वक़्त कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता। ऐसा लगता है कि हम जैसे किसी पुल की तरह खड़े रहते हैं और वक़्त गाड़ियों की तरह निरंतर गुज़रता रहता है। जब द्विज जी से मिला था कालेज में उस वक़्त मेरी उम्र १८-१९ साल की थी और मैं पंजाबी में कविता लिखता था और शिव कुमार बटालवी का भक्त था जो आज भी हूँ लेकिन ग़ज़ल की तरफ़ रुझान द्विज जी की वज़ह से हुआ और ये ग़ज़ल जो आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं द्विज जी ने तभी कही थी । वो कालेज का समय, वो उम्र, वो बे-फ़िक्री कभी लौट कर नहीं आती लेकिन मन हमेशा गुज़रे हुए वक़्त को छाती से ऐसे लगा के रखता है जैसे कोई मादा बांदर अपने मरे हुए बच्चे को छाती से लगा के घूमती हो जिसे ये विशवास ही नहीं होता कि ये बच्चा मर चुका है।
लीजिए द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाइए-
हमने देखी भाली धूप
उजली, पीली, काली धूप
अपना हर कोना सीला
उनकी डाली-डाली धूप
अम्बर-सा उनका सूरज
अपनी सिमटी थाली धूप
बर्फ़-घरों में तो हमको
लगती है अब गाली धूप
मछली जैसे फिसली है
हमने जब भी सम्हाली धूप
पास इसे अपने रख लो
ये लो अपनी जाली धूप
शिव कुमार बटालवी का ज़िक्र हुआ है तो क्यों न आसा सिंह मस्ताना की आवाज़ में शिव की ये ग़ज़ल-
मैनूँ तेरा शबाब लै बैठा
रंग गोरा गुलाब लै बैठा
किंनी बीती ते किंनी बाकी ए
मैनूँ एहो हिसाब लै बैठा..
सुनी जाए-
14 comments:
Gujre waqt ki baateN aur ye Gazal. Shukriyaa!
द्विज जी की गज़ा और फिर बटालवी जी की रचना सुनना..आनन्द आ गया.
Dwij ji ki chhah padi sheron mein sadgi hai. Danishmando ki ghazal se talluq rakhanewali gintiyoa se befiqra apne apni unke liye jo izzat nibahi vah qabile sukun hai.
Shivkumar Batalvi ki panjabi rachna jagjeetsingh ji aawaz mein damdar asar chhodti hai.
'Aaj ki ghazal' blog ke zariye aap bahut accha kam kar rahein. Badhaiya.
द्विज भाई से कभी सीधे-सीधे संवाद तो नहीं हुआ लेकिन जितना पढ़ा अच्छा लगा। उस्तादाना अंदाज़ रहता है। गंभीर लिखते हैं। पूर्ण लिखते हैं। परिपक्व लिखते हैं।
अब उनसे संवाद शुरू हो इसलिये कुछ मज़ाक हो जाये:
बीबी लगती बर्फ की सिल्ली
औ लगती है साली धूप
द्विज भाई कि ग़ज़ल पढवाने के लिए आभार सतपाल जी...
द्विज जी के लिए....
अम्बर-सा उनका सूरज
अपनी सिमटी थाली धूप
लेकिन मन हमेशा गुज़रे हुए वक़्त को छाती से ऐसे लगा के रखता है जैसे कोई मादा बांदर अपने मरे हुए बच्चे को छाती से लगा के घूमती हो जिसे ये विशवास ही नहीं होता कि ये बच्चा मर चुका है।
सच कहते हो...
द्विज भाई कि ग़ज़ल पढवाने के लिए आभार सतपाल जी...
द्विज जी के लिए....
अम्बर-सा उनका सूरज
अपनी सिमटी थाली धूप
लेकिन मन हमेशा गुज़रे हुए वक़्त को छाती से ऐसे लगा के रखता है जैसे कोई मादा बांदर अपने मरे हुए बच्चे को छाती से लगा के घूमती हो जिसे ये विशवास ही नहीं होता कि ये बच्चा मर चुका है।
सच कहते हो...
wah sahab bahut khoob..
द्विज जी की ग़ज़ल अच्छी लगी । उनके यहाँ हरी-भरी वादियों जैसी ख़ूबसूरती मन को भली लगती है ।
द्विज जी की गज़लें
तो जाने हम सब की अपनी-ही गज़लें होती हैं
हर शेर में अपनी कोई बात महसूस होने लगती है
जिंदगी की छोटी-बड़ी,, तीखी-मीठी
सभी कुछ तो मिल जाता है उन्हें पढ़ कर
"अम्बर-सा उनका सूरज
अपनी सिमटी थाली धूप"
बहुत ला-जवाब शेर कहा है जनाब ने
उन्हें मेरा सलाम कहिएगा.....
"उजले-उजले शेर सभी
जैसे हो मतवाली धूप "
और गीत का लुत्फ़ अलग से आ रहा है
आभार स्वीकार करें
आनंद आ गया ...... शिव कुमार जी का गीत और द्विज़ जी की लाजवाब ग़ज़ल ......... मज़ा आ गया ........
द्विज जी गज़ल उस्ताद हैं उनकी कलम को सलाम ही कर सकती हूँ। बटालवी की ये गज़ल हर माह जब हम कोई साहित्यिक प्रोग्राम करते हैं तो जरूर सुनते हैं शायद आपने पम्मी हंसपाल का नाम सुना हो लाजवाब आवाज़ और सुर मे गाता है । आसा सिंह मसताना जी की आवाज़ का जादू तो पहले भी देखा है । उन्हें सुनकर सुखद अनुभूति होती है। धन्यवाद इस लाजवाब प्रस्तुति के लिये।
गुरु वर द्विज जी की ग़ज़लों के बारे में क्या कहूँ बस यह कह सकता हूँ के उनके नजदीक हूँ ये मेरा सौभाग्य है ... कुछ एक बार उनसे बात हुई है ये सौभाग्य मिला है मुझे ... मुरीद हूँ की ग़ज़लों ...
अर्श
aabhaar.
मजेदार गजलों के लिए आभार !
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