Saturday, July 25, 2009

सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-दूसरी किश्त







पेश है अगली चार ग़ज़लें:

एक : शहादत अली निज़ामी

गै़र की आँखों का आसूं भी नींद उड़ा कर जाता है
दर्द ज़माने भर का मेरे दिल में ही क्यों आता है

सुनते-सुनते बरसों बीते कोई मुझको बतलाए
दर्दे-जुदाई सहने वाला पागल क्यों हो जाता है

गांव के कच्चे-पक्के रस्ते मुझको याद आते हैं
डाली पर जब कोई परिंदा मीठे बोल सुनाता है

बेताबी बेचैनी दिल की दर्दो अलम और बर्बादी
मेरा हमदम मेरी खातिर ये सौगातें लाता है

रिश्तों की जज़ीर कहां उड़ने देती है पंछी को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

सुनते हैं ये बात निज़ामी का है सब से याराना
नग़मे जो हर रोज वफ़ा के अपनी लय मे गाता है

दो : दर्द देहलवी

रोने वाले के दिल में कब कोई ग़म रह पाता है
बारिश में तो सारा कूड़ा-कर्कट ही बह जाता है

मौतों का शैदाई होकर मरने से घबराता है
ये ही तो इक रस्ता है जो उसके घर तक जाता है

होने को तो हो जाता है लफ़्ज़ों में कुछ अक्स अयाँ
लेकिन उसका हुस्न मुक्कमल शे’र मे कब ढल पाता है

बस्ती-बस्ती, सहरा -सहरा पानी जो बरसाता है
इन्सानों को करबो-बला के मंज़र भी दिखलाता है

सोना लगने लगती है जब देश की मिट्टी आँखों को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

दर्द अदब से शे’र भी सुनना सीख न पाया है अब तक
अहले-सुखन की महफ़िल में तू शाइर भी कहलाता है

तीन : विरेन्द्र क़मर बदर पुरी

मां की बीमारी का मंज़र सामने जब भी आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

मुट्ठी बांध के आने वाला हाथ पसारे जाता है
बतला अम्मी वो बनजारा आखिर ये क्यों गाता है

बस इक सांस का झगड़ा है सब, आए, आए ,न आए
नादां है इन्सान खनकते सिक्कों पर इतराता है

कितनी सच्ची कितनी झूटी है ये बात खु़दा जाने
सुनते तो हम भी आए हैं अच्छा वक्त भी आता है

छोड़ कमर यह दानिशवर तो उंची-ऊंची हांके हैं
सीधी सच्ची बात प्यार की क्यों इनको समझाता है

चार : देवी नांगरानी

हरियाली के मौसम में जब दौरे-खिजां आ जाता है
शाख पे बैठा पंछी उसके साए से घबराता है

कोई वो गद्दार ही होगा शातिर बनके खेले जो
परदे के पीछे कठपुतली को यूं नाच नचाता है

नींव का पत्थर हर इक युग में सीने पर आघात सहे
देख ये मंज़र बेदर्दी का आज वहीं शर्माता है

साहिल-साहिल, रेती- रेती , जन्मों से प्यासी-प्यासी
प्यास बुझाने का फन " देवी" बादल को क्या आता है

9 comments:

Science Bloggers Association said...

अरे वाह, इतनी शानदार गजलें,मजा आ गया।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

daanish said...

रिश्तों की जज़ीर कहां उड़ने देती है पंछी को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

दर्द अदब से शेरभी सुनना सीख न पाया है अब तक
अहले-सुखन की महफ़िल में तू शाइर भी कहलाता है

बस इक सांस का झगड़ा है सब,आए,आए,न आए
नादां है इन्सान खनकते सिक्कों पर इतराता है

नींव का पत्थर हर इक युग में सीने पर आघात सहे
देखके मंज़र बेदर्दी का आज वहीं शर्माता है

इतने पुर-असर और दिल को छू लेने वाले
अश`आर पढ़ कर बहुत तस्कीन हासिल हुई ...

जनाब शहादत अली साहब ने जो गिरह लगाई है
वो बहुत ही शानदार और जानदार है ...वाह !

'दर्द' , 'बदर्पुरी' और 'देवी' सब की ग़ज़लें भी बहुत पसंद आईं हैं

जनाब "ख़याल" साहब...
ये सब आपकी मेहनत और
लगन का नतीजा है ....

पहले तो इक दीवाना
इक मिसरा चुन कर लाता है
फिर पैगाम वही वो
खिदमतगारों तक पहुंचाता है
जब-जबभी कोई ग़ज़लों की
खेप "ख़याल" तलक पहुंचे
उन सब को शाए कर के
वो मन से खुश हो जाता है

गामज़न रहें......
अदब-नवाज़ दोस्तों की दुआएं आपके साथ हैं
---मुफलिस---

रंजना said...

वाह ! वाह ! वाह ! सभी एक से बढ़कर एक ......लाजवाब रचनाएँ......आनंद आगया पढ़कर.....आभार.

सतपाल ख़याल said...

इस बार तखय्युल और तग़ज्ज़ल की कुछ कमी है लेकिन फिर भी सब ठीक है.गुज़ारिश यही है कि सिर्फ़ बहर को ही न निभाया जाये कुछ तग़ज्ज़ल की चाशनी और तखय्युल का रंग भी मिलाया जाए ताकि पढ़ने वाले कुछ स्वाद ले सकें.

संजीव गौतम said...

सुनते-सुनते बरसों बीते कोई मुझको बतलाए
दर्दे-जुदाई सहने वाला पागल क्यों हो जाता
अच्छी ग़ज़लें हैं हमेशा की तरह.

अर्चना तिवारी said...

सभी ग़ज़लें बेहतरीन हैं

दिगम्बर नासवा said...

सुनते-सुनते बरसों बीते कोई मुझको बतलाए
दर्दे-जुदाई सहने वाला पागल क्यों हो जाता है
वाह कितनी लाजवाब बात कही है ............. सच और सच .........

रोने वाले के दिल में कब कोई ग़म रह पाता है
बारिश में तो सारा कूड़ा-कर्कट ही बह जाता है
रोने वाले अपना गम, अपना दर्द आंसुओं के JARIYE NIKAAL देते हैं............. बहुत KHOOB

मुट्ठी बांध के आने वाला हाथ पसारे जाता है
बतला अम्मी वो बनजारा आखिर ये क्यों गाता है
जीवन का SAMPOORN DARSHAN SIMET दिया है इस शेर मैं..........

नींव का पत्थर हर इक युग में सीने पर आघात सहे
देख ये मंज़र बेदर्दी का आज वहीं शर्माता है
बहुत ही KHOOBSOORAT है ये शेर

SATPAAL जी आपका SHUKRIY इस MUSHAYRE को इस MUKAAM TK PAHUNCHAANE के लिए............... हर SHAAYER KAMAAL का है, हर शेर लाजवाब .............

समयचक्र said...

शानदार गजलें..आभार.

गौतम राजऋषि said...

आपने सही कहा सतपाल जी..मेरे लिये तो छोटी मुँह बड़ी बात होगी, लेकिन शायद काफ़िये की वजह से ख्यालों में तंगी आ गयी\ अब हम द्विज जी से बराबरी करना तो सात जनम लेने पड़ेंगे, तब कहीं उनकी छोटी ऊँगली के समकक्ष पहुँच पायेंगे...
लेकिन मेरी अपनी पसंद और समझ के मुताबिक तो इस बार भी कुछ अच्छे शेर बन पड़े हैं