Monday, March 3, 2025

मुमताज़ गुर्मानी-बड़े शायर का बड़ा शे'र --तीसरी क़िस्त



 आज कुछ शहर के बूढ़ों से मिलूंगा जाकर 
आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा 

मुमताज़ गुर्मानी , डेरा ग़ाज़ी ख़ान  दक्षिण-पश्चिमी पंजाब के मौजूदा दौर के उम्दा शायर हैं | जिस इलाक़े से ये आते हैं वहाँ के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि हर कोई शायरना मिज़ाज का लगता है | बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा के करीब का ये इलाक़ा , जैसे मै नें जाना लोग मिट्टी से ज़्यादा जुड़े हुए हैं,    शहरी हवा अभी यहाँ फिरी नहीं मालूम होती | छोटी-छोटी निशिस्तें करते हैं शायर और मज़ा लेते हैं | कहते हैं कि गुरमानी साहब मुशायरों में कम शिरकत करते हैं लेकिन क्या कमाल की शायरी करते हैं -

कभी मैं पूछता रहता था कौन है दर पर 
और अब मैं दौड़ के जाता हूँ और देखता हूँ 

सुना है मौत मुदावा है जीस्त के ग़म का 
रुको मैं जान से जाता हूँ और देखता हूँ 
मुमताज़ गुर्मानी

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इस दौर में बहुत शायरी हो रही है और शायर भी बेशुमार हैं ,ऐसा लगता है हर तीन में एक आदमी शायर हो गया हो लेकिन तकनीक के इस दौर शायरी से वो गहराई ग़ायब हो गई और ये बात भी सही है कि अच्छे शायर के लिए कम्पीटीशन न के बराबर है | कहीं-कहीं कोई गुरमानी साहब की तरह उम्दा शायर मिल जाता है | बाक़ी बहुत से शायर हैं जिन की शायरी उन की ज़ुल्फ़ों से कहीं कमतर हसीन है | नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है | खैर इस शायर का अपना एक अलग अंदाज़ है -

मुझ पे तन्हा नहीं अफ़्लाक के दर बंद हुए
मेरा दुश्मन भी मेरे साथ ज़मीं पर आया
मुमताज़ गुर्मानी

 हिन्दी के कवि शमशेर बहादुर सिंह लिखते  हैं न -
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
ऐसे ही शे'र बोलता , शायर नहीं और बानगी देखिए -

आज कुछ शहर के बूढ़ों से मिलूंगा जाकर 
आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा 

लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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    Saturday, March 1, 2025

    मीर तक़ी मीर- बड़े शायर का बड़ा शे'र -दूसरी क़िस्त


    पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
    जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

    मीर तक़ी मीर (1723 - 1810)

    ओशो ने एक बार कहीं कहा था कि कवि और संत में एक बड़ा अंतर ये है कि संत हर वक़्त संत होता है और कवि सिर्फ़ उस वक़्त संत होता है  जब कविता की आमद हो रही होती है क्योंकि कविता भी एक पारलौकिक घटना है जो किसी शाख़ पर नन्हीं कोंपल की तरह अपने आप फूटती है | ये बात और कि कवि उसे छंद से ,बहर से और उपमाओं से सजाता है | मीर शायद एक ऐसे शायर थे जो हर वक़्त फ़क़ीर भी रहे होंगे | सूफ़ीवाद या भक्ति काल जो 14वीं सदी से 17 वीं सदी तक रहा उस का  असर 1723 में आगरा में  जन्में मीर की शायरी में भी साफ़ झलकता है , हालांकि वो उर्दू के शायर रहे लेकिन उन का कलाम सूफ़ियों जैसा ही है ,एक दीवान उनका फ़ारसी में भी है  ,छ: दीवान उर्दू में हैं  | ग़ालिब भी मीर की तारीफ़ करते हुए कहते हैं - 


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    रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
    कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था

    मीर की सरलता ही उस की ख़ूबी है और ये आसानी  ही  मुश्किल काम है | वो कुछ ही साधारण अल्फाज़ में बड़ी बात कह देते हैं | आप एक बात आज़मा के देख लेना कोई फ़क़ीर हो या कोई महान वैज्ञानिक ही क्यों न हो वो हमेशा सरल और सहज ही होगा ,ये सरलता ख़ुदा की देन होती है | हम  पढ़-पढ़ कर जटिल हो जाते हैं जबकि सरल होना बेहतर होना है |

    Unlearning is way to simplicity, wisdom and this is essence of sufiism also.

    और ये है सरलता -

    नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
    पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

    शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
    दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का

    राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
    आगे आगे देखिए होता है क्या

    मीर तक़ी मीर 

    ग़ालिब की शायरी के उलट मीर बहुत सरल और सहज है , मानो छोटी सी शीतल नदी जो ऊबड़-खाबड़ रास्तों से बड़ी आसानी से गुज़र जाती है | वो दौर जब मीर ये अशआर कह रहे थे कोई बहुत शांत नहीं था उस वक़्त अब्दाली दिल्ली पर धावा बोल रहा था  लेकिन मीर किसी फ़क़ीर की तरह प्रेम की लौ लगाए शे'र कहते रहे हालांकि एक बार वो दिल्ली से निकल कर लखनऊ भी आते हैं |

    एक बात और मीर ने हिन्दी मीटर का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया जो उर्दू शायरी में कम देखने को मिलता है जैसे यही शे'र देख लीजिए 

    पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
    जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

    और ये भी -

    उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
    देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

    चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
    पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है

    इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
    जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया

    फिर बाद में कई शायरों ने इस मीटर में ग़ज़लें कहीं | ये थे 'ख़ुदा-ए-सुख़न' मीर तक़ी मीर जिन का असर नासिर काज़मी और जौन एलिया जैसे शायरों पर भी नज़र आता है |



    लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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    Friday, February 28, 2025

    जौन एलिया -बड़े शायर का बड़ा शे'र पहली क़िस्त





    जन्म - 14 Dec 1931 -अमरोहा, उत्तर प्रदेश
    निधन - 08 Nov 2002 - कराची, सिंध

    हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
    यही मुमकिन था इतनी उजलत में


    जौन एलिया , ग़ालिब के बाद शायद इकलौते शायर हुए जो अन्दर से दार्शनिक भी थे और आप उन्हें वली या औलिया भी कह सकते हैं | ऐसा शायर जो अपनी शायरी जैसा दिखता भी था , अमूमन शायर ,अपनी शायरी से जुदा से ही  दिखते हैं | यूं तो उन के कई शे'र मशहूर हुए लेकिन ये शे'र ख़ासा सराहा गया | इस में वो ख़ुदा पर तंज़ करते हुए कहते हैं कि ख़ुदा ने कहा और झट से ,जल्दी से दुनिया पैदा हो गई और यही वज़ह है कि ऐसी बुरी दुनिया वजूद में आई ,अगर ख़ुदा  जल्दबाजी न करता तो बेहतर दुनिया बन सकती थी | ये सिर्फ़ तंज़ है और ये तंज़ सिर्फ़ शायर ही कर सकता है | 

    ये जहाँ 'जौन' इक जहन्नुम है
    याँ ख़ुदा भी नहीं है आने का
    जौन एलिया 

     दुनिया से हर शायर जैसा मेरा मानना है ,फ़रार चाहता है जैसे ग़ालिब भी कहते हैं -

    रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
    हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
    मिर्ज़ा ग़ालिब

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    और फिर बुद्ध भी इस संसार को दुःख कहते हैं | जिस ने थोड़ी सोच विचार की वो इसी नतीजे पर पहुंचा |

    विलियम शेक्सपीयर

     भी कहते हैं
    -

    "When we are born, we cry that we are come
    To this great stage of fools."
    (King Lear)

    मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् 
    नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः 

    गीता भी यही कहती है कि संसार दुखों का घर है और जो ईश्वर की तरफ़ यात्रा आरंभ करता है वो मुक्त हो सकता है 
    जौन एलिया  भी इसी उहा-पोह में रहे होंगे जब ये शे'र  कहा होगा और फिर इसी दुनिया में वो कुछ ऐसी कैफ़ियत से भी गुज़रते हैं -

    इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
    कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
    जौन एलिया



    लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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    Friday, February 21, 2025

    नासिर काज़मी- -ग़ज़ल


    ग़ज़ल 

     दुख की लहर ने छेड़ा होगा
    याद ने कंकर फेंका होगा

    आज तो मेरा दिल कहता है
    तू इस वक़्त अकेला होगा

    मेरे चूमे हुए हाथों से
    औरों को ख़त लिखता होगा

    भीग चलीं अब रात की पलकें
    तू अब थक कर सोया होगा

    रेल की गहरी सीटी सुन कर
    रात का जंगल गूँजा होगा

    शहर के ख़ाली स्टेशन पर
    कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

    आँगन में फिर चिड़ियाँ बोलीं
    तू अब सो कर उट्ठा होगा

    यादों की जलती शबनम से
    फूल सा मुखड़ा धोया होगा

    मोती जैसी शक्ल बना कर
    आईने को तकता होगा

    शाम हुई अब तू भी शायद
    अपने घर को लौटा होगा

    नीली धुंदली ख़ामोशी में
    तारों की धुन सुनता होगा

    मेरा साथी शाम का तारा
    तुझ से आँख मिलाता होगा

    शाम के चलते हाथ ने तुझ को
    मेरा सलाम तो भेजा होगा

    प्यासी कुर्लाती कूंजों ने
    मेरा दुख तो सुनाया होगा

    मैं तो आज बहुत रोया हूँ
    तू भी शायद रोया होगा

    'नासिर' तेरा मीत पुराना
    तुझ को याद तो आता होगा

    इस में एक शब्द है "कुर्लाना" ये पंजाबी में बहुत इस्तेमाल होता है लेकिन उर्दू शायरी में पहली बार देखा है | Rekhta इसे हिन्दी ओरिजिन का बताता है | कई बार शायर ऐसे शब्द उठा भी लेता है जो दूसरी भाषा या उसकी रीजनल लैंग्वेज के हों |

    ये अशआर क्या तस्वीर खींचते है ..वाह !!

    रेल की गहरी सीटी सुन कर
    रात का जंगल गूँजा होगा

    शहर के ख़ाली स्टेशन पर
    कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

    Saturday, February 15, 2025

    ताज़ा ग़ज़ल - सतपाल ख़याल


    आख़िर  उन का  जवाब आ ही गया 
    दिल के बदले गुलाब आ ही गया 

    रोज़ बदला है  चाँद सा चहरा 
    रफ़्ता -रफ़्ता शबाब आ ही गया 

    बस इशारा सा इक किया उस ने 
    लेके साक़ी शराब आ ही गया 

    साथ लाया उदासियाँ अपने   
    इश्क़ ले  कर अज़ाब आ ही गया 

    उस ने देखा पलट-पलट के "ख़याल"
    कोशिशों का जवाब आ ही गया