Sunday, August 2, 2009
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-अंतिम किश्त
अंतिम दो ग़ज़लें हाज़िर हैं.
पूर्णिमा वर्मन
जोर हवाओं का कश्ती को जब वापस ले आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
कितने हैं जो काट सकें तूफ़ानों को पतवारों से
तेज़ हवा में आगे बढ़ना सबसे कब हो पाता है
सागर गहरा नाव पुरानी मन में जागे डर रह रह
एक भरोसा ऊपरवाले का ही पार लगाता है
बिजली, बादल, आँधी ,पानी, ओलों या बौछारों में
हिम्मत करके चलने वाला आखिर मंज़िल पाता है
दुनिया कठिन सफर है यारों जिसकी राहें पथरीली
उसकी रहमत संग रहे तो हर सपना फल जाता है
सतपाल ख़याल
शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है
जाने क्या मजबूरी है जो अपना गांव छॊड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़-पट्टी मे आकर बस जाता है
देख तो कैसे आरी से ये काट रहा है हीरे को
देख तेरा दीवाना कैसे-कैसे वक्त बिताता है
तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है
रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है
चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है
कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है
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15 comments:
V.Nice. umda...keep it up sir.
बहुत बढिया गज़ले प्रेषित की हैं बधाई स्वीकारें।
दुनिया कठिन सफर है यारो------ बहुत ही सुन्दर वर्मन जी को बधा सारी गज़ल ही खूब सूरत है
शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है
मुझे गज़ल के सही या ना सही होने का तो पता नहीं मगर इनमे जो एहसास हैं वो लाजवाब हैं । सतपाल जी को बहुत बहुत बधाई
तो ....
ये वो खूबसूरत नायाब खज़ाना था ...
जो आपने अभी तक छिपा कर रक्खा हुआ था
बहुत ही बढ़या कलाम और अछि तर्जुमानी ....
जीवन की दुश्वारियों से दो-चार हो कर भी
उम्मीद का दामन थामे रहने का सन्देश देता हुआ ये खूबसूरत शेर......
सागर गहरा नाव पुरानी मन में जागे डर रह रह
एक भरोसा ऊपर वाले का ही पार लगाता है
और...
ख्यालों की मनमोहक दुनिया में विचरते हुए मन की अठखेलियों की खूबसूरत अक्क़ासी करता हुआ ये शेर.....
शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है
जिंदगी के बिलकुल क़रीब हो कर लिखा गया ये शेर sanjeed`gi se kahaa gayaa hai ...
तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है
पूर्णिमा बर्मन जी और सतपाल जी .....
दोनों को ढेरों मुबारकबाद .
---मुफलिस---
Shaandaar gazlen.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सतपाल जी सफल तरही के लिए बहोत बहोत बधाई और शुभकामनाएं वर्मन जी ने जो गिरह लगाई है उसके क्या कहने. बहोत ही उम्दा और उस्तादाना है ... और आपके गज़ल्गोई के क्या कहने ... ढेरो शुभकामनाएं...
अर्श
जियो सतपाल भाई अभी सोने जाने से पहले आपकी गज़ल पढी क्या ताज़गी मिली है? वाह!
पहले शेर में ग़ज़ले बुनना अलग ही आनन्द दे रहा है.
देख तो कैसे आरी से ये काट रहा है हीरे को
देख तेरा दीवाना कैसे-कैसे वक्त बिताता है
क्या बात है. काश बात को कहने का ये सलीका आ जाये.
चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है
कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है
बहुत अच्छा अंदाज़ है आपका.
पूर्णिमा जी की ग़ज़ल भी बहुत अच्छी है. इस शेर के क्या कहने-
दुनिया कठिन सफर है यारों जिसकी राहें पथरीली
उसकी रहमत संग रहे तो हर सपना फल जाता है
bahut bahut achhi rachnaayen ...
thnx for posting .. :)
बिजली, बादल, आँधी ,पानी, ओलों या बौछारों में
हिम्मत करके चलने वाला आखिर मंज़िल पाता है
Wah Purnima ji ki gazal padhna bahut achha laga
ye sher kahs tour par pasand aaya
शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है
wahhhhhhhhhhh kya baat kah di
जाने क्या मजबूरी है जो अपना गांव छॊड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़-पट्टी मे आकर बस जाता है
Ahahhhhhhhhhaaaaaaaaaa
तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है
रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है
चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है
wahhhhhhhh wahhhhhhhh
कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है
wah Satpal ji kya kamaal gazal kahi hai ek ek sher jaise aag se nikaal kar sona banaya ho
सतपील जी, अंतिम ग़ज़ल के रूप में आपने क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है, वाह, मज़ा आ गया। सभी शेर बहुत अच्छे हैं, पर ये शेर ख़ास तौर पर बहुत ही अच्छे लगे-
तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है
शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है
रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है
पूर्णिमा बर्मन के आख़िरी दो शेर बहुत अच्छे लगे-
बिजली, बादल, आँधी ,पानी, ओलों या बौछारों में
हिम्मत करके चलने वाला आखिर मंज़िल पाता है
दुनिया कठिन सफर है यारों जिसकी राहें पथरीली
उसकी रहमत संग रहे तो हर सपना फल जाता है
अच्छा किया सतपाल जी कि इन दो बेमिसाल ग़ज़लों को आपने अंत में रखा...वर्ना तो
उफ़्फ़्फ़...
पूर्णिमा जी के तो हम जाने कब से फैन हैं..इस शेर पर तो क्या कहूँ "कितने हैं जो काट सकें तूफ़ानों को पतवारों से/तेज़ हवा में आगे बढ़ना सबसे कब हो पाता है" अहा!
और आपकी ग़ज़ल तो...! कुछ कहने की जरूअरत है..."देख तेरा दीवाना कैसे-कैसे वक्त बिताता है" वाले शेर एकदम से जुबान पर चढ़ गया है और मेरे यार-दोस्तों में अभी बस फैलने वाला है...
आप उस्तादों के संग हमें जगह ही मिल जाती है, बड़े सम्मान की बात है हमारे लिये।
bahut sundar..
आदरनीय, आपका ब्लॉग तो पूरी दुनिया में देखा जा रहा है. आज ही मैंने देखा . मेरा ब्लॉग है नयाचिन्तन. अभी-अभी शुरू किया है. नेट हाल ही में लगाया हिया. लिखने का अभ्यास कर रहा हूँ. बड़े लेख नहीं लिख पा रहा. अभी अपनी ग़ज़ले ही दे रहा हूँ. आपको भी कुछ भेजूंगा. गिरीश पंकज
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