शेरीयत , अलंकार ,भाव ,परवाज़ ये सब मिलकर किसी शेर या कविता को रचते हों लेकिन , और ये लेकिन बहुत बड़ा है कि ग़ालिब इसे समझाते हैं –
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
माने कविता फिर भी किसी अदृश्य दिव्य लोक से प्रकट होती है ,कहने वाला सिर्फ माध्यम बन जाता है और ये अनुभव से कह रहा हूँ कि कविता चाहे आप प्रयास से कहो या कभी आमद हो ,दोनों हाल में उसका सोर्स वो अदृश्य जहां ही है | उसी ग़ैब से उतरे लगते है नवनीत जी के ये अशआर-
वो चांदनी जो फूट के रोयी थी रात भर
उसका कोई हिसाब सहर ने दिया नहीं
और रोमांस की इंतिहा –
घर अपने साथ उसे देवता के रखने को
गली से उसकी मैं पत्थर उठा के लौट आया
और –
एक नमकीन फ़ज़ा माज़ी की
रोज़ इक ज़ख्म खुला चाहती है
और ये शेर एक बार सुनाया था नवनीत जी ने फोन पे सो आज तक याद की किताब में बुकमार्क करके रखा है
मौत के आख़री जज़ीरे तक
जिंदगी तैरना सिखाती है
कट –कट के आंसुओं में बही दिल की किरचियाँ
क़िस्तों में मेरी ख़ुद से रिहाई हुई तो है
आस अब आसमां से रखी है
छत का मौसम ख़राब है प्यारे
और देखिए नवनीत जी सिग्नेचर –
शाम ढलने को है उमड़े हैं कुहासे कितने
अब जो गुर्बत में है नानी ,तो नवासे कितने
सियासत पर सहाफ़त से ताल्लुक़ रखने वाला शायर इस तरह वार करता है –
कभी नफ़रत ,कभी डर बुन रही है
सियासत कैसे मंज़र बुन रही है
ज़माने रेशमी हैं , मखमली हैं
हमारी क़ौम खद्दर बुन रही है
आप नवनीत जी से सम्पर्क करके किताब मंगवा सकते हैं और नवनीत जी के ये दो और शेर पढ़िए –
“झील में सोने का सिक्का” गिर जाता है
और पहाड़ों पर पारा गिर जाता है
और –
एक पुराना सिक्का देकर दिन जब रुख़्सत होता है
तब ऐसे लगता है जैसे धरती अंजुल जैसी है
धन्यवाद , भूल –चूक के लिए माफ़ी के साथ
सतपाल ख़याल